चिंटू - ज़िंदगी तो बेवफ़ा है



      सुबह-सुबह खबर मिली कि चिंटू नहीं रहा। उससे कोई खास दोस्ती जैसी तो नहीं थी लेकिन बचपन से जानता था उसे। मुझे तो उसका असली नाम भी याद नहीं, सब उसे चिंटू ही कहते थे। मन उद्वेलित हो गया। ध्यान बार-बार उसी तरफ जाने लगा। उसकी उम्र लगभग 40 साल रही होगी। इन 40 सालों में उसने ज़िंदगी को जिया नहीं बल्कि जैसे-तैसे काटा था। ऐसा भी नहीं कि बहुत ही गरीबी में पैदा हुआ हो। उसके पिता शिक्षक थे और गाँव में उनकी अच्छी साख थी। पैसा भी उनके पास पर्याप्त था लेकिन घर में बहुत सख्त मिजाज आदमी के रूप में ही रहते थे। वैसे ये कोई नई बात नहीं है, पिछली पीढ़ी के सारे पिता मुँह लटकाए और भौहें चढ़ाये रखने पर ही अपने आप को पिता मान पाते थे। जब तक एकाध बार अपनी औलादों की मरम्मत न कर दें उन्हें यकीन होना मुश्किल होता था। आज के पिताओं जैसे नहीं जो बच्चों को उठाए-उठाए घूमते हैं। तब तो बच्चे नाम से ही मूत दिया करते थे। चिंटू के पिताजी कुछ ऐसे ही थे और शायद इसी वजह से या अपने स्वभाव और इस माहौल के घाल-मेल के परिणामस्वरूप वो खिलंदड़ हो गया था। पिता से बहुत डरता था लेकिन बाहर जैसा उसका व्यवहार था वो समाज के अच्छे लड़के के पैमाने पर खरा नहीं उतरता था। तरह-तरह की शैतानियाँ और सारे उल्टे-सीधे काम। दोस्तों के बीच उसकी पहचान एक मसखरे के रूप में थी। पिता से वो हमेशा ही नाराज़ रहा करता था पर उनके सामने ज़बान को लकवा मार जाता था सो अपना गुस्सा निकालने का उसने एक नायाब तरीका खोजा। पिताजी का कुर्ता पाजामा लटका कर वो एक लट्ठ लेकर उन्हें खूब पीटता था। अब इसी एक हरकत से आप अंदाज़ लगा सकते हैं कि उसका दिमाग किस तरह काम करता था। स्कूल के जमाने में ही सिगरेट पीना शुरू कर दिया था और कॉलेज तक पहुँचते-पहुँचते शराब का शौक लग गया था। पिता से पैसे मिलते नहीं थे तो उसका जीवन के लिए संघर्ष तभी से शुरू हो गया था।
यूं देखने में बात सीधी सी लगती है कि एक लड़का है जो बिगड़ गया, उसे बुरी लतें लग गईं और अपनी लतें पूरी करने के लिए वो और-और गढ्ढे में गिरता चला गया लेकिन थोड़ा गहराई में जाएँ तो क्या ऐसा नहीं लगता कि उसके अंदर ऊर्जा थी जिसे दिशा चाहिए थी। एक साँचे में ढले बाप कभी सोच नहीं पाते थे कि हर बच्चे का स्वभाव अलग होता है इसलिए उन्हें अलग-अलग तरह से हैंडल किया जाना चाहिए। चिंटू के पिता अगर इतना समझते और उस पर पाबन्दियाँ लगाने कि बजाय उसे दिशा देने की कोशिश करते या कम से कम संवाद ही बनाए रखते तो शायद आज चिंटू कुछ और होता और शायद असमय ऐसी मौत मरता भी नहीं।
बहरहाल, चिंटू काफी ज़िंदादिल था। हमेशा हँसते-मुसकुराते रहना उसकी आदत थी। मैं जब स्कूल में था तब वो कॉलेज में पढ़ रहा था। पढ़ाई में कम लेकिन हंगामों में वो हमेशा नज़र आता था। कभी हड़ताल में कभी धरने पर, कभी प्रदर्शन में। कॉलेज का जीवन बहुत ही मस्तमौला होता है। उस समय ये बात कभी ज़ेहन में आती ही नहीं कि ये वक़्त ठहरेगा नहीं...गुज़र जाएगा और अपने साथ ये सारी मस्तियाँ भी ले जाएगा। तब तो यूं लगता है कि ज़िंदगी कितनी खूबसूरत है, सब कुछ अच्छा है, बहुत से दोस्त, घूमना-फिरना, गप-शप, सिगरेट का धुआँ और शराब की मदहोशी। लेकिन वक़्त गुज़र जाता है और एक दिन पता चलता है कि अचानक ज़िंदगी पूरी तरह से बदल गई है। चिंटू का भी वो वक़्त आखिर गुज़र गया जब वो पिता के खूंखार पंजों से भाग कर दोस्तों के बीच सुख ढूंढ लेता था। कॉलेज खत्म हुआ और ज़िंदगी नंगी होकर उसके सामने खड़ी हो गई। उसने कभी सोचा ही नहीं था कि ज़िंदगी अपने नंगे स्वरूप में ऐसी भी दिखाई दे सकती है। उसकी न कोई तैयारी थी और न उसके पास कोई सहारा था। वो बेचैन हो गया। उसकी ऊटपटाँग हरकतें हालांकि जारी रहीं। एक दिन पिताजी से झगड़ा हो गया, पैसों को लेकर। पिताजी ने पैसा देना बिलकुल बंद कर दिया था। चिंटू ने बूट पॉलिश की एक डिबिया और एक ब्रश खरीदा और चौराहे पर जाकर बैठ गया। भले ही उसके पिता बहुत पैसेवाले नहीं थे पर उनका सम्मान था गाँव में और शायद उसी को वो ठेस पहुँचाना चाहता था। उसे अपनी तो कोई फिक्र थी ही नहीं क्योंकि लोग क्या कहते हैं इसकी उसने कभी परवाह की ही नहीं थी। चौराहे पर वो लोगों के जूते पॉलिश करने लगा। यार-दोस्त अब भी थे और उसकी इन हरकतों पर अब भी हँसते थे, कॉलेज में बनी मसखरे की छवि से दोस्तों ने उसे गंभीरता से लेना बंद कर दिया। और ले भी लेते तो क्या कर लेते? कितनी ही ज़िंदगियाँ ऐसे खत्म हो गईं और आस-पास के लोग बस देखते रहे। कुछ दिनों तक ये काम चलता रहा फिर पता नहीं क्या हुआ, उसके पिता ने उसे समझाया या किसी और ने लेकिन फिर उसने वो काम बंद कर दिया।
खिलंदड़ स्वभाव भी ज़िंदगी की तल्खियों को रोक तो नहीं सकता। ज़िंदगी अब रोज़ आकर खड़ी हो जाती और पूछती कि अब आगे क्या
? उसे नज़रअंदाज़ करने के लिए उसने और ज़्यादा शराब पीना शुरू कर दिया। उसने फिसलन की राह पकड़ ली थी। ज़िंदगी के सवालों से बचने के लिए उसने ज़िंदगी को ही नज़रअंदाज़ कर दिया। इसी बीच उसकी शादी भी हो गई। जो आदमी खुद अपना बोझ नहीं उठा पा रहा था उसके सिर पर समाज और परिवार ने एक और बोझ लाद दिया। हमारे समाज में लोगों की बहुत ही वैज्ञानिक सोच है कि जो गलत राह पर चला गया है उसकी शादी कर दो, सुधर जाएगा। ये भी हमारे दोगलेपन की ही एक मिसाल है क्योंकि अपने घर के एक सदस्य को सुधारने के लिए ये एक प्रयोग होता है जिसमें एक जीती-जागती लड़की की बलि चढ़ जाती है लेकिन इस तरह से शायद ही कोई सोचता हो। वैसे भी हमारे समाज में औरत के बारे में इतना कोई नहीं सोचता। वो या तो घर का चौका-चूल्हा करने के लिए लाई जाती है या ऐसी ही किसी बिगड़ी औलाद को सुधारने की कोशिश में। और इस कोशिश में परिवार दोहरी गलती करता है। पहला व्यक्ति जिसका जीवन गलत राह पर जा चुका है उसका भी जिम्मेदार कहीं न कहीं परिवार और समाज होता है और फिर वो एक और ज़िंदगी खराब कर देता है। सिर्फ शादी से कोई सुधार न हो तो बेवकूफी की उस सीमा तक जाते हैं जहां उस नाकाम व्यक्ति के सिर पर सिर्फ पत्नी ही नहीं 2-3 बच्चों का बोझ भी लदवा दिया जाता है। ले भाई अब भुगत। वो पहले ही ज़िंदगी से घबराया हुआ था अब तो वो चारों ओर से घिर गया। शादी होने के बाद लड़के का अपना एक अलग परिवार मान लिया जाता है। तो उसके अंजाने ही अब उसका एक अलग परिवार था जिसकी पूरी ज़िम्मेदारी उसकी थी, बाकी लोग बिना अपराधबोध के अब उससे पल्ला झाड़ सकते थे। वो और भी बुरी अवस्था में पहुँच गया।
सिर्फ वो ही नहीं अब उसके इस नए परिवार का हर सदस्य ज़िंदगी की आंच में रोज़ तला जाने लगा। इस सब का खामियाजा बच्चों को बेवजह भुगतना पड़ता है। बच्चे न अपने लिए माँ-बाप चुनते हैं
, न परिवार और न समाज। ये पूरी तरह इन तीनों की ही ज़िम्मेदारी बनती है कि अगर ये किसी बच्चे को जीने लायक वातावरण देने में असमर्थ हैं तो उसे इस दुनिया में लाने की कोशिश ही न करें। जिससे खुद अपनी ज़िंदगी संभाली न गई हो वो अपने बच्चों को भी कैसे राह दिखाएगा? शायद इसी तरह हमारे देश में पीढ़ियों पर पीढ़ियाँ बर्बाद हुई हैं।
चिंटू दिन-रात नशे में डूबा रहने लगा। बीवी जैसे-तैसे घर चला रही थी। चिंटू के भाई और पिता मदद करते रहते थे। घर में झगड़े होने लगे। चिंटू अपनी बीवी की जली-कटी सुनने से बचने के लिए घर ही नहीं आता। शराब पीकर यहाँ-वहाँ पड़ा रहता। उसके पास पैसे नहीं होते तो आते-जाते लोगों से 5-10 रुपये मांग कर इकट्ठे कर लेता और फिर पी जाता। सब जानने लगे। लेकिन फिर भी कुछ लोग मिल ही जाते थे जो उसे 5-10 रुपये देकर जान छुड़ा लेते थे
, कुछ दोस्त भी पैसे देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते थे। सोचने वाली बात है। एक व्यक्ति इस समाज के सामने ही पैदा होता है, बचपन गुजारता है, उसके सामने शैतानियाँ करता है तब यही लोग हँसते-मुसकुराते हैं, जवानी में मसखरी करता है और यही लोग अपना मनोरंजन करते हैं, वो बूट पॉलिश करने लगता है एक शिक्षक का बेटा होने के बावजूद और समाज अपने बूट उससे मजे ले-लेकर पॉलिश करवा लेता है, फिर वो शराबी हो जाता है और ये समाज ये जानकारी दूसरों को देकर आगे बढ़ जाता है फिर वो नशेड़ी हो जाता है, फिर वो दर-दर की ठोकरें खाने लगता है, फिर वो लोगों से मांगने भी लगता है...और अंत में बेमौत मर जाता है...हमारा समाज सब कुछ साक्षी भाव से देखता है। वो सब देखकर किसी संत के भाव से आगे बढ़ जाता है।
चिंटू कईं सालों तक ऐसे ही पीता रहा और दयनीय अवस्था में जीता रहा और उसके पीछे जो उसके आश्रित थे वो और दूसरों पर आश्रित रहे और एक तरह से वो भी दयनीय जीवन जीते रहे। ऐसा नहीं कि किसी ने उसे राह पर लाने के लिए कुछ नहीं किया। उसके पिता और भाइयों ने उसे डराया, धमकाया, समझाया पर शायद अब देर हो चुकी थी। फिर अचानक एक दिन उसका जवान भाई मर गया। उसका लीवर खराब हो गया था। पता नहीं डर से या दुख से लेकिन चिंटू समझने के लिए तैयार हो गया। उसका इलाज करवाया गया और उसकी शराब की लत छुड़वाने की कोशिश की गई। उसने भी शायद मन ही मन संकल्प कर लिया था, जीवन में पहली बार, कि उसे शराब छोडनी है। हो सकता है अपनी इस ग़लीज़ सी ज़िंदगी से वो तंग आ गया हो। जो भी हो पर कोशिश कामयाब हुई और उसे लत से छुटकारा मिल गया। उसके दूसरे भाई ने कोशिश की और एक बैंक में उसे चपरासी की जगह रखवा दिया। हालांकि उस बैंक में पहले से एक चपरासी था लेकिन बैंक मैनेजर भला आदमी था, उसे सारी बातों की जानकारी थी सो, उसने किसी तरह उसके लिए जगह बना ली।
अब चिंटू बाकायदा एक दुनियादार आदमी हो गया था। वो मैनेजर का आभारी था। अब उसका घर कुछ सामान्य हो चला था। दिन भर बैंक में व्यस्त रहता था और शाम को घर में। ये सब होने के पहले ही उसके पिता चल बसे थे और मन में ये बहुत बड़ा दुख लेकर ही गए कि बेटा दर-दर की ठोकरें खा रहा है। आज वो होते तो शायद उनसे ज़्यादा खुश और कोई नही होता पर फिर भी वो इसे ज़ाहिर तो नहीं ही करते।
चिंटू की कहानी में अब शायद कहने लायक कुछ नहीं था। समाज की तरह कहानी भी किसी दुर्घटना की मांग करती रहती है जिससे वो आगे बढ़ती रहे। बताइये अगर कहानी के सभी पात्र रोज़ अच्छी तरह से खा रहे हैं, काम पर जा रहे हैं, प्रेम से रह रहे हैं तो कहने को क्या बचता है? कौन दिलचस्पी लेता है ऐसी कहानी या ऐसी किसी ज़िंदगी में?
पर कहानी अभी खत्म नहीं हुई थी। बैंक मैनेजर बुजुर्ग थे, कब तक साथ देते, एक दिन वो रिटायर हो गए। चिंटू ने बहुत प्रेम से उनके विदाई कार्यक्रम की व्यवस्था की। उसके मन में उनके प्रति अगाध श्रद्धा थी। उसे क्या पता था कि इनका जाना उसके जीवन को फिर उलट-पुलट कर जाएगा। वो चले गए, उनकी जगह एक नौजवान मैनेजर आया। पुराने मैनेजर को चिंटू के परिवार उसके बारे में सब जानकारी थी और उससे सहानुभूति भी थी। लेकिन नए मैनेजर को इस सब से कोई सरोकार नहीं था। उसकी नज़र में वो एक अक्षम कर्मचारी था जो कि बड़बोला भी था। नए मैनेजर में साहब होने का एक रौब भी था। चिंटू का स्वभाव तो अब भी वैसा ही था, बेबाक। मैनेजर को शुरू से ही वो पसंद नहीं आया और एक दिन उसे गैर ज़रूरी समझ कर नौकरी से निकाल दिया गया। चिंटू ने बहुत हाथ-पैर मारे, जान-पहचान वालों से सिफ़ारिश करवाई, मैनेजर के हाथ-पैर भी जोड़े, पुराने मैनेजर से भी गुहार लगाई और गुस्से में नए मैनेजर को धमका भी दिया लेकिन सब बेकार साबित हुआ। उसे बहाल नहीं किया गया। ज़िंदगी फिर वहीं आकर खड़ी हो गई थी। उसने एक बार फिर ये सोचा ही नहीं था कि वक़्त गुज़र जाता है। अब वो उस उम्र में भी नहीं था जब वो हर फिक्र को धुएँ में उड़ा देता। दिन काटने मुश्किल हो गए। घर एक बार फिर खाली हो गया। गाँव में एक नई बैंक खुल रही थी, वो पहला मौका पाकर उसके मैनेजर से मिल लिया। उसने नौकरी के लिए विनती की और अपने पिछले अनुभव के बारे में भी बताया। नए मैनेजर ने उसके सामने एक शर्त रख दी कि उसे कुछ नए खाते खुलवाने पड़ेंगे तभी वो नौकरी देगा। शायद उसने सोचा होगा कि यहीं का निवासी होने के कारण वो लोगों को लाकर खाते खुलवा देगा लेकिन ये वही समाज था जिसने उसे बचपन से अब तक मजे ले-लेकर देखा था इसलिए कोई भी उसे गंभीरता से लेने को तैयार नहीं था। मुझे याद है वो उसी दौर में एक बार मुझे भी मिला था और उसने मुझसे कहा था कि एक बार मैनेजर से मिल लो, मैं खाता खुलवा दूंगा। लेकिन मुझे नए बैंक खाते की कोई ज़रूरत ही नहीं थी। फिर मैंने सोचा भी कि चलो उसकी मदद के लिए ही एक बार मैनेजर से जाकर मिल लेंगे लेकिन बैंक अब तक खुली नहीं थी सिर्फ उसकी बिल्डिंग ही बन रही थी। बात आई-गई हो गई, मैं भी अपने कामों में व्यस्त हो गया। फेसबुक पर उसके संदेश नज़र आते रहते थे जिसमें वो नए बैंक मैनेजर से कभी विनती किया करता था नौकरी पर रखने की और कभी उस पर अपना गुस्सा निकाला करता था।
ज़िंदगी पहले से कईं गुना भारी हो गई थी। उसके लिए इस नई परिस्थिति से मुक़ाबला करना मुश्किल हो रहा था। उसने उस दौर में जितनी शराब पी ली थी उसने उसे अंदर से बिलकुल खोखला कर दिया था। शरीर में तो कुछ था ही नहीं, अब मन भी बहुत कमजोर हो गया था। जवानी में भविष्य इतना ज़्यादा परेशान नहीं करता लेकिन एक उम्र के बाद बहुत डराता है। दुनिया में बहुत से लोगों के लिए ज़िंदा रहना ही सबसे मुश्किल काम होता है। दिन पर दिन बीत चले लेकिन ज़िंदगी के एक बार फिर बदलने के कोई आसार नज़र नहीं आ रहे थे। अब वो बूट पॉलिश भी नहीं कर सकता था, लोगों से 5-5, 10-10 रुपये भी नहीं मांग सकता था। शराब की वजह से उसका लीवर खराब हो चुका था लेकिन जब तक वो नौकरी में था उसे फिर पूरी तरह स्वस्थ हो जाने की पूरी उम्मीद थी, वो लोगों को अपने नाखून दिखा कर कहता “देखो, लाल हो रहे हैं ना?” लेकिन अब वो बिलकुल गुमसुम हो गया था, दिन भर अपने घर के बाहर चुपचाप बैठा रहता। पहले आते-जाते लोगों से दुआ-सलाम कर लेता था, हँस-बोल लेता था लेकिन अब किसी पर ध्यान नहीं देता था। ज़िंदगी का शिकंजा पहले से भी ज़्यादा कसा हुआ था। कब तक सहता? कमजोर शरीर एक बार चल सकता है लेकिन कमजोर मन कहाँ तक ज़िंदगी को खींच सकता है? शायद वो टूट गया...और उसने हाथ जोड़ लिए ज़िंदगी के कि अब मुझे माफ करो मैं और तुम्हें नहीं ढो सकता...और आखिर...
मेरी नज़र में वो बुरा आदमी कभी नहीं था। शराब पीता था लेकिन किसी का बुरा नहीं किया कभी, किया तो खुद अपना ही बुरा किया। मुझे समझ नहीं आता उसने अगर ऐसी ज़िंदगी जी तो उसके पीछे के कारण मैं क्या समझूँ? मुझे जो खल रहा है शायद इसी को श्मशान वैराग्य कहते हैं जो अपने आस-पास के किसी व्यक्ति की मृत्यु पर हर इंसान में पैदा होता है, या शायद मुझे सचमुच बहुत दुख है एक ऐसी ज़िंदगी के अपने नजदीक से गुज़र जाने का।



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