कहानी 2


         फिल्म निर्माण की प्रक्रिया को समझने का एक नुकसान ये है कि कोई भी फिल्म देखते समय दिमाग के पिछवाड़े में कहीं ये सब चलता रहता है कि कैमरा एंगल क्या है? शॉट कैसा है? एक्टर के मन में अभी क्या चल रहा है? भाव सही हैं या नहीं? पार्श्व संगीत सही है या नहीं? वगैरह वगैरह...
 बचपन में जब फिल्में देखते थे तो खलनायक को पिटते देख कर अपनी भी मुट्ठियाँ भिंच जाती थीं कि दे एक और साले को मेरी तरफ से भी...लेकिन अब अगर फिल्म में कोई तकनीकी कमी भी है तो वो ध्यान खींच लेती है। दूसरा पहलू ये है कि ऐसे में किसी भी फिल्म के अच्छी या बुरी होने का निर्णय आसान हो जाता है और कहानी 2 की सफलता सिर्फ यही एक बात तय कर देती है कि फिल्म अपने आप में हमें डूबो लेती है, वो हमें ये सब सोचने ही नहीं देती कि कैमरा वगैरह क्या है? या फिर कैमरा कहीं है भी या ये सब वास्तव में घट रहा है? फिल्म की कहानी अपने साथ बहा ले जाती है...वहाँ, जहां आप उस दुनिया का एक हिस्सा हो जाते हैं जो फिल्म में दिखाई जा रही है।

कहानी 2 का कहानी 1 से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि विद्या बालन का पूरा चरित्र ही अलग है। कहानी 1 में जहां वो एक मजबूत औरत थी यहाँ थोड़ी आम सी है, थोड़ी डरपोक, सहमी हुई सी लेकिन परिस्थिति आने पर कुछ भी कर गुजरने वाली। कहानी को मैं ज़्यादा नहीं खोल सकता वरना आपका मज़ा खराब हो जाएगा लेकिन फिल्म को जिस रोमांचक तरीके से बुना है सुजोय घोष ने वो कमाल है।

अपने आप को जमाने में ज़्यादा समय नहीं लेते हुए फिल्म आपको पहले 10 मिनट में ही जोरदार झटका दे देती है और फिर आप झूला झूलते रहते हैं...ऊपर, नीचे, दायें, बाएँ।
फिल्म में सब तरफ विद्या बालन हैं...कहने का मतलब है कि वो इतना छाई हुई हैं कि बाद में आपको सिर्फ और सिर्फ वही याद रहती हैं, बाकी सारे अभिनेता गौण हो जाते हैं। हालांकि अपने-अपने चरित्र को सभी ने बखूबी निभाया है। अर्जुन रामपाल बने ही ऐसे चरित्र के लिए हैं जहां स्क्रीन प्रेजेंस दमदार हो और चरित्र को ज़्यादा भाव प्रदर्शन न करना हो। भावहीन चेहरा एक सस्पेंस फिल्म के लिए ज़रूरी है। जुगल हंसराज मासूम के बाद से अब तक संघर्ष कर रहे हैं और बाल कलाकार से उनका सफर खलनायक तक पहुँच गया है, इस फिल्म में तो काम अच्छा ही किया है उन्होने।

कास्टिंग बहुत बढ़िया है, खास तौर पर बच्ची। अलग-अलग उम्र की दो एक जैसी बच्चियाँ ढूँढना जो अभिनय भी अच्छा कर लेती हों कमाल ही है। कुछ अगर कमजोर है फिल्म में तो अर्जुन रामपाल और उनकी पत्नी की कहानी जो जबर्दस्ती थोपी हुई लगती है। पत्नी का किरदार निभाने वाली अदाकारा को अभिनय बिलकुल नहीं आता, वो बस अपने संवाद मज़ेदार बनाने की कोशिश करती हुई लगती है और लेखक ने भी इस ट्रैक को मज़ेदार बनाने की कोशिश में इसे बरबाद कर दिया। दोनों के बीच की बातचीत बोर करती है पर सौभाग्य से वो ज़्यादा नहीं है इसलिए फिल्म का मज़ा खराब नहीं होता।

ऐसी फिल्मों में अमूमन गीतों की ज़रूरत नहीं होती और अगर हो भी तो आजकल गीत ऐसे बनते हैं कि उससे बेहतर है कि बात को संवाद के माध्यम से कह दिया जाये। फिल्म में एक ही गीत है जो बिलकुल पिछले कई सालों से बन रहे गीतों जैसा ही लगता है। कहना क्या चाहता है समझ नहीं आता। शायद आजकल गीत बनाने का तरीका ये है कि कोई एक उर्दू या अंग्रेज़ी शब्द तय कर लो फिर उस शब्द को चबाते रहो मतलब 5-7 बार एक साथ वो शब्द रिपीट होना चाहिए और बाकी कुछ भी लिख दो। धुन कोई भी नर्सरी राईम की चलेगी। यहाँ जिस शब्द की शामत आई है वो है मेहरमबरसों पहले अमिताभ बच्चन की फिल्म मि. नटवरलाल में एक गीत था मेरे पास आओ मेरे दोस्तों जिसमें वो गीत में कहानी सुनाते हैं, मेरे खयाल से वो भी इन गीतों से ज़्यादा संगीतमय था।

विद्या बालन जैसी बेहतरीन अभिनेत्री शौचालय में ज़ाया हो रही है, हमें और फिल्में चाहिए उनके काबिल

फिल्म वही है जो खत्म होने के बाद भी आपका पीछा न छोड़े और ये ऐसी ही फिल्म है। मेरी सलाह है कि देखने ज़रूर जाइए। आखिर साल में कुछ ही तो फिल्में आती हैं इस तरह की।

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टिप्पणियाँ

  1. पुरी तरह सहमत... बस सुजोय घोश को शुजित सरकार लिख गये आप

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