कलयुग और रामायण - ये मर्ज़ पुराना है

 



पोस्टर में जो नाम लिखा है "कलयुग और रामायण" वो असल में "कलयुग की रामायण" था।

मनोज कुमार जो भी बने हैं वो सस्ती देशभक्ति बेचकर बने हैं। उपकार फिर भी ठीक थी, पूरब और पश्चिम बचकानी थी और उसके बाद तो साहब जो कचरा परोसा है इन्होंने, पर बड़ा नाम थे।

ख़ैर, मुद्दे की बात ये है कि जब ये फ़िल्म इन्होंने बनाई तो सरकारी सेंसर बोर्ड से लेकर नुक्कड़ सेंसर तक उलझ गई। सेंसर बोर्ड ने पहले तो नाम बदलवाया क्योंकि कलयुग की रामायण से धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचती थी। हम और कुछ भले न कर पाएँ, पर हमारी भावनाएँ ठेस पहुँचने के मामले में दुनिया में नंबर वन हैं।

इसके बाद साहब इन्होंने फ़िल्म शिव-सेना, विश्व हिंदू परिषद समेत कुछ और लप्पुझन्ना संगठनों को दिखाई कि देख लो भाई, तुमको भी कुछ बुरा लग रहा हो तो। ये सब वैसे ही आग मूते हुए थे इस नाम पर। मनोज कुमार ने इन्हें  इसलिए भी दिखाई कि उनकी पिछली फिल्मों को लेकर भी इन ज़हालत के थोक विक्रेताओं ने बवाल मचाया था। तो साहब, इन ठेकेदारों ने मनोज कुमार को कुछ दृश्य, और कुछ संवाद हटाने की हिदायत दी। यानि सरकारी सेंसर ने तो बताया ही था, इन दो टकियों ने भी कटवाई, और बड़ी दौड़-भाग के बाद लंबे समय में बची-खुची फ़िल्म रिलीज़ हुई। फ़िल्म के किरदारों के नाम राम और सीता से रमन और सविता हो गए। हालाँकि कुछ कटता या न कटता, फ़िल्म कचरा ही होनी थी, पर यहाँ बात यूं है कि आज जिस परिस्थिति का रोना रोते हो उसे यहाँ तक लाया कौन??

बल्कि, अप्रत्यक्ष रूप से इन मनोज कुमार साहब ने भी इन्हें सींचा है। जिस भावना के उबाल से कमाई की, उसी का खामियाज़ा भुगता। आज हम भी भुगत रहे हैं।

ये जो हर ऐरा-गैरा खड़ा होकर फिल्मकार को फ़िल्म बनाना सिखाता है, लेखक को लेखन सिखाता है, पेंटर को पैंटिंग सिखाता है, संगीतकार को संगीत सिखाता है, इस ऐरे-गैरे को ये भाव किसने दिया?? जब ये पहली बार खड़ा हुआ था तभी एक कंटाप टिकाते तो आज शायद दृश्य कुछ और होता, कह देते कि तुम्हारी उस क्षेत्र में कोई योग्यता है जो तुम उंगली उठा रहे हो? किसी विषय पर चर्चा उस विषय के विशेषज्ञों की ही मान्य होगी। पर नहीं, तुम उनकी पप्पी लेते रहे, क्योंकि एक कंट्रास्ट बनाना था। 

तुम्हें पता ही नहीं चला कब ये ज़हरीले लोग तुम्हारी ही जड़ों को खा गए और तुम्हें खोखला कर दिया। ये जॉम्बीज हैं जो वहीं नहीं रुके, लगातार अपनी संख्या बढ़ाते रहे, अपनी ज़हालत को हर दिशा में फैलाते रहे। अब हर गांव के नुक्कड़ पर ये ज़हरीले इकट्ठा होते हैं और फरमान सुनाते हैं। अब मुम्बई का मनोज कुमार तो क्या, गांव का मनोज पाटीदार भी स्वतंत्र नहीं रहा।

अब ये इतने ताक़तवर हैं कि तुम चाह कर भी कुछ नहीं कर सकते। शरीर की नस-नस को इन्होंने ज़हरीला कर दिया है। कुछ हिस्से बचे हैं, वो या तो मर जायेंगे, काट दिए जाएंगे, या खुद ज़हरीले हो जाएंगे।

#KalyugAurRamayan #ManojKumar

टिप्पणियाँ

  1. बेनामी11:08 am

    उपकार से पहले मनोज ने शहीद में काम किया था,वही से उन्हें समझ आ गया था कि देशभक्ति के नाम पर फ़िल्म को बेचना आसान है. 'शोर' और 'रोटी कपड़ा और मकान' उनकी बढ़िया फिल्मे है..

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    1. शोर अच्छी थी, रोटी कपड़ा और मकान तब नहीं देखी थी, अब देखने की कोशिश की तो नहीं देख पाया। वैसे मनोज कुमार मुझसे कभी नहीं झेले गए।

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  2. बेनामी11:22 am

    मनोज कुमार ने हमेशा देश भक्ति के नाम पर लिजलिजी फिल्मे ही बनाई हे हां उनकी उपकार और कलर्क फिल्म जरूर देखने लायक
    मनोज कुमार को अगर हिंदी सिनेमा में योगदान के लिए सम्मानित किया जाना चाहिए तो सिर्फ उनकी फिल्मों के कर्णप्रिय संगीत के लिए सम्मानित किया जा सकता हे ,उसमे भी सबसे बड़ा हाथ लक्ष्मीकांत प्यारे लाल और संतोष आनंद का हे

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    1. हाँ संगीत की समझ उनकी बेशक़ अच्छी थी पर 80 के दशक मे वो भी जवाब दे गई थी।

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