अस्तित्व का सवाल, यानि हम कहाँ से आए, क्यों आए, कैसे विकसित हुए?
हमने बचपन से यही सुना था कि ये सब सवाल पूरे ब्रह्मांड में सिर्फ़ हमी लोगों को आते थे, बाकी सब तो बस यूं ही जीते और मर जाते थे। हम ही थे जो गूढ रहस्यों को हल करते थे।
मैं बहुत seriously
“सारे जहां से अच्छा”,
“मेरे देश की धरती सोना उगले”, “होंठों पे सच्चाई रहती है” वगैरह पर भरोसा करता था और अमल भी करता था। यहाँ तक कि बचपन में जब अगले जनम के बारे में सोचता था तो डर लगता था कि अगला जन्म किसी और देश में न हो जाए। फिर जब समझ विकसित हुईं (जो कि इस देश में बहुत rare
घटना है), तो जाना कि सब कुछ बकैती के अलावा और कुछ नहीं है। अब तो मुझे पुरानी कहानियों पर सीरीअस डाउट हैं। हम अगर गूढ रहस्यों को हल करते भी थे तो उन हलों को रहस्यों से भी ज़्यादा गूढ रखते थे कि कोई जान न पाए। तभी न इस शस्य श्यामला धरती पर कालांतर में सिर्फ़ मूर्ख पैदा होने लगे, और आज तो उनका स्वर्ण काल चल रहा है।
लब्बोलुआब ये है कि अगर किसी कौम का टेम्पेरामेंट वैज्ञानिक है तो ये उसकी हर चीज़ से झलकता है और अगर पोंगा पंथी है तो वो भी। अस्तित्व का वो सवाल ज़ाहिरा तौर पर पश्चिम को ज़्यादा परेशान किए हुए है और उसने निठल्ले बैठने की बजाय विज्ञान की मदद ली उनके उत्तर जानने के लिए। यही कारण है कि सारे आविष्कार वहीं हुए हैं और हम आदातानुसार आज भी गाल बजा रहे हैं। अपनी खीझ मिटाने को शोहदे भी कहते मिल जाएँगे कि वो लोग यहाँ से चुरा कर ले गए हैं लेकिन उनसे सिर्फ वेद का नाम पूछ लो तो नहीं बता पाएंगे। यही चरित्र उनकी फिल्मों में भी झलकता है। हर कुछ समय में वे ऐसी कोई कहानी ले कर आते हैं जो मानव के मूल स्वभाव की पड़ताल करती है। अलग अलग रास्तों से ये खोजने का प्रयास करती है कि इंसान ने समूह में रहना कैसे सीखा होगा, प्रकृति की क्रूरता से बिना किसी सुविधा के कैसे लड़ा होगा? अच्छाई और बुराई तो सनातन है, और इनका टकराव भी, तो वो टकराव कैसा रहा होगा? हाल ही की कुछ सिरीज़ जैसे फ़्रोम, द सोसाइटी, लॉस्ट इसी तरह की परिस्थितियों की कहानी है। “मेज़ रनर” भी इंसान के अवचेतन की इन्हीं परतों को उघाड़ने की कोशिश है।
आप लोगों ने बहुत पहले ही देख ली होगी, मैंने अब देखी। हम कैसे मुक़ाबला करेंगे भाई वेस्ट का? यहाँ की ताज़ा घटना ये है कि फिल्म मेकिंग के पैमाने पर बिलकुल घटिया और अपने संदेश में बेहद भड़काऊ फिल्म “कश्मीर फाइल्स” को राष्ट्रीय एकता की फिल्म का पुरस्कार मिलता है और यहाँ के वरिष्ठ कहलाने वाले समीक्षक सड़क छाप भाषा में उसकी खुशी भी मनाते हैं। माफ कीजिये आप कर लीजिये गर्व, मुझे तो शर्मिंदगी होती है।
मेज़ रनर शुरू होती है लिफ्ट के दृश्य से। लिफ्ट ऊपर जा रही है जिसमें थॉमस है। ये लिफ्ट एक ऐसी जगह जाती है जो चारों तरफ से ऊंची दीवारों से घिरी है। वहाँ पहले से कुछ लड़के मौजूद हैं। वहाँ पहुँचने वाले किसी लड़के को अपने जीवन के बारे में कुछ भी याद नहीं है। ये लोग तीन साल से वहाँ हैं। हर महीने एक नया लड़का और ज़रूरत का कुछ समान उस लिफ्ट से आता है। आसपास की दीवारें, दीवारें नहीं भूल भुलैया है। जिसमें रास्ता ढूँढने कुछ लोग रोज़ अंदर जाते हैं, जिन्हें रनर कहते हैं। इन लोगों ने अपने जीने के लिए एक व्यवस्था और कुछ नियम बना रखे हैं। ये इनकी दुनिया है जिसे कुछ लोगों ने नियति मान लिया है और नियमों के अनुसार जीने लगे हैं, कभी बाहर निकलने की उम्मीद में, लेकिन जब थॉमस आता है तो उसे ये सवाल सबसे ज़्यादा परेशान करते हैं। वो इनके जवाब ढूँढना चाहता है जिसके लिए नियम भी तोड़ता है। इन नियमों को तोड़ने से सभी के ऊपर मुसीबतें भी आती हैं जिसका जिम्मेदार थॉमस को ठहराया जाता है। उसकी जिज्ञासा, उसकी प्रतिभा को बाकियों के लिए खतरा माना जाता है।
अपने आसपास का समाज देखिये, बिलकुल यही तो होता है। हर सच्ची प्रतिभा से नियमित ज़िंदगी जी रहे लोगों को तकलीफ होती है। वे चाहते हैं हर बच्चा एक जैसा हो, अच्छा पढे,अच्छी नौकरी करे, शादी करे, बच्चे पैदा करे और उन बच्चों को फिर अपने जैसा बनाए। कुछ लोग इस खाँचे में घुटन महसूस करते हैं और इसे तोड़ना चाहते हैं। उन्हें सजाएँ मिलती हैं। कुछ सज़ाओं के बाद भी जिद्दी बने रहते हैं और कुछ टूट जाते हैं। कुछ तो ये यात्रा ही समाप्त कर लेते हैं।
फ़िल्म की गति अच्छी है। थोड़ा सा मेलोड्रामा भी है पर अपनी खामियों के बावजूद कंटैंट के लिए ईमानदार है।
बहरहाल, जब हम अब भी 500 करोड़ खर्च कर पठान, गदर बना रहे हैं, उधर गहरी बातें हो रही हैं, वो भी मुख्य धारा के सिनेमा में। मैं ये नहीं कहता कि बोरिंग फिल्में बनाई जाएँ लेकिन
कब हम वो सिनेमा बनाएँगे जो मनोरंजक तो होगा पर उसके मूल में एक विचार होगा, फिलहाल व्यावसायिक सिनेमा के नाम पर कूड़ा बनाया जा रहा है और realistic के नाम पर वो सिनेमा जो अधिकांश लोगों को समझ नहीं आता। 80 के दशक की फिल्मों में भी कम से कम एक आदर्श तो होता ही था।
तकनीक के मामले में तो संभव नहीं पर कंटैंट ज़रूर अच्छा हो सकता है, पर नहीं होगा।
#MazeRunner
#HotStar #Disney
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