फ्रीडम एट मिडनाइट - एक बेहद ज़रूरी कहानी


 

धर्मा और यशराज की फ़िल्में करने वाले निर्देशक मुझे निर्देशक कम और अमीर बाप के बिगड़ैल बच्चे ज़्यादा लगते हैं जिन्हें बाप का खूब पैसा मिला है उड़ाने को, उन्होने खूब उड़ाया भी। “निखिल आडवाणी” को भी मैं उन्हीं बच्चों में से एक की तरह जानता था जिसने “कल हो न हो” से फिल्म निर्देशन की शुरुआत की थी, जिस फ़िल्म ने मुझे शाहरुख के सबसे बड़े फ़ैन से सबसे बड़ा आलोचक बना दिया। इसके बाद की भी उनकी फिल्मोग्राफी पर नज़र डालें तो कोई विशेष बात नज़र नहीं आती – सलाम-ए-इश्क़, चाँदनी चौक टू चाइना”, “पटियाला हाउस”, “दिल्ली सफारी”। 

और फ़िर आती है “डी-डे”। मुझे घोर आश्चर्य हुआ था कि निखिल आडवाणी ऐसी फ़िल्म भी बना सकते हैं। मगर वे फ़िर अपनी धर्मा वाली पहचान पर लौट जाते हैं और “हीरो” और “कट्टी बट्टी” जैसी फ़िल्में बनाने लगते हैं। अच्छे सिनेमा से ऐसा ही ऑन एंड ऑफ रिश्ता रहा है निखिल आडवाणी का। मैंने भी उनके बारे में और ज़्यादा जानने की कोशिश नहीं की जब तक कि मैंने “फ्रीडम एट मिडनाइट” न देख ली। मुझे उनके नाम की वजह से ही सिरीज़ से ज़्यादा उम्मीदें नहीं थीं, पर अब जब देख ली है तो मैं सर्च किए बिना नहीं रह पाया कि ये जो उनके अंदर छुपा हुआ कीड़ा है ये कहाँ से आया है? और देखकर सुखद आश्चर्य हुआ कि धर्मा के लाड़-प्यार में बिगड़ने से पहले वे सुधीर मिश्रा और कुन्दन शाह जैसे निर्देशकों के साथ काम कर चुके थे, सुधीर मिश्रा के साथ “इस रात की सुबह नहीं” के लेखक का क्रेडिट शेयर कर चुके थे। इतना अच्छा काम करने के लिए कहीं से तो प्रेरणा आनी चाहिए। 

अब आते हैं सिरीज़ पर। निखिल आडवाणी के अलावा दूसरा जो कारण था कि मुझे सिरीज़ से कोई उम्मीद नहीं थी, वो था आज का माहौल और इस माहौल के आगे घुटने टेकते फ़िल्म उद्योग के लोग। वैसे तो फिल्म “डोमिनिक लेपिएरे” और “लेरी कॉलिन्स” की इसी नाम की किताब पर आधारित है पर मुझे लगा था उसे तोड़-मरोड़कर एक प्रोपगंडा शो बनाया होगा। वैसे भी हमारे देश में कितने लोग किताबें पढ़ते हैं? आधी आबादी तो आजकल व्हात्सप्प से इतिहास पढ़कर लड़ रही है। किताब के किसी एक पक्ष में झुके होने की संभावना शून्य है क्योंकि इसके लेखकद्वय का भारत, या पाकिस्तान, या नेहरू, या जिन्ना से कोई लेना-देना नहीं है। किताब उस वक़्त की घटनाओं को जस का तस रखती है। मैंने डरते-डरते ही देखना शुरू किया, क्योंकि अब चारों तरफ़ झूठ और फ़र्जीवाड़े का माहौल देखकर घिन आने लगी है। एक और पूर्वाग्रह था इसकी कास्टिंग को लेकर। मुझे नेहरू और गांधी के किरदारों के लिए चुने गए अभिनेता नहीं जंच रहे थे। चिराग वोरा को अब तक कॉमिक characters में देखा था, सीधे गांधी जैसे किरदार में देखना एक झटके के जैसा था और नेहरू का रोल कौन कर रहा है ये पता नहीं चल रहा था पर ऐसा लग रहा था किसी प्लास्टिक के आदमी को बना दिया है। मेरी ये दोनों धारणाएँ सच निकली, उसकी आगे बात करेंगे। 

फ़िलहाल कहना ये है कि सिरीज़ ने पहले ही एपिसोड के बाद सुनिश्चित कर लिया कि अब मैं इसे पूरा देखूंगा ही। कास्टिंग के झोल के बावजूद इतनी बढ़िया बनाई है कि मैं आश्चर्यचकित रह गया। मेरे पूर्वाग्रह धराशायी हुए तो मुझे बहुत सुकून मिला। निखिल आडवाणी अपने इस एक और नेक काम के लिए अमर हो गए हैं। सिरीज़ की राइटिंग और प्रॉडक्शन वैल्यू बेहतरीन है। एक नॉन-फ़िक्शन किताब से इस तरह की कहानी की रचना बहुत समझदारी और शोध की दरकार रखती है जो कि किया भी गया है। ये एक बहुत ज़रूरी सिरीज़ है, ख़ास तौर पर आज के वक़्त में जब चारों ओर झूठ का एक ऐसा जाल बुन दिया गया है कि आम आदमी दिग्भ्रमित हो गया है। उसे कुछ भी पता नहीं चल रहा, और इंसानी फितरत के अनुसार जिस धारणा में उसे मसाला मिलता है उसी तरफ़ वो चला जाता है। आप आम आदमी से उम्मीद नहीं कर सकते कि वो 650 रु खर्च करके किताब पढ़ेगा, वो भी अंग्रेज़ी में। तो ये निखिल आडवाणी का एक एहसान है कि उन्होंने कहानी की शक्ल में इसे पेश किया जो हर आदमी के देखने लिए उपलब्ध है। पर एक बड़ी कमी रह गई, अगर इसे आम आदमी तक पहुंचाना था तो पूरी तरह हिन्दी में होना था। हम-आप तो पढ़ते हैं, जानते हैं कि सच क्या है लेकिन जिन लोगों को दिन-रात झूठ फैलाकर गुमराह किया जा रहा है, उन तक इसका पहुँचना बहुत ज़रूरी था। फ़िलहाल, बहुत से महत्वपूर्ण संवाद वे लोग नहीं समझ पाएंगे। 

सिरीज़ अंग्रेज़ी हुकूमत के अंतिम दिनों को दर्शाती है जब अंग्रेज़ वापस जाने वाले हैं। पर उनके जाने के बाद यहाँ का शासन कैसा होगा, कौन चलाएगा, ये सब उन्हें तय करके जाना है। आज हम बहुत आसानी से कह देते हैं कि ऐसा कर लेते, या वैसा कर लेते, लेकिन उस वक़्त जो परिस्थिति थी, उसे वही समझ सकते थे जो उस वक़्त वहाँ थे। कोई भी बड़ा निर्णय जब लेना होता है तो हर एक पहलू पर गौर करना ज़रूरी होता है। एक आदमी जब अपनी जायदाद अपने बच्चों को देता है तो उसे हर बात का खयाल रखना पड़ता है, उसे देखना होता है कि उसकी कौन सी औलाद कैसी है, कौन कितना योग्य है, कितना अयोग्य है। फिर ये तो एक ऐसा निर्णय था जो पूरी दुनिया को प्रभावित करने वाला था। उस वक़्त देश बहुत नाज़ुक दौर से गुज़र रहा था, ऐसे में जिन्ना की महत्वाकांक्षा आग में घी डालने का काम कर रही थी। सिरीज़ को देखकर ये साफ नज़र आता है कि एक आदमी की महत्वाकांक्षा और ego ने लाखों लोगों की जान ले ली। अगर जिन्ना को गांधी से वो जलन नहीं होती तो शायद इस देश का भविष्य कुछ और होता। विभाजन पर सबसे पहले सरदार पटेल सहमत हुए थे और सबसे आख़िर में नेहरू, जब जिन्ना काफी कत्ल-ए-आम करवा चुके। कितनी दुविधाएँ थीं, कितने मुद्दे थे, कितने दबाव थे जिनके बीच ये सब हुआ, सिरीज़ उन्हें पूरी ईमानदारी से और असरदार तरीके से सामने रखती है। आप खुद उलझन का शिकार महसूस करते हैं अपने आप को, आप खुद दुखी होते हैं हर घटना पर, लेकिन खुद आपको ही समझ आता है कि और क्या रास्ता है? अगर जिन्ना की इस माँग को ठुकरा कर काँग्रेस एक बार फिर अपने आंदोलन पर आ जाती तो क्या कुछ और होता? अंग्रेजों को जाना ही था, वे शायद अपना निर्णय थोप कर चले जाते।

आजकल के माहौल को देखते हुए एक चीज़ को तो गायब किया गया है। जिस दौर की ये सिरीज़ बात कर रही है, उस दौर में जिन्ना की मुस्लिम लीग के साथ हिन्दू महासभा गठबंधन सरकार चला रही थी और जो भी घटनाएँ हो रही थीं, दोनों की आपसी सहमति से हो रही थीं। दंगों के लिए दोनों अपने-अपने लोगों को लगाए हुए थे। लेकिन फिलहाल इसे दिखाना मुसीबत मोल लेना है, इसलिए इस ट्रैक को अवॉइड किया गया है। हाँ, आखिरी दृश्य में ज़रूर हिंट है, जो अगले सीज़न की भी हिंट देता है। अगले सीज़न में कितना दिखाया जाता है ये उत्सुकता का विषय है। 

ख़ैर, आप खुद देखिये, और ये सिरीज़ हर एक भारतीय को देखनी ही चाहिए। सारी धुंध छट जाएगी अगर आप ईमानदार हैं इतिहास को लेकर। 

परफॉर्मेंस की बात करें तो पूरे सात एपिसोड देख लेने के बाद भी मैं सिद्धान्त गुप्ता को डाइजैस्ट नहीं कर पाया। सबसे खराब, सबसे भद्दी कास्टिंग लगी मुझे। 25 साल के लड़के को विग लगाकर बूढ़ा बनाया है, ये साफ़ नज़र आता है, उस पर मेकअप इतना खराब किया है कि मुझे चिढ़ आने लगी। चेहरे को जैसे रंग से पोत दिया है। अरे भाई जब सेट्स पर इतना खर्चा किया था तो मेकअप पर भी कर लेते, आजकल तो झुर्रियां भी बन जाती हैं। उस पर भी सिद्धान्त ने इतनी खराब एक्टिंग की है कि क्या ही कहें। हर सीन में एक जैसे एक्स्प्रेश्न लेकर बैठे हैं। साफ़ नज़र आता है कि दुखी दिखने की कोशिश में पलकें भारी कर ली हैं बस। पूरी सिरीज़ में एक ही तरह का चेहरा लेकर घूम रहे हैं। उस पर भी शेरवानी ऐसी पहनाई है कि वो झूलती रहती है उनके शरीर पर, कुपोषण के शिकार नेहरू नज़र आ रहे थे। नेहरू का व्यक्तित्व ही बेहद प्रभावशाली था, एक बच्चे को फ़ैन्सि ड्रेस में नेहरू बना दिया। इतना महत्वपूर्ण किरदार और इतनी बड़ी सिरीज़ में, ऐसी क्या मजबूरी थी भाई? वैसे तो रोशन सेठ से बेहतर नेहरू का किरदार और कोई नहीं कर पाया है पर राजित कपूर ने भी अच्छा किया था, वो तो उपलब्ध भी हैं। सिर्फ कुछ दृश्यों में जवान दिखाने के लिए पूरे किरदार को बर्बाद कर दिया? जवान तो जिन्ना को भी दिखाया था, वैसे ही नेहरू को दिखा देते। इसी तरह जिन्ना की बहन के किरदार में इरा दुबे को क्यों लिया भाई? उसके सिर्फ़ बाल सफ़ेद हैं बाकी पूरी यंग दिख रही है। उसे जाते हुए जब पीछे से दिखाया जाता है तो वो catwalk करती हुई लगती है। लड़की ने न तो बॉडी लैड्ग्वेज पर ध्यान दिया, न ही लहजे पर। बस बाल सफ़ेद करके बुड्ढी हो गई। उसे कपड़े भी ऐसे पहनाए हैं कि उसका ज़ीरो फ़िगर भी दिख रहा है। कम से कम कपड़े ही ढीले-ढाले पहना देते। सरदार पटेल के किरदार में राजेंद्र चावला पहले सीन में अटपटे लगने के बाद भी अपने अभिनय से convince कर लेते हैं। सबसे बेहतरीन कास्टिंग है जिन्ना की, और सबसे जबर्दस्त परफॉर्मेंस भी। आरिफ़ जकारिया शो स्टीलर हैं। एक-एक भाव-भंगिमा, एक-एक संवाद इस तरह से deliver किया है कि मज़ा आ गया। काश कि नेहरू के किरदार में कोई टक्कर का अभिनेता होता। मैं तो कहता हूँ अगले सीज़न में बदल दो, हम कुछ नहीं कहेंगे। मुझसे नहीं झेला जा रहा वो। चिराग वोरा भी ठीक ही हैं, बहुत खराब नहीं तो बहुत बढ़िया भी नहीं लग पाये। आरिफ़ जकारिया के बाद अगर किसी ने कमाल किया है तो माउण्टबेटन के किरदार में Luke McGibney ने किया है और तीसरे कमाल के पर्फ़ोर्मर हैं के सी शंकर, वी पी मेनन के किरदार में। ये तीन नाम outstanding हैं। राजेश कुमार को हमेशा कॉमेडी करते देखा है इसलिए उन्हें भी पचाने में थोड़ी दिक्कत होती है। दिमाग में साराभाई का रोशेज बैठा हुआ है।

इन कुछ कमियों को छोड़ दिया जाये तो ये एक मस्ट वॉच सिरीज़ है। सोनीलिव की जितनी तारीफ की जाये कम है। उसने इस तरह के सार्थक कंटैंट के लिए अपनी एक अलग पहचान बना ली है। 

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