अफ़सोस - अफ़सोस ही अफ़सोस

 

अफ़सोस!

अफ़सोस, कि ये कहानी ऐसे लेखक और निर्देशक के हाथ पड़ी, अफ़सोस, कि इसका संगीत बनाने के लिए उसे चुना गया जिसे चुना गया। 

अफ़सोस कि एक अच्छा कान्सैप्ट बेमौत मर गया और बहुत अफ़सोस की बात की ये सब अच्छे अभिनेताओं को लेने के बाद हुआ। 

अफ़सोस, amazon मिनी की आठ एपिसोड की सिरीज़ है। सिर्फ़ आइडिया के दम पर चौथे एपिसोड तक लगन भी लगी रहती है देखने की लेकिन उसके बाद जो रायता फैलाया है कि पूछिये मत।

कहानी है नकुल (गुलशन देवैया) की जो अपने जीवन से बिलकुल निराश है और अब उसे ख़त्म करना चाहता है। पर जब भी वो मरने की कोशिश करता है उसकी जगह कोई और मर जाता है। वो इतना बदनसीब है कि मरने की इच्छा हो तो मरना भी नसीब नहीं होता। ऐसे में उसे एक ऐसे स्टार्ट अप का पता चलता है जो उन लोगों को मरने में मदद करता है जो मरना चाहते हैं पर डर के मारे मर नहीं पा रहे हैं। यूनिक आइडिया है ना? मुझे भी बढ़िया लगा और देखने की उत्सुकता पैदा हुई। जिस समय नकुल मरने के लिए कोशिश कर रहा है, उसी दौरान दूर हिमालय की तराई के एक मठ में बारह साधुओं की हत्या हो जाती है। कहा जाता है कि इस मठ में अमृत रखा हुआ था। अब इन दो घटनाओं के तार एक दूसरे से कैसे जुडते हैं, यही कहानी है। premise बेहतरीन है, इस पर एक शानदार सिरीज़ रची जा सकती थी पर अफ़सोस...

सिरीज़ की राइटिंग इतनी ख़राब है कि इसे सबसे ख़राब राइटिंग के competition में अवार्ड मिल सकता है। जिस कहानी में गति सबसे महत्वपूर्ण तत्व था, वो इतनी थकेली स्पीड से आगे बढ़ती है कि एक समय पर बाल नोचने का मन करता है। ऐसा लगता है जैसे किसी का भी मन नहीं लग रहा था काम में, न लेखक का, न निर्देशक का, न actors का और न बैक्ग्राउण्ड म्यूजिक वाले का। कहानी को आगे बढ़ाने के लिए ऐसी-ऐसी घटनाएँ डाल दी हैं जो अविश्वसनीय और हास्यास्पद लगती हैं। इस ख़राब सिरीज़ का सबसे ख़राब हिस्सा इसके संवाद हैं। ऐसा लगता है किसी निबंध लेखक से संवाद लिखवा लिए हैं। सब लोग डाइलॉग नहीं निबंध बोलते हैं। अंग्रेज़ भी शुद्ध हिन्दी में, जैसे समाचार बोल रहा है। और जो समाचार बोल रही है वो जैसे बात कर रही है। पांचवें एपिसोड के डाइलॉग लिखने से पहले लेखकगण कोई अँग्रेजी फ़िल्म देखकर उठे होंगे तो वे भूल ही गए कि हिन्दी सिरीज़ लिख रहे हैं और सारे डाइलॉग अँग्रेजी में आने लगते हैं। आधे घंटे बाद उन्हें होश आता है तो फिर हिन्दी पर शिफ़्ट हो जाते हैं। इन लेखकों को बुकर प्राइज़ मिलना चाहिए। कहानी को डार्क कॉमेडी बनाने की मजबूरी थी तो वो भी डालनी ही थी, कहीं-कहीं तो बढ़िया काम भी किया है लेकिन ज़्यादातर ये कोशिश नाकाम रही। कॉमेडी को जो टाइमिंग चाहिए वो हर बार मिस हो जाती है जिससे वो अजीब सा ही कुछ लगने लगती है। 

मैंने गुलशन देवैया के कारण देखना शुरू की थी, वे आज के दौर के सबसे अच्छे अभिनेताओं में एक हैं। उनके साथ अंजली पाटील को लिया है जो फिर एक अच्छा selection था। सबसे बड़ा surprise था नसीरुद्दीन शाह की बेटी “हीबा शाह” को एक बड़े और महत्वपूर्ण किरदार में देखना। हालाँकि इस किरदार का कोई औचित्य समझ नहीं आता। टॉम आल्टर के बेटे जेमी आल्टर का भी एक महत्वपूर्ण किरदार है, हालाँकि उनके अभिनय में अपने पिता की कोई छाप नहीं है पर पिता ही की तरह अंग्रेज़ के किरदार निभाने को अभिशप्त हैं। हीबा शाह लंबे अरसे से अभिनय में सक्रिय हैं लेकिन मैंने उनका ये पहला ही काम देखा है। सबसे पहले वे धारावाहिक “तारा” में नज़र आई थीं। 

और सबसे बड़ी बात, इस सिरीज़ की निर्देशक हैं “अनुभूति कश्यप” जो अनुराग कश्यप की बहन हैं। परिवार में किसी एक के सफ़ल होने पर दूसरों की राह थोड़ी आसान ज़रूर हो जाती है पर ये ज़रूरी नहीं कि बाकी लोग भी उतने ही प्रतिभाशाली हों। सिरीज़ का निर्देशन बहुत ही ख़राब है। अनुभूति ने इसके बाद फ़िल्म “डॉक्टर जी” बनाई थी, मैंने वो फ़िल्म थोड़ी सी देखकर बंद कर दी थी।

संवाद के अलावा जो चीज़ सबसे ख़राब है वो है बैक्ग्राउण्ड म्यूजिक। इतना थका हुआ संगीत है कि आपका मन करने लगता है कि मैं खुद ही कुछ बजा दूँ। आप एक थ्रिलर बना रहे हैं और संगीत इतना थकेला बनाया है कि रही-सही स्पीड भी ख़त्म हो जाती है। इतना आलसी musician पहली बार देखा, या सुना। 

कुल मिलाकर इन सब लोगों ने एक अच्छी कहानी की ऐसी-तैसी कर दी। 

अफसोस!

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