चालबाज़ - श्रीदेवी का जलवा

 


हेल्दी खाना खाते रहने के बीच कभी-कभी चाट-चूट भी खाना चाहिए लेकिन चाट भी वही अच्छी जिसमें सभी मसाले सही अनुपात में डले हों,

मैंने भी कल चाट खाई और मज़ा आ गया। श्रीदेवी का पूरा जलवा देखना हो तो “चालबाज़” में ही देखा जा सकता है। कहने को तो दो हीरो हैं फ़िल्म में, वो भी सनी देओल और रजनीकान्त जैसे, लेकिन फिल्म सिर्फ़ और सिर्फ़ श्रीदेवी की है। हालांकि बचपन में ही कई बार देखी है और इस कहानी पर चार फ़िल्में अब तक बन चुकी हैं। पहली “राम और श्याम (1967)” थी, फिर सलीम-जावेद को ख़्याल आया कि क्या हो अगर राम और श्याम को लड़की को केंद्र में रखकर लिखा जाए और तब बनी “सीता और गीता (1972)”। फिर इसी कहानी पर 1989 में बनाई गई “चालबाज़” और इसके एक  ही साल बाद राकेश रोशन ने फिर से राम और श्याम की ही कहानी को बदले ज़माने के अनुरूप एक बार फिर रिलीज किया “किशन कन्हैया” के नाम से। और मजे की बात ये है कि चारों ही फ़िल्में हिट हुईं। मुझे चारों ही अच्छी लगती हैं।

कई सालों बाद एक बार फिर ये फिल्म देखकर मुझे समझ आया कि उस वक़्त मैं श्रीदेवी का फैन क्यों था, मैं ही क्यों, सबके सब फैन थे। इस फिल्म में दो अलग-अलग, बिल्कुल विपरीत किरदार निभाने का मौका मिला उन्हें और उन्होंने इतनी अलग तरह से उन्हें निभाया कि एक ही अभिनेत्री की बजाय वो दो अलग-अलग लड़कियां ही लग रही थीं। इतनी बारीकी कि जब अंत में मंजू, अंजू होने की ऐक्टिंग करती है तो पूरी तरह अंजू की तरह नहीं होती, उसमें मंजू का character फिर भी झलकता है। मंजू के किरदार में एक-एक हरकत बार-बार देखने लायक है। न भूतो ब भविष्यति, ये जादू सिर्फ और सिर्फ श्रीदेवी ही कर सकती थी। सीता और गीता की हेमा मालिनी को उन्होंने बहुत पीछे छोड़ दिया। चालबाज़ देखने के बाद ही मुझे “सीता और गीता” देखने का मन हुआ। मैंने देखी लेकिन गहरी निराशा हुई। श्रीदेवी को देखने के बाद हेमा मालिनी irritating लग रही थी। कैरक्टर में कोई depth नहीं, दोनों किरदार एक जैसे ही निभाए हैं उन्होने। उस फिल्म में धर्मेंद्र और संजीव कुमार भारी पड़े हैं लेकिन यहाँ श्रीदेवी ने किसी को उभरने ही नहीं दिया। श्रीदेवी ही इस फिल्म की रिपीट वैल्यू है।

उस वक़्त के लिहाज से ये एक स्लीक, मॉडर्न फ़िल्म थी। ये बात इसके संगीत में भी झलकती है। लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल उसी वक़्त अपना स्टाइल बदल रहे थे। उन्होंने अपने संगीत संयोजन में वेस्टर्न इन्स्ट्रूमेंट्स का उपयोग prominently करना शुरू किया था। वेस्टर्न इन्स्ट्रूमेंट्स का भी उनका अपना अलग तरीका था जो सिर्फ उन्हीं का था। इस फिल्म के संगीत में उन्होंने खुलकर ये प्रयोग किया था। लक्ष्मी-प्यारे अब भी सबसे ज्यादा काम करने वाले संगीतकार थे, और हों भी क्यों नहीं? लगातार उनके गीत हिट हो रहे थे। इसके पहले ही तेजाब, प्यार झुकता नहीं, राम-लखन वगैरह के गीतों ने झंडे गाड़े थे। चालबाज़ का संगीत भी उस साल के सबसे हिट संगीत में शुमार था। बल्कि आज भी मुझे इसके गीत अच्छे लगते हैं और फिल्म में इन्हें देखने का अपना ही मज़ा है। और इनमें “गड़बड़ हो गई” भी शामिल है जिसमें श्रीदेवी की अदाएं लाजवाब हैं।

राम और श्याम में खलनायक प्राण थे जो उस वक़्त की अपनी खूंखार छवि के अनुरूप ही थे फिल्म में लेकिन यहाँ उस किरदार को थोड़ा स बेवकूफ बना दिया गया है और इसीलिए अनुपम खेर से करवाया गया है। चूँकि फिल्म का ज्यादा झुकाव कॉमेडी की तरफ है इसीलिए हर किरदार को वही टच दिया गया है लेकिन इस चक्कर में किरदार छूटे हैं। शक्ति कपूर कभी खतरनाक विलन दिखाई देते हैं तो कभी निरा मूर्ख “बलमा”, इसी तरह अनुपम खेर भी अचानक ही bafoon की तरह बिहैव करने लगते हैं। सईद जाफरी हर फिल्म में एक ही पात्र करते थे, ऐसा लगता है वही आदमी चालबाज़ से दिल के अंदर पहुँच गया और अलग-अलग फिल्मों में छलांग लगाता जाता है। इफतेखार के बाद टाइप कास्टिंग का सबसे बड़ा शिकार वही हुए हैं ऐसा लगता है। हीरोइन का अमीर बाप। उनके किरदार के मीठेपन से कभी-कभी कोफ़्त होने लगती है। रोहिणी हत्तंगड़ी के लिए भी ये बिल्कुल अलग किरदार था। अच्छा अभिनेता किसी भी तरह के किरदार को आसानी से निभा जाता है। अन्नू कपूर भी उसी श्रेणी में आते हैं। आफ़ताब शिवदासानी इसमें बाल कलाकार हैं। सनी देओल कॉमेडी में अजीब लगते हैं। रजनीकान्त ज़रूर बिल्कुल स्मूद हैं। उस वक़्त रजनीकान्त का वो स्टेटस नहीं बना था जो अब है। पहले इसके एक किरदार के लिए अनिल कपूर को अप्रोच किया गया था, लेकिन उन्होंने इसलिए इंकार कर दिया कि डबल रोल में श्रीदेवी उन पर भारी पड़ जाएंगी। सनी देओल के ये फिल्म करने का कारण ये था कि यही रोल उनके पिता धर्मेंद्र ने "सीता और गीता" में किया था, और वो चाहते थे कि इसे इस तरह याद रखा जाये। 

फ़िल्म के निर्देशक पंकज पाराशर की फ़िल्म "जलवा" की प्रोसेसिंग प्रसाद स्टुडियो में चल रही थी जिसमें नसीरुद्दीन शाह और पंकज कपूर मुख्य भूमिकाओं में थे। उसी से प्रभावित होकर उन्हें निर्माता ए पूर्णचन्द्र राव ने संपर्क किया। पंकज श्रीदेवी के साथ फ़िल्म करना चाहते थे, और सीता और गीता का रिमेक बनाना चाहते थे। राव ने तुरंत उन्हें 11000 रु signing amount दे दिया। मुझे लगता है ये पंकज पाराशर की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म थी। इसके पहले उनकी उपलब्धि दूरदर्शन धारावाहिक करमचंद था पर चालबाज़ के बाद वे कुछ भी उल्लेखनीय नहीं कर पाये। "राजकुमार", "हिमालय पुत्र", "तुमको न भूल पाएंगे", "बनारस" जैसी फ़िल्मों को किसी ने याद नहीं रखा। 

चालबाज़ ने उस वक़्त 15 करोड़ की कमाई की थी जो आज के हिसाब से 160 करोड़ होते हैं। 

फ़िल्म में अच्छे अभिनेताओं की भरमार थी पर इतने सब कलाकारों के बीच भी, एक बार फिर कहूँगा, श्रीदेवी की एक-एक अदा क़ातिल है। इस वक़्त तक माधुरी दीक्षित स्टार बन चुकी थीं। उनकी राम लखन, तेजाब वगैरह सुपर हिट हो चुकी थी लेकिन नंबर वन अब भी श्रीदेवी ही थीं। और चूँकि मैं उस ज़माने में श्रीदेवी का फैन था, सो माधुरी से श्रीदेवी के बिहाफ़ पर पर्सनल खुन्नस रखता था। वो श्रीदेवी को चुनौती कैसे दे सकती है? हालांकि इसके बाद का समय श्रीदेवी के ढलान और माधुरी के शीर्ष पर पहुँचने का ही है। और आज मुझे माधुरी श्रीदेवी की ही तरह पसंद हैं।  

अफ़सोस की बात ये है कि जिस दौर में श्रीदेवी चरम पर थी, वो दौर हिन्दी फिल्मों का सबसे बुरा दौर था। सबसे घटिया फ़िल्में उसी दौर में बनी हैं और उनमें भी जितेंद्र, जयाप्रदा और श्रीदेवी को लेकर दक्षिण के निर्माताओं ने हद दर्जे का कचरा रचा था। यही कारण है कि उनकी प्रतिभा का सही उपयोग नहीं हो पाया। उनकी जो क्षमता थी, वैसे किरदार बने ही नहीं उस दौर में, वरना बहुत से यादगार character होते आज। साधारण कहानियों में ही वे असाधारण बनी रहीं।

चेहरा हो, भाव सम्प्रेषण हो, डांस हो।। जो भी हो उसमें वे कमाल ही थीं। इंडियन डांस हो, चाहे वेस्टर्न।

चालबाज़ कभी भी देखी जा सकती है, और मेरा खयाल है सभी ने देखी ही होगी।

#chalbaaz #Sridevi #SunnyDeol #Rajnikant 

टिप्पणियाँ

  1. बेनामी7:57 pm

    राम और श्याम, सीता और गीता, किशन कन्हैया इनमें से मैंने कोई भी नहीं देखा है। सिर्फ चालबाज देखा हूं।

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    1. तो सिलैबस पूरा कीजिये, तीनों देख डालिए।

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