सिनेमा का मसाला



दो साल पहले मैंने जब “पुष्पा” को खारिज किया था तो कई भावनाएँ आहत हो गई थीं। कुतर्क ये दिया गया था कि ये मसाला फ़िल्म है, इसमें आर्ट मत ढूँढो। इसी तरह जो फ़िल्में गंभीरता के लिबास में आती हैं उन्हें खारिज करने पर कहा जाता है कि लोगों को इसमें भी मसाला चाहिए।

मेरा अनुभव ये है कि इस देश के लोग अतियों पर जीने के आदी हैं, उन्हें बैलेन्स की परिभाषा ही नहीं पता। और इसीलिए यहाँ झगड़े ख़त्म नहीं होते, क्योंकि ये दो सिरों पर खड़े लोग एक-दूसरे को घूरते ही रहते हैं। आज तो ये आलम है कि आप आँखें बंद करके कदम आगे बढ़ाएँ तो एक फ़िल्म समीक्षक पर पड़ जाएगा। आपने सुना होगा कि “टी टैस्टर” नामक एक काम भी होता है जिसमें एक आदमी अलग-अलग तरह की चाय टैस्ट करके उनमें अंतर तो बताता ही है, ये भी बताता है कि किस तरह उसका फ़्लेवर और बढ़िया हो सकता है। अब चाय तो सभी पीते हैं, कोई कडक, कोई नरम, कोई काली, कोई सफ़ेद, कोई रेड लेबल, कोई ताज तो कोई वाघ बकरी और सबकी अपनी राय होती है उसे लेकर। अब सब लोग अपनी-अपनी रैसिपि लिखकर उसे ही authentic बताने लगे तो क्या होगा? सभी न टी टैस्टर बन जाएंगे? जबकि टी टैस्टर बनने के लिए सबसे ज़रूरी जो क्वालिटी होनी चाहिए, वो है आपके टेस्ट बड्स alive होने चाहिए और sensitive होने चाहिए। जैसे चाय हर कोई पीता है वैसे ही सिनेमा है, जो चाय के बाद शायद सबसे ज़्यादा consume होता है। सब लोग सिनेमा देखते हैं, किसी को मंडी पसंद आती है तो किसी को “गुंडा” पर इसका मतलब ये नहीं है कि इन फिल्मों को ही मानक मानकर सभी फिल्में बनाई जाएँ। पर फिर इसका मतलब तो ये हुआ न कि सभी फिल्में अच्छी हैं, क्योंकि हर फिल्म का एक दर्शक वर्ग है, जो उसे कालजयी बताने पर तुला हुआ है। कोई गदर को कालजयी घोषित कर रहा है तो कोई जवान को। पर ठहरिए, ऐसा भी नहीं है। फिल्म बनाने का मानक कोई फिल्म नहीं होती, हर कला के कुछ मूलभूत सिद्धान्त होते हैं। फ़िल्म के लिए भी हैं। फ़िल्म, किसी कहानी को कहने का सबसे अच्छा तरीका है। पर इस तरीके में लगभग सभी तरह की कलाएं शामिल हो जाती हैं। पर सबका केंद्र वो कहानी होती है। लेकिन उस कहानी के अच्छे बुरे होने का भी फ़ाइनल प्रॉडक्ट के अच्छे बुरे होने का उतना संबंध नहीं है। एक अच्छी कहानी भी बहुत बुरे तरीके से कही जा सकती है और एक बुरी कहानी भी बहुत खूबसूरत तरीके से कही जा सकती है। अब इस कहने में शामिल हैं, फोटोग्राफी, संगीत, अभिनय, नृत्य, संवाद, स्टेज, लोकेशन, ध्वनियाँ...याने अनगिनत चीजों पर निर्भर करती है ये कला, इसीलिए अगर सही तरीके से बनाई जाये तो सबसे कठिन है। अब एक फ़िल्म को मापने का पहला पैमाना तो कहानी ही है, कि वो क्या कहना चाहती है। अगर लुगदी है तो लुगदी ही कही जाएगी, चाहे करोड़ों लोगों ने देखी हो और अगर अद्भुत है तो चाहे 10 लोगों ने देखी हो अद्भुत ही होगी। कहानी को कहने में भी सबसे महत्वपूर्ण जो चीज़ है वो है, भावों का सम्प्रेषण, उसके बाद आता है किरदार, हर किरदार अलग महसूस होना चाहिए, ऐसा नहीं कि सब एक ही जैसे बोल रहे हैं। इसे कैरक्टराइजेशन कहते हैं। इसका मसालेदार उदाहरण है “दिल चाहता है”। उसमें तीनों मुख्य पात्रों के किरदार बिलकुल अलग रंगों में दिखाई देते हैं। अब इन किरदारों को उतनी ही खूबी से निभाया जाये तो ही ये अपना असल रंग बिखेर सकते हैं। फ़िल्म में हर भाव को संगीत में लपेट कर दर्शक की तरफ़ फेंका जाता है, अगर ये संगीत उसी भाव के अनुरूप है तो उसका प्रभाव 100 गुना बढ़ा देता है। इन सबके अलावा बहुत सी बारीक चीज़ें होती हैं जो आम दर्शक को पता नहीं होती लेकिन बहुत गहरा प्रभाव डालती हैं जैसे हर फ़िल्म का एक कलर पैलेट होता है, एक फ्रेम में वही colors होने चाहिए जो एक दूसरे को complement करते हों, बिलकुल विपरीत कलर्स वितृष्णा पैदा करते हैं। यहाँ तक कि स्क्रीन पर मुख्य कलाकारों के पीछे आते-जाते रहने वाले लोग भी पहले से planned होते हैं।

माफ करना मैं थोड़ा इधर-उधर निकल जाता हूँ। तो मुद्दे की बात ये है भाई लोगों कि मसाला फ़िल्म बुरी नहीं होती, नहीं होती, नहीं होती...जैसे आप अगर कढ़ाई पनीर बना रहे हैं और आपको अदरक अच्छा लगता है तो आपने ढेर सारा अदरक डाल दिया, वो सब्जी अच्छी नहीं बनेगी, या गरम मसाल खूब सारा डाल दिया तो जला देगा। अच्छी सब्जी वही होती है जिसमें सभी मसाले बिलकुल उसी अनुपात में डले हों जितने डलने चाहिए। कुछ लोगों को कुछ चीज़ें ज़्यादा पसंद हो सकती हैं जैसे किसी को लाल मिर्च, किसी को तेल तो वो उनकी निजी पसंद है लेकिन सिद्धांततः सही अनुपात वाली सब्जी ही मानक कही जाएगी। यही बात फिल्मों पर भी लागू होती है, शायद यही वजह है कि “शोले” आज भी पसंद की जाती है। खुद रमेश सिप्पी अपनी रैसिपि दोहरा नहीं पाये जबकि “शान” उन्होंने उसी रैसिपि के साथ बनाई थी पर कुछ घटा-बढ़ा दिया था और स्वाद बिगड़ गया। दूसरी फ़िल्म जो पर्फेक्ट कही जा सकती है वो है घातक। सब कुछ सही अनुपात में, सारे रस संतुलित। सिनेमा “make believe” की विधा है, जो आप दिखा रहे हैं उसे justify करना पड़ता है, अगर आपके फैंस को कहना पड़ रहा है कि मसाला फिल्मों में तो ऐसा ही होता है, तो आप फ़ेल हैं, फ़िल्म को खुद convince करना पड़ता है अपना कंटैंट।

तो जब हम “पुष्पा” को या “जवान” को खारिज करते हैं तो इसलिए कि ये फिल्में सिनेमा के मूल सिद्धांतों का मखौल उड़ाती हैं, इनमें या तो अदरक ही अदरक भरा है या तेल ही तेल या मिर्च ही मिर्च।

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