हम बचपन में अमिताभ बच्चन को बेइंतहाँ प्यार करते थे। एक हीरो, सच्चा हीरो जो हर बुरे आदमी, हर अन्यायी व्यवस्था से लड़ता है। मीडिया में कहा गया कि वो इमेज उस समय की मांग थी। जनता के व्यवस्था के खिलाफ़ आक्रोश की अभिव्यक्ति थी। अब हमारी तो इतनी समझ नहीं थी कि सामाजिक कारण समझ आ सके, हमारी बुद्धि में बस इतना समाता था कि ये बुरे आदमी को मार देता है। उस पर्दे पर नज़र आते काल्पनिक हीरो ने हालांकि कुछ नहीं बदला बल्कि समय के साथ वो खुद खलनायक हो गया। ख़ैर, वो सपनों की दुनिया है, जहां हम सिर्फ महसूस करके खुश हो सकते हैं। हमारे दौर की विडम्बना ये है कि कोई असल हीरो नहीं है जिसकी तरफ़ देखा जा सके। जैसे एक दौर था जब लोग हर चीज़ के लिए महात्मा गांधी की बाट जोहते थे।
पर असल ज़िंदगी के हीरो ऐसे अचानक एंट्री नहीं मारते। उनके हीरो बनने की प्रक्रिया बहुत धीमी और तकलीफदेह होती है, हमारे लिए भी और उनके लिए भी, हमारे लिए यूं कि हीरो बहुत बुरे दौर की पैदाइश होता है और उनके लिए तकलीफदेह यूं कि उन्हें जानलेवा तकलीफ़ों से गुजरना होता है और जब वे तकलीफ़ें भी उन्हें नहीं बदल पाती तब जाकर एक आदमी का हीरो में transformation होता है। आज हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि हमने ये transformation देखा है, हम गवाह बने हैं उसके। हमने रवीश कुमार को एक पत्रकार से हीरो बनते देखा है।
और ये भी उस हीरो बनने की प्रक्रिया का ही अंग है कि बहुसंख्य लोग उसके खिलाफ़ होते हैं, इतना कि उसे मार डालना चाहते हैं। रवीश उस सबसे गुज़रे हैं। कितना कुछ हुआ है ये कभी हम लोगों तक नहीं पहुंचता अगर विनय शुक्ला ने ये डॉक्युमेंट्री “while we watched” नहीं बनाई होती। इसके लिए विनय शुक्ला को जितना धन्यवाद दिया जाये, कम है।
हम जब अपनी टीवी स्क्रीन पर उन्हें कार्यक्रम करते देखते हैं तो पीछे के ग्राफिक्स और उनका चेहरा इस बात का बिलकुल आभास नहीं होने देता कि वे एक छोटे से ऑफिस में बैठकर अपने कार्यक्रमों की रूपरेखा बनाते हैं, जिसमें उनके साथ मुट्ठी भर लोग हैं, और ये सब लोग हर समय इस खौफ़ में काम करते हैं कि “कल क्या होगा?”। हमें लगता है कि ठीक है थोड़ी मुश्किलें हैं पर बढ़िया चल रहा है। पर दर असल कुछ भी बढ़िया नहीं है।
पत्रकारिता का मूलभूत सिद्धान्त है “पत्रकार हमेशा विपक्ष में होता है”। इस एक पंक्ति को अगर आप याद रखें तो एक झटके में पत्रकार और दलाल के अंतर को पहचान जाएंगे चाहे वो दलाल इस मुखौटे के साथ आए कि सरकार जो अच्छा कर रही है उसे भी बताना चाहिए। ख़ैर, ये पंक्ति भी अब बहुत ही फीकी हो गई है, बेशर्मी अपनी सारी हदें पार कर गईं है। दुनिया में शायद पहली बार पत्रकारों ने एक व्यक्ति का अपने कार्यक्रमों में प्रचार किया और चुनाव में उसकी जीत का जश्न मनाया। और वो एक आदमी जो इस धारा के विपरीत बह रहा है उसे डुबोने की सबने मिलकर हर संभव कोशिश की।
Documentary बनाने के लिए विनय शुक्ला कई दिनों तक हर वक़्त रवीश कुमार के साथ रहे और बिना उनकी दिनचर्या को डिस्टर्ब किए सब रिकॉर्ड करते रहे। ये काम ऐसे हुआ कि धीरे-धीरे उन्हें ये लगना ही बंद हो गया कि कोई साथ में है। रवीश से पहले-पहल जब उन्होंने इजाज़त मांगी तो रवीश ने उन्हें एनडीटीवी से अनुमति लेने को कह दिया था। उन्हें ये विचार बिल्कुल गंभीर नहीं लगा था और यक़ीन था कि एनडीटीवी उन्हें इंकार कर देगा। पर विनय को अनुमति मिल गई, पर इसके बावजूद रवीश को यक़ीन था कि ये फिल्म पूरी नहीं बन पाएगी। पूरे पाँच साल लगे पर आख़िर फ़िल्म बनकर तैयार हुई।
डॉक्युमेंट्री वैसे तो एक डॉकयुमेंट होती है पर ये दस्तावेज़ भावनाओं में भीगा हुआ है। इसमें उन मुट्ठी भर लोगों का डर, उनकी हताशा और उनका दर्द ऐसे उभर कर आता है कि वो आपके अंदर समा जाता है। हर कुछ समय बाद केक का कटना एक प्रतीक है एक-एक कर साथियों के साथ छोड़ जाने का। हर बार जब कोई रवीश के कैबिन में आता है तो उन्हें धड़का लगता है, जब वो कहता है कि कल मेरा आखिरी दिन है तो रवीश की मुस्कुराहट क्रंदन सी लगती है। उनके अंदर जो हलचल उठती है उसे वे शब्दों में ज़ाहिर नहीं करते लेकिन उनका चेहरा पढ़ा जा सकता है।
आपने शायद नोटिस किया हो कि बीच में वे ज़ाहिरा तौर पर बहुत sarcastic हो गए थे, ये उनके frustration का चरम था। कुछ लोग इस बात के लिए उनकी आलोचना भी करते हैं, पर लोग तो हर बात के लिए आलोचना कर लेते हैं, ये समझने वाली बात है कि वे उस वक़्त जिस सिचुएशन में थे उसमें उनके अंदर का गुस्सा कहीं तो राह ढूंढेगा और व्यंग्य से अच्छा तो और कोई तरीका नहीं था। उनसे नौकरी के लिए शो करने की गुहार लगाने आए युवाओं से भी दो टूक उन्होने यही बात की थी, जिन्हें और सारे चैनलों ने भगा दिया था, कि आप लोग चुनाव के वक़्त तो वही जहरीले चैनल देखते हैं, और आज मेरे पास आए हैं? ख़ैर, उन्होने वो कार्यक्रम किया और बहुत से युवाओं को नौकरी मिली भी। उन्हीं गुहार लगाने वाले युवाओं में से बहुतेरे नौकरी लगकर आराम मिलने के बाद फिर से जहरीले हो गए और रवीश के खिलाफ़ जहर उगलने लगे। इस देश का शायद यही डीएनए है।
वो एक आदमी अपने न झुकने की ज़िद में खत्म होता जा रहा है। सब लोग दिशाहीन सा महसूस कर रहे हैं। इतनी अनिश्चितता और खौफ़ के साथ काम करते रहना वाकई सबके बस की बात नहीं। इस देश में जो अंधा युग शुरू हुआ था उसने धीरे-धीरे अधिकांश नागरिकों को जोंबी बना दिया है। लोग उन्हें खुले आम गालियां दे रहे थे, फोन पर जान से मारने की धमकियाँ दे रहे थे और आश्चर्य की बात है कि उन्हें कानून का रत्ती भर भी डर नहीं था, और उनके इस आत्मविश्वास के पीछे भी ठोस वजह है। व्यवस्था उनके साथ है। इतनी बेशर्मी कि ज़ी न्यूज़ के ऑफिस के बाहर बड़ा सा होर्डिंग लगता है “रवीश का टाइम अब नहीं है prime”। ये नीचता की पराकाष्ठा है और अपने पवित्र पेशे को कीचड़ में लिथड़ा देने वाला कृत्य है। विडम्बना ये कि रवीश खुद आते-जाते वो होर्डिंग देखते हैं। पर मेरा मानना है कि ये एक व्यक्ति की उन तमाम संस्थाओं पर जीत है जो अपनी खीझ में व्यक्तिगत हमलों पर उतर आए पर किसी भी तरह रोक नहीं सके रवीश को “मगसेसे” जैसा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीतकर पूरी दुनिया में मशहूर हो जाने से। बाहर उन्हें पहचाना जा रहा था और घर में उनका जीना मुश्किल हुआ जा रहा था। उनका परिवार हमेशा इस डर के साथ जी रहा था कि पता नहीं कब क्या हो जाये। जब दूसरे चैनल बिलकुल नंगे हो गए और खुले आम उन लोगों का शिकार करने को उकसाने लगे जो किसी भी तरह उनके मालिकों का विरोध कर रहे थे।
डॉक्युमेंट्री देखते हुए आप अपनी बेबसी और तड़प को शिद्दत से महसूस करते हैं और सोचते हैं कि क्या ये देश वाकई महान है? क्या एक अनपढ़, कुटिल व्यक्ति पूरी की पूरी आबादी को इस कदर बेवकूफ़ बना सकता है? या ये आबादी है ही कम अक्ल, वो सिर्फ इस कम अक्ली का फायदा उठा रहा है।
बहरहाल, हर सच्चे आदमी को इस देश में जितनी चुनौतियों और इसी की लय वाले एक और शब्द का सामना करना पड़ता है वो शायद और कहीं नहीं। “सत्यकाम” फ़िल्म ने यही सब कई बरसों पहले दिखाया था और आज तो हाल और भी भयावह है क्योंकि तब सिर्फ व्यवस्था क्रूर थी, अब जनता भी उसके साथ है। जनता खुद अपना खून चाट कर खुश हो रही है। मैं बहुत उद्वेलित हूँ, नाराज़ हूँ पर बेबस हूँ। हम जैसे लोग कुछ अंशों में उस परिस्थिति को समझ सकते हैं क्योंकि हम लोग भी उन्हीं नफ़रतों का सामना कर रहे हैं अपनी-अपनी जगह। कई लोगों के दोस्त, रिश्तेदार उन्हें छोड़ चुके, उनके खिलाफ़ कुछ भी करने को तैयार हैं क्योंकि वो जोंबीस की भीड़ में इंसान रह गए हैं।
सब कुछ लिखूंगा तो लेख बहुत लंबा हो जाएगा। वैसे भी मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या लिखूँ इसके बारे में? मैं कुछ भी लिखूँ न्याय नहीं कर पाऊँगा इसलिए आप इसे देखें और ज़रूर देखें। अगर आप रवीश को चाहते हैं तब भी और नहीं चाहते तब भी मेरी गुजारिश है कि एक बार इसका विरोध करने के लिए ही देखें, क्या पता आपके अंदर का इंसान जाग जाये। यूट्यूब पर फ्री में उपलब्ध है। डॉक्युमेंट्री पूरी दुनिया में धूम मचा रही है। अम्रीका में उसके एक महीने तक shows हुए। जॉन ओलिवर ने एक महत्वपूर्ण टिप्पणी की – “अगर आपको ये डॉक्युमेंट्री पसंद नहीं तो ख़राबी डॉक्युमेंट्री में नहीं, आपकी सोच में है”। आज रवीश का ये संघर्ष पूरी दुनिया में पहचाना जा रहा है, उन्हें सराहा जा रहा है।
रवीश आज के दौर के निर्विवाद रूप से हीरो हैं। आज से बरसों बाद जब मुड़ कर देखेंगे तो कम से कम ये कह सकेंगे कि इतने खराब दौर में भी कोई था जो आवाज़ उठा रहा था। कुछ लोग उनकी कमियाँ गिनवा सकते हैं लेकिन ऐसा कोई आदमी नहीं जिसमें कोई कमी नहीं हो। एक बेहद मुश्किल दौर में जो डट कर खड़ा रहा, जिसे दबाने, खरीदने, बदनाम करने के लिए पूरे सिस्टम ने जोर लगा दिया, यहाँ तक कि वो संस्था ही खरीद ली गई जिसमें वे काम करते हैं तब भी जो व्यक्ति अपने विचारों पर क़ायम रहा उसे salute तो बनता ही है। हीरो और किसे कहते हैं? वे वही अमिताभ बच्चन हैं जिसे हम अमिताभ बच्चन में ढूंढते थे।
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वाह!❣️
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