ब्रह्मास्त्र - दर्शक की चेतना पर चलाया गया

 


1990 में जब सौदागर आई थी, बड़ा हाईप था भाई। सुभाष घई की फिल्म, दिलीप कुमार, राजकुमार 30 साल बाद एक साथ, साथ में जैकी श्रॉफ, मनीषा, विवेक मुश्रान, अमरीश पुरी, गुलशन ग्रोवर, मुकेश खन्ना, अनुपम खेर, उस पर लक्ष्मी - प्यारे का भव्य संगीत। ईलू ईलू ने तहलका मचा दिया था। बड़े उत्साह के साथ देखने गया और देखकर जब बाहर निकला तो समझ नहीं आ रहा था कि सर के अंदर हथौड़ा लेकर कौन घुस गया है।

आज इतने सालों बाद फिर एक बार वही फीलिंग आई, वो भी 10 गुना होकर क्योंकि सौदागर में गाने बहुत बड़ा रिलीफ थे। जब जब गाने आते थे, व्याकुल मन को थोड़ी राहत मिलती थी। यहां तो गाने 3rd डिग्री टॉर्चर की तरह थे, फ़िल्म से बुरी तरह परेशान हुआ मन गाने आने पर तो त्राहि त्राहि करने लगता है।


हां, मैं पूर्वाग्रह के साथ गया था फ़िल्म देखने पर ख़राब होने के नहीं, मुझे लग रहा था कि अच्छी ही होगी।

दर असल ब्रह्मास्त्र देखने की दो वजहें थीं, पहली - बायकॉट और दूसरी - मुझे IMAX में फ़िल्म देखने का अनुभव लेना था। हालांकि जब इसका ट्रेलर आया था तब कभी खयाल भी नहीं आया था कि ये फिल्म देखूंगा, नहीं देखने के लिए प्रोड्यूसर और डायरेक्टर का नाम काफ़ी था। पर परिस्थितियां ऐसी बनी कि मुझे लगा फ़िल्म चलनी चाहिए, for Bollywood sake।

तो चला ही गया देखने। जैसा कि लगभग सभी लोगों ने बताया है, शाहरुख़ का कैमियो जबरदस्त है, बल्कि फिल्म बस उतनी ही है, बाकी तो ड्रैग है। वैसे तो शाहरुख़ से 15 साल पहले मोहभंग हो गया था पर इसे देखकर लगा कि अब भी अगर वे अच्छे किरदार चुनने लगें और एक बार फिर मेहनत करना शुरू कर दें तो फिर लहर बन सकती है। उनका तरीका अब भी वही है, ऐसा लगा कि अपना डीडीएलजे वाला राहुल वैज्ञानिक बन गया। फिर भी फिल्म की दिमाग पर कुछ छाप अगर रहती है तो बस यही सीक्वेंस है।


बढ़िया मूड सेट हो जाता है पहले 10 मिनिट में। शिवा को शाहरुख़ के साथ होती घटनाओं का लाइव टेलीकास्ट हो रहा है, कुछ भयानक घट रहा है। हमें भी रोमांच हो आता है। अच्छा लेखक और निर्देशक होता तो इसी मूड का सिरा पकड़ कर और आगे ले जाता। बड़ा ही इंटेंस मोमेंट है और अचानक ईशा नज़र आती है और शिवा पर नाचने का भूत चढ़ जाता है। ये अनंत लंबाई का गाना ख़त्म ही नहीं होता और हम सोचते रहते हैं "साला इधर कांड हो रहा था उसका क्या हुआ?" ये #%€£ तो नाचने लगा। गाना ख़त्म होता है और ब्रेक के बाद उसके दिमाग़ में लाइव टेलीकास्ट फिर शुरू हो जाता ही। पूरी फ़िल्म में हर इंटेंस मोमेंट की इसी तरह ऐसी तैसी फेरी गई है। इसके बाद आर्टिस्ट शेट्टी की जान को ख़तरा है, शिवा को लगता है उसी की जिम्मेदारी है आर्टिस्ट को बचाना। उसे पता है कि शेट्टी को मारने किलर्स निकल चुके हैं, शिवा जल्दी से वाराणसी पहुंचता है क्योंकि तुरंत ही बचाना पड़ेगा, और पहुंचते ही गाना गाने लगता है जो दिन भर चलता है, फिर रात को जब किलर्स दिखते हैं तो याद आता है कि और अपन तो बचाने आए हैं। बड़े ही बचकाने तरीके से दोनों महत्वपूर्ण किरदार मर जाते हैं। हज़ार नंदियों की ताक़त वाला आदमी गोली से मर जाता है, क्या काम की ऐसी ताकत? दिव्य शक्तियों वाले लोग बंदूकों से मार रहे हैं। कहानी बस इतनी ही है कि कुछ लोग ब्रह्मास्त्र के पीछे पड़े हैं और कुछ लोग उसके रक्षक हैं। ये ब्रह्मास्त्र 6 इंच पिज्जा के आकार की बहुत ही घटिया लकड़ी की प्लेट है। इतनी इंपोर्टेंट चीज़ को ये लोग ऐसे ही जेब में, हाथ में लेकर घूम रहे हैं। लड़ाइयों का अंत बहुत ही घिसे पिटे तरीकों से होता है। 


औरों की तरह मुझे लव स्टोरी से कोई परहेज नहीं पर इतनी बेतुकी और उबाऊ हो तो सख़्त ऐतराज है। वो दोनों एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं ये बात 2-3 दृश्यों से भी समझ आ जाती उसके लिए इतना रायता फैलाने की ज़रूरत नहीं थी। फ़िल्म को जबरदस्ती खींचने के चक्कर में गाने और प्यार मोहब्बत का ओवर डोज कर दिया, वो भी बचकाने तरीके से। अमिताभ बच्चन याने गुरुजी के आश्रम में अलग - अलग शक्तियों वाले लोग रहते हैं। अपने को लगता है कि गुरुजी कोई बल्लम आदमी होंगे जिनका कोई कुछ नहीं उखाड़ सकता पर आखरी तक ये गुरुजी शिवा की ही मिन्नतें करते रहते हैं और अंतिम लड़ाई में भी बिचारे बांध - बूँध के पटक दिए जाते हैं। फिर दो चार को निपटाते हैं। उनसे ज्यादा काम तो वो छोटा सा छोरा आ जाता है। 


वीएफएक्स बढ़िया हैं पर आग, आग कम लाइट ज्यादा लगती है। मस्त कलरफुल लाइट्स दिखती रहती है पूरी फिल्म में। ये फ़िल्म नहीं "लाइट एंड नॉइस" शो था जिसमें आंखों में रोशनी और कान से खून बहने लगता है। बैकग्राउंड म्यूजिक बनाने वाले के कानों में पिघला हुआ सीसा डाल देना चाहिए। आखरी कुछ मिनट मैं सही में कानों में उंगलियां डाल कर बैठा। 


जिस आदमी ने डायलॉग लिखे हैं उसके हाथ तुरंत ही काट लिए जाने चाहिए, इससे पहले कि और फिल्मों में गंद फैलाए। इतने घटिया डायलॉग बहुत कम सुनने को मिलते हैं। बानगी देखिए - शाहरुख को मारने दो किलर्स आते हैं, शाहरुख मार खाने के बाद - मैं तेरा नाम रख देता हूं, तू बहुत भारी है हाथी जैसा, तेरा नाम हाथी रख देता हूं, नहीं पर हाथी तो अच्छा होता है, तू गैंडा है, तेरे में बहुत जोर है तो तेरा नाम ज़ोर रख देता हूं। (दूसरे से) तेरा भी नाम रखना चाहिए, तू बहुत घाई घाइ कर रहा है तेरा नाम रफ्तार रख देता हूं।

अब भाई साहब ने ये नाम रखे और फिर पूरी फिल्म में सब इनको उसी नाम से बुला रहे हैं। सलाम है आपकी प्रतिभा को।


नागार्जुन बिल्कुल असहज हैं, डायलॉग में साउथ इंडियन लहजा बहुत ज्यादा है और प्रभावी भी नही है। अमिताभ बच्चन को ढंग के रोल मिल ही नहीं रहे। एक ज़माने में वो औरा था उनका कि स्क्रीन उनके होने से ही देदीप्यमान हो जाती थी, अब तो वो कॉन्फिडेंस भी नज़र नहीं आता जो दीवार में था। उनका कैरेक्टर हमेशा वल्नरेबल होता है, उन्हें गुरु के तौर पर बहुत बहुत मजबूत दिखाया जाना था। हैरी पॉटर में हीरो भले हैरी है लेकिन डंबल डोर कमजोर नहीं है कहीं से भी। इससे याद आया इस फिल्म का कॉन्सेप्ट X-men और हैरी पॉटर को मिला कर बनाया गया है। वहां जिन्हें mutant दिखाया है, यहां दिव्य अस्त्र वाले दिखाए हैं। उससे भी कोई दिक्कत नहीं पर उनका execution भी तो सीख लेते। 

रणबीर कपूर ने बिलकुल प्रभावित नहीं किया। आलिया के करने को कुछ नही था, दिखती तो अच्छी ही है। रणबीर के दोस्त ऐसे हैं जो पैदा ही हीरो का दोस्त होने के लिए हुए हैं, ये उनको भी मालूम है। इतना चाटुकार दोस्त तो दीपक तिजोरी भी नही हुआ करता था। उस पर इतनी भद्दी एक्टिंग कर रहे हैं। अनाथालय की बच्ची का birhday भयानक cliche है, शम्मी कपूर के ज़माने से चला आ रहा है।


600 करोड़ इस कूड़े में खर्च कर दिए इससे बड़ी अश्लीलता क्या होगी। 599 लगा लेते और 1 मुझे दे देते तो ऐसी फ़िल्म बनाता कि बरसों बरस याद रहे। अरे भाई डायलॉग ही मुझसे लिखवा लेते, फ्री लिख देता और बाकी खामियों को छुपा देता। इससे अच्छे डायलॉग "गुंडा" के हैं। 

फिल्म देखने के बाद मेरा रात भर सर दर्द होता रहा। मुझे मेरे 250 रु वापस चाहिए। फिल्म में लाइट्स के अलावा कुछ भी, मतलब कुछ भी अच्छा नहीं है।


मैंने दो दिन पहले ही जय भीम देखी थी, उसका खुमार था, बहुत ही बढ़िया फिल्म है, उसका मज़ा इसने ख़राब कर दिया।

वाकई इन अरबों वाले प्रोडक्शंस की दुकान बंद होनी चाहिए, ताकि अच्छी फिल्में बनाने वालों को ज्यादा अवसर मिले। ये बस पैसा बर्बाद करते हैं और टिकट महंगे करवाते हैं। इससे अच्छी तो धर्मेंद्र की फिल्म "हुकूमत" है जिसमें प्रवीण कुमार का एक हाथ स्टील का होता है और सदाशिव अमरापुरकर का आतंक होता है।


इस फिल्म से अच्छा ये 9 मिनट का वीडियो है, मज़ा आ जायेगा। लिंक कमेंट बॉक्स में है।


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