भेड़िया - मसालों का सही अनुपात



सब्जेक्ट मुझे ठीक लग रहा था, कुछ लोग अच्छा-अच्छा भी बोल चुके थे पर सिर्फ़ ‘वरुण धवन’ के नाम पर मैं एक क़दम आगे बढ़ाता तो दो क़दम पीछे ले लेता था। आख़िर 3 दिन पहले रात में अपने लैपटाप पर काम करते हुए मैंने शुरू कर दी, ये सोचकर कि अभी फ़िल्म पर फोकस तो हो नहीं पाया, बीच-बीच में देखता रहूँगा। लेकिन पूरे फोकस के साथ न देखने पर भी जितनी देखी वो ज़हन में अटक गई। तब तो रात बहुत हो चुकी थी तो बंद करके सो गया लेकिन आपने भी कभी वो खुजली महसूस की होगी जो किसी दिलचस्प फ़िल्म के अधूरा छूट जाने पर होती है, वही हो रही थी। मैंने बच्चों के साथ फिर से फ़िल्म लगाई और शुरू से देखी, और अपने ख़ुद के आश्चर्य के लिए पता चला कि दूसरी बार देखने पर भी बोर नहीं हुआ, बल्कि वरुण धवन भी irritate नहीं कर रहे थे। 

कहानी वैसी ही है जैसी spider man, मकड़ी पुरुष को मकड़ी ने काटा था और यहाँ अपने हीरो (भास्कर) को भेड़िया काट लेता है। इस कांड के बाद हीरो रात में भेड़िया बनने लगता है, उसमें सुनने, सूंघने की अद्भुत क्षमता आ जाती है। अब इस कहानी में बड़ी ही खूबसूरती से जंगल और उस बहाने पर्यावरण को पिरोया गया है। जैसे spiderman का वो हादसा किसी वैज्ञानिक प्रयोग का नतीजा होता है, यहाँ इस घटना को लोक कथा से जोड़ा गया है, वैसे ही जैसे "स्त्री" में किया गया था और इसमें कोई बुराई नहीं है। आख़िर सारी लोक कथाएँ या पौराणिक कथाएँ किसी अच्छी शिक्षा को मीठे रैपर में लपेट कर दी गई गोली होती है। ये दीगर बात है कि लोग इतने नासमझ हो गए कि अंदर की दवाई को थूक कर सिर्फ रैपर गटक रहे हैं। ख़ैर, भास्कर अपनी इस हालत से घबरा जाता है। वो इस जंगल में रोड बनाने के ठेके के लिए आता है और उसके अंदर का भेड़िया इसी काम की राह में रोड़ा है। वो इसका इलाज ढूंढते-ढूंढते वहाँ पहुंचता है जहां उसका ज़मीर उसका इंतज़ार कर रहा है। ऐसी घटना होती है कि उसके जीवन का फलसफ़ा ही बदल जाता है। उसके अंदर का भेड़िया, उसके इंसान से बेहतर साबित होता है। 

कहानी ज़्यादा नहीं बताऊंगा। कहानी नई है और उसे कहने का तरीका बेहद दिलचस्प है। ये तरीका इसके निर्देशक “अमर कौशिक” का यूनिक़ स्टाइल है। विषय हॉरर हो या थ्रिलर, उसे हास्य के अंदाज़ में कहने में वे माहिर हैं, उनकी फ़िल्म स्त्री और फिर भेड़िया इस बात को साबित करती हैं। ये फ़िल्म शायद उन्होने ज़्यादा ही दिल लगाकर बनाई है क्योंकि इसे अपने घर अरुणाचल प्रदेश में शूट किया और ज़ाहिर है पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों का एक जो दुख है बाकी भारत में मज़ाक़ बनाए जाने का उसे काफी subtle तरीके से establish किया है उन्होने। देखा जाये तो मज़ाक-मज़ाक में फ़िल्म कई गंभीर बातें बिना उपदेशात्मक हुए कह जाती है। मसलन देश की इस दिशा के लोगों को चीनी समझ लिए जाने का दुख, उनकी उपेक्षा का दर्द जिसकी वजह से वहाँ विकास नहीं हो पाया। जंगल के काटने का बड़ा मुद्दा। और जंगल के रक्षकों में फैला भ्रष्टाचार। इस भ्रष्टाचार को भी वे शायद इसलिए मजबूती से उठा पाते हैं कि उनके पिता खुद वहाँ रेंजर रहे हैं। 

फ़िल्म की सपोर्टिंग कास्ट पूरा सपोर्ट करती है, जिनमें दीपक डोबरियाल तो हैं ही superb, अभिषेक बनर्जी फ़िल्म दर फ़िल्म अपने होने को ज़रूरी बनाते जा रहे हैं। 

वरुण धवन की तारीफ़ इसलिए बनती है कि अपने पिता के स्टाइल की वाहियात फ़िल्मों के अलावा उनमें कुछ अलग try करने की भी भूख है। “बदलापुर”, “ओक्टोबर” “सुई धागा” और “भेड़िया”, इसी भूख का परिणाम है। ये हिम्मत शाहरुख भी नहीं कर पाये कभी। इस पंक्ति का विरोध हो सकता है लेकिन बता दूँ, कि एक जमाने में अज़ीज़ मिर्ज़ा के साथ शुरुआत करके काफी काम करने के बाद, व्यावसायिक सफलता मिलने पर वे उनसे हमेशा कन्नी काटते रहे क्योंकि उनकी फ़िल्में लार्जर देन लाइफ नहीं होती थीं। खैर, वरुण धवन की सुई धागा को छोडकर ऊपर उल्लिखित तीनों फ़िल्में मैंने देखी हैं और तीनों अच्छी फ़िल्में हैं। भेड़िया तो कमर्शियल फ़िल्म है और मसाला फ़िल्मों के पैरोकार समझ सकते हैं कि मसालों के साथ अच्छी फ़िल्म कैसे बनाई जा सकती है। उसके लिए दिमाग से दीवालीय होना ज़रूरी नहीं। बहरहाल अबीर को इतनी पसंद आई कि अभी से उसे इसके सेकंड पार्ट का इंतज़ार है। 

संगीत का तो अब क्या ही उल्लेख करें फ़िल्म के बारे में लिखते हुए। बेतुके गीत हैं, जिन्हें जबर्दस्ती ठूँसा गया है। “जंगल में कांड हो गया” को फ़िल्म कमीने के “धन ट न” की तर्ज़ पर बनाया गया है, यहाँ तक कि गवाया भी सुख्विंदर और विशाल दादलानी से है पर ऐसे गीत को सुनने लायक होने के लिए बनाने वाला विशाल भारद्वाज होना चाहिए, सचिन-जिगर के बस का रोग नहीं है ये। अरिजित सिंह का एक गीत है जिसका instrumental ही ठीक लगता है। संगीत संयोजन की कला अब विलुप्त हो चुकी। 

फ़िल्म संगीत मर चुका है। उसकी भव्य ज़िंदगी का इतिहास जानना हो तो आप मेरी हाल ही में छपी किताब “सिनेमा सप्तक” पढ़ सकते हैं। 

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टिप्पणियाँ

  1. बेनामी9:00 am

    मूवी मुझे भी पसंद आई। पहला सब्जेक्ट अच्छा था दूसरा मैं environment से रिलेटेड सब्जेक्ट के लिए biased हूं थोड़ा। कॉमिक टाइमिंग बहुत गजब को रही कुछ जगह तो।
    संगीत

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    1. बेनामी9:01 am

      फिल्म म्यूजिक सच में अजीब सा हो गया है। पहले जहां हर नया गाना पता होता था अब सुनने का भी मन नहीं करता।

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    2. मतलब आप जंगल बचाना नहीं चाहते?

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  2. बहुत सुंदर लेख, वरूण धवन के कारण मैंने भी नही देखी अब तक, पर अब देखने की इच्छा जागृत हुई है।

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