चमकीला - एक चमकीला गायक



 Facebook #चमकीला से अटा पड़ा है। 

कोई लिख रहा है कि उसे नायक बनाने की कोई ज़रूरत नहीं है, कोई कहे वो वाकई अश्लील था उसमें ऐसा कुछ खास नहीं था। कोई कहे जातिवाद पर प्रहार है, कोई कहे संप्रदायवाद पर, कोई कह रहा ये डॉक्युमेंट्री है। कोई किसी कैरक्टर को कम स्पेस मिलने से खफ़ा है, कोई किसी को ज़्यादा जगह मिलने से नाराज़।

इतना लिखा जा चुका है कि मैं सोचता था अब क्या ही लिखूंगा इस पर? पर फिल्म देखने के बाद मुझे जो लगा वो अब तक पढ़ा नहीं सो, इतना तो लिखना बनता है। क्योंकि क्या है ना मैं फिल्म को फिल्म की तरह देखता हूँ, उसके बाद उसके पीछे जाता हूँ और उसके पीछे भी वो सब नहीं देखता जो और लोग देख लेते हैं, बल्कि वो सब तो बनाने वाले भी नहीं देखते, उन्हें भी बाद में पता चलता है कि वो किसी विशेष टॉपिक के लिए प्रोपगंडा कर रहे हैं। ये सब बातें बचकानी हैं कि फिल्में हमेशा किसी न किसी प्रोपगंडा के लिए बनाई जाती है। फिल्म बनाना बहुत खर्चीला, और बहुत ज़्यादा मेहनत का काम है। एक निर्माता आम तौर पर प्रॉफ़िट के लिए फिल्म बनाता है और प्रोपगंडा से उसे प्रॉफ़िट तभी मिल सकता है जब जनता का मानस उस प्रोपगंडा के लिए अच्छी तरह तैयार कर दिया गया हो, और ऐसा हमारे देश के आज़ादी के इतिहास में पहली ही बार हुआ है लिहाजा producers अब प्रोपगंडा को सुरक्षित मानकर उसका उपयोग कर रहे हैं। फिर भी अधिकांश लोग इस इंडस्ट्री में फिल्म के लिए फिल्म बना रहे हैं। 

इम्तियाज़ अली उन्हीं में से एक हैं। एक निर्देशक को किसी कहानी में कौन सी चीज़ छू जाये कहा नहीं जा सकता, और वो उसे कहने के लिए बेचैन हो जाता है। ये लेखक या निर्देशक जितना अपनी कला को लेकर संवेदनशील होगा, आम आदमी के कयास असल भावना से उतनी ही दूर होंगे, और इम्तियाज़ अली ने पर्याप्त काम कर लिया है अपनी इस संवेदनशीलता को स्थापित करने के लिए। 

चमकीला पंजाब का भले ही सुपर स्टार रहा हो पर शेष हिंदुस्तान में उसे कोई नहीं जानता था, जब तक ये फिल्म नहीं आई थी। इस फिल्म के बाद चमकीला एक बार फिर चमक रहा है, और पहले से कहीं ज़्यादा। Facebook पर उसके गीतों के वीडियो आने लगे हैं। लोग उत्सुकतावश उसे सुनने लगे हैं, पंजाब के बाहर भी। अपने जीवन काल में वो पंजाबियों के बीच प्रसिद्ध था, आज इम्तियाज़ अली ने उसके नाम को घर-घर पहुंचा दिया और, जो विषय उसके गीतों के थे उनके आज भी उतने ही, बल्कि उससे ज़्यादा खरीदार हैं। 

ये जो स्वयंभू धर्म और समाज के रक्षक हर युग में पैदा होते रहते हैं, ये गुमनामी में मर जाते हैं, बस इनका इतना योगदान होता है कि इनके काले बैक्ग्राउण्ड में कोई चमकीला और ज़्यादा चमक बिखेर जाता है। हालाँकि इन स्वयंभू रक्षकों को न धर्म की समझ होती है न ही समाज की, और ये ठेका इन्हें देता कौन है? 

विमर्श का विषय है कि इस तरह के गीत सही है या गलत, लेकिन इस बात को भी समझा जाना चाहिए कि चमकीला कहाँ से आता है। वो जिस तबके से आता है वहाँ ये बातें आम हैं। हमारे गावों में बच्चों के सामने बेधड़क गालियाँ बकी जाती हैं, हर तरह की अश्लील बातें की जाती हैं। ये तो मेरा देखा हुआ है। कम ही लोग बच्चों की मौजूदगी को गंभीरता से लेते हैं, अधिकांश के लिए बच्चे सोचने का विषय ही नहीं होते। तो ऐसे बच्चों के विचार कैसे बनेंगे? उन्हें वही दुनिया की रीत लगेगी जो उन्होने देखा है। वही सही है । ये विवाद cultural differences का है। 

ख़ैर, एक फ़िल्म के तौर पर चमकीला मास्टर पीस है। एक-एक किरदार फ़िल्म से आपकी स्किन में समा जाता है। हर किरदार खरा है, अभिनय है ही नहीं, सब सच है। बस यहीं फ़िल्म अपने फ़िल्म होने की सीमाएँ तोड़ देती है। दिलजीत कहीं भी दिलजीत नहीं लगे हैं, न ही परिणिती, परिणिती है। चमकीला का व्यक्तित्व अगर जैसा इस फ़िल्म में दिखाया गया है वैसा ही था तो बहुत ही सीधा-सरल इंसान था। इतना भोला कि उसे ये भी नहीं पता था कि इंकम टैक्स क्या होता है। पहली धमकी से डर जाता है और धार्मिक गाने गाने लगता है पर लोग उसे मजबूर करते हैं, वही गाने को जो वे सुनना चाहते हैं। वो नहीं छोड़ पाता इस तरह के गीत, क्योंकि वे उसका हिस्सा बन चुके हैं। लोग इंसान को बदलने नहीं देते हैं। एक वक़्त आता है जब चमकीला के मन का डर खत्म हो जाता है और उसे कोई फिक्र नहीं कोई मारे तो मार दे। और देखिये ये लोग सच में मार देते हैं, अगर धर्म के ठेकेदारों ने ही मारा है और इसे नहीं तो कईयों को मारा है, तो थू है ऐसे कमजोर धर्म पर जो एक आदमी के गानों से ही खतरे में आ जाता है। और ये धर्म हमेशा ही खतरे में रहता है जो पूरी इंसानियत को राह दिखाने का दम भरता है। 

फ़िल्म आपको चमकीला की दुनिया की सैर करवा देती है, उसका हिस्सा बनाकर। साथ ही बीच-बीच में असल चमकीला के फोटो भी दिखती चलती है। कुछ लोगों को इससे आपत्ति है पर मुझे नहीं, चूँकि हम जानते ही हैं कि ये किसकी कहानी है तो उसकी झलक देख लेना बुरा नहीं है। 

चमकीला महज़ 27 साल की उम्र में मारा गया। इस उम्र में ही उसने वो स्टारडम देख लिया था जिसे पाने में उम्रें गुज़र जाती हैं। आज तक उसके हत्यारे पकड़े नहीं जा सके, ये उस वक़्त प्रशासन की अनिच्छा ही थी वरना कोई नामुमकिन नहीं था। फ़िल्म शक की सुई खाड़कुओं पर ले जाती है पर उन्हें इसके लिए उकसाने का काम दूसरे गायक करते हैं जो उसकी सफलता से जले-भुने बैठे थे। सफलता हज़ार दुश्मन पैदा कर देती है, ये तो स्थापित सत्य है ख़ैर। 

इम्तियाज़ अली की 'हैरी मेट सेजल' मैंने नहीं देखी, उसके अलावा जितनी फ़िल्में मैंने देखी हैं उनमें मुझे सिर्फ 'रॉकस्टार' और 'लव आजकल' ही बेकार लगी बाकी सब फ़िल्में बहुत बढ़िया हैं। और यही दो फिल्में हैं जो कृत्रिम हैं, बाकी सभी असल ज़िंदगी की कहानियाँ हैं। तमाशा से उन्होने एक नया ही आयाम दिया है अपनी कल्पना को जो इस फ़िल्म में भी नज़र आता है। सिनेमैटोग्राफी कमाल की है, कई frames तो पेंटिंग की तरह लगती हैं। उसी तरह आर्ट डिपार्टमेंट का काम है जिसने 80 का दशक पूरी तरह उकेर दिया है। 

अभिनय के मामले में दिलजीत दोसांझ और परिणीती चोपड़ा ने तो कमाल किया ही है, टिक्की के रोल में अंजुम बत्रा ने भी outstanding परफॉर्मेंस दिया है। हालाँकि परफॉर्मेंस सभी का बेजोड़ है। 

संगीत की तो बात ही क्या करें। कई दिनों से इसके गीतों पर पूरी एक पोस्ट लिखना चाह रहा हूँ पर लिख नहीं पा रहा। बरसों बाद कोई एल्बम आया है जो पूरा का पूरा बार-बार सुन रहा हूँ। रहमान के पुराने दौर की ही तरह ये गीत जितनी बार सुनता हूँ कोई नई चीज़ पकड़ में आती है। आजकल जो लोग म्यूजिक इंडस्ट्री में काम कर रहे हैं उन्होने इतने साज़ों के नाम भी नहीं सुने होंगे जो रहमान इस्तेमाल कर लेते हैं। फिल्म संगीत को बर्बाद करने वालों के लिए रहमान अब भी बड़ी चुनौती हैं। उम्मीद है एक बार फिर रहमान दूसरों को अच्छा करने के लिए मजबूर करेंगे जैसा उन्होने 90 के दशक में किया था। गीतों का फिल्मांकन तो अद्भुत है। मैं सिर्फ वो फिल्मांकन ही बार-बार देखना चाहता हूँ। और एक नहीं, हर एक गीत का। 

चमकीला के असली गीत जो दिलजीत और परिनीती ने खुद गाये हैं, उन्हें शूट के साथ ही लाइव रिकॉर्ड किया गया है और सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं। मेरे मन में ये सवाल था कि इसके गीत दिलजीत से ही क्यों नहीं गवा लिए गए, जिसका जवाब फिल्म देखकर मिल गया, फिल्म का कोई भी गीत लिप सिंक नहीं है और दिलजीत तो उसमें चमकीला की आवाज़ बने हुए थे, उनके गीत गा ही रहे थे। फिर भी “मेनु विदा करो” दिलजीत से गवाते तो ज़्यादा अच्छा होता, सिचुएशन पर भी फित होता क्योंकि वो चमकीला की ही बात है। मुझे अरिजित सिंह हर बार खटकते हैं, पर गीत इतना अच्छा है कि बार बार सुनने का मन भी करता है और जितनी बार सुनता हूँ, उतनी बार अफसोस होता है कि इसे किसी और से क्यों नहीं गवाया?

कुल मिलाकर इम्तियाज़ अली ने एक और माइलस्टोन सेट किया है। अपने आप से ही एक कदम आगे बढ़ गए हैं। आप कह सकते हैं कि मुझे रॉकस्टार क्यों अच्छी नहीं लगी? रॉकस्टार इनटर्वल तक बहुत अच्छी थी, और उसके बाद बहुत ही खराब थी। मेरा एनालिसिस कहता है कि एक कलाकार ने जो दुनिया नजदीक से देखी होती है, उसके बारे में वह बहुत अच्छे ढंग से कुछ कह सकता है, कल्पना की दुनिया के विस्तार में नहीं जाया जा सकता। रॉकस्टार का पहला भाग माध्यम वर्ग की कहानी कहता है जिसे कहने में इम्तियाज़ सिद्धहस्त हैं पर दूसरा भाग एक स्टार की ज़िंदगी के बारे में है जहां पर वे confuse हो जाते हैं, वहाँ उनका हाथ तंग हो जाता है और कहानी अविश्वसनीय लगने लगती है। शायद अब इस तरह की कहानी वे ज़्यादा बेहतर  ढंग से कह सकें, क्योंकि खुद एक स्टार हैं। 

सब लिखकर भी लिखने को कुछ बाकी रह जाता है, ऐसा लग रहा है जैसे जो लिखना चाहता था वो तो रह ही गया। ख़ैर, जो है वो समर्पित है। 

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