रंगीला - 28 सालों बाद

कालजयी का मतलब क्या होता है? वो जो समय से परे हो, जो हर समय-काल में, लोगों के बदले हुए टैस्ट के बावजूद अपना वजूद उसी मजबूती से बनाए रखे। रंगीला फ़िल्म और उसका संगीत निर्विवाद रूप से इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। मैंने फ़िल्म रिलीज़ के वक़्त सिनेमा हॉल में देखी थी, और उसके बाद आज देखी। अब, जबकि 90 के दशक की फ़िल्में बहुत ही बचकानी और स्तरहीन लगती हैं, रंगीला आज भी उतनी ही अच्छी लगी, बल्कि आज की कई फिल्मों से भी बेहतर। बस यही होता है कालजयी। 4 दिन पहले मैंने शाहरुख़ की पहली फ़िल्म “दीवाना” भी देखी थी और उसे पूरी सिर्फ़ इसलिए देख पाया कि मुझे हंसी आ रही थी, कि क्या इस तरह की फ़िल्में ये लोग असल में बच्चों से बनवाते थे? उसके बारे में भी एक पोस्ट विस्तार से लिखूँगा। 

ख़ैर, रंगीला को पूरे 28 साल हो चुके हैं मगर आज भी न संगीत पुराना पड़ा है और न ही फ़िल्म। इन फ़ैक्ट, शेखर कपूर ने इस फ़िल्म के प्रीमियर पर कहा था कि ये अपने समय से बहुत आगे की फ़िल्म है, ये अपने ट्रीटमंट, अपनी कहानी और टैक्नीक में 21वीं सदी की फ़िल्म है। बिलकुल दुरुस्त कहा था उन्होंने क्योंकि उस वक़्त जिस तरह की फ़िल्में बन रहीं थीं, उनमें रंगीला odd one out ही थी। अगर देखा जाये तो हर दौर में मुख्य धारा की अधिकांश फ़िल्में वाहियात ही रही हैं, फ़िर चाहे वो 60s का ज़माना ही क्यों न हो, लेकिन ये भी सच है कि हर दौर में ऐसे कलाकार रहे हैं जो उस धारा से अलग काम करते रहे हैं, और वही लोग हमेशा ज़िंदा रहते हैं। 80 के दशक में जब मुख्य धारा में “मवाली”, “खून खराबा” जैसी फ़िल्में बन रही थीं, और थोक में बन रही थीं तब एक गुलजार “इजाज़त” और “लेकिन” बनाकर अमर हो गए। बाकी फ़िल्में किसने बनाई थीं, कोई अता-पता नहीं। रंगीला कई मायनों में पहली फ़िल्म थी। रामगोपाल वर्मा के लिए ये पहली कमर्शियल सफलता थी, इससे पहले हिन्दी में वे “रात” और “द्रोही” बना चुके थे पर उन्हें सिर्फ़ क्रिटिक्स की तारीफ़ें मिली थीं। ये ए आर रहमान की पहली हिन्दी फ़िल्म थी। इससे पहले की उनकी सारी फ़िल्में dub थीं। कॉस्ट्यूम डिज़ाइनर मनीष मल्होत्रा का करियर इसी फ़िल्म ने बनाया, choreographer अहमद ख़ान इसी फ़िल्म से स्थापित हुए, रेमो डी सूजा “याई रे” गीत में पीछे नाच रहे थे। इसके अलावा, आशा भोंसले को एक बार फिर मुख्य धारा में इसी के गीतों ने स्थापित किया था जिससे उनका करियर और कई सालों के लिए बढ़ गया था। और उर्मिला मातोंडकर, इसी फिल्म से एकाएक सनसनी बन गई थी। उनका sizzling अवतार छा गया था। 

मुझे याद है, जब इसके रिलीज़ से पहले इसकी कहानी के बारे में मैंने कहीं पढ़ा था और पता चला था कि एक किरदार टपोरी का है और एक अमीर आदमी का तो मैंने अंदाज़ा लगाया था कि टपोरी तो जग्गू दादा ही हो सकते हैं क्योंकि वो ये किरदार कई बार कर चुके थे और आमिर की इमेज तब तक एक चॉक्लेटी हीरो की थी, उन्होंने ऐसा किरदार पहले कभी नहीं किया था। पर जब फ़िल्म देखी तो बिलकुल उल्टा था। और दाद देनी पड़ेगी निर्देशक के vision की कि बिलकुल सही सोचा था। आमिर ने कमाल ही कर दिया टपोरी के किरदार में और जग्गू दादा का हैंडसमत्व जो निखर कर आया है उसने आग ही लगा दी है। और उर्मिला तो है ही इस फिल्म की जान। बिलकुल फ्रेश, खूबसूरत, मासूम...ऐसा लगता है मिली का रोल उन्हीं के लिए बना था। तो ये तय रहा कि कास्टिंग एकदम पर्फेक्ट थी। यहाँ तक कि पक्या ने भी आमिर को बराबर की टक्कर दी थी। और तो और मोतीलाल भी अपने कैरक्टर में था।
रंगीला एक प्रेम कहानी है, और थोक के भाव में प्रेम कहानियाँ बनाने वाले बॉलीवुड में ऐसी प्रेम कहानियाँ गिनती की ही होंगी। प्रेम कहानियों का टेंप्लेट सदियों से वही है,और उससे अलग कुछ हो भी नहीं सकता। बिलकुल ऊपरी तौर पर देखें तो एक हीरो, एक हीरोइन और एक विलन, विलन कोई इंसान भी हो सकता है या कोई परिस्थिति। एक और परिस्थिति प्रेम त्रिकोण की होती है, जो रंगीला की कहानी है। लेकिन जो कहानी शिद्दत से कही जाये, अपने समय काल का ध्यान रखते हुए, authentic हो, वो हमेशा अच्छी ही लगती है, चाहे वो कोई भी genre हो। रंगीला अपने कथ्य में ईमानदार है, उसमें वास्तविकता है। उसके किरदार आसमानी नहीं, अपने आसपास के लगते हैं। उनके घरों में वही पीतल के बर्तन, टेबल फैन और एल्युमिनियम का कूकर है। कहानी वैसे तो सबको पता ही है फिर भी एक बार quick रिवीजन कर लेते हैं। मुन्ना एक अनाथ लड़का है जो मिली के परिवार के सदस्य की तरह है। मुन्ना फ़िल्मों के टिकिट ब्लैक करने का काम करता है। ये काम अब हमारी धरोहर हो चुका है, क्योंकि नई पीढ़ी को समझ नहीं आएगा कि ये क्या माजरा है। मिली और मुन्ना अक्सर लड़ते-झगड़ते रहते हैं लेकिन मुन्ना दिल ही दिल में मिली को प्यार करता है। मिली एक्ट्रेस बनना चाहती है और किस्मत से उसे ये मौका मिल जाता है। वो एक दिन बीच पर डांस की प्रैक्टिस कर रही है तभी फिल्म स्टार कमल का वहाँ आना होता है, वो उसे देखकर देखता रह जाता है। बस इस फिल्म में यही एक सवाल अनुत्तरित रह गया कि मिली से कुछ ही दूर बैठकर वो उसे नाचते देख रहा है, मिली का चेहरा भी उसकी तरफ ही है पर वो उसे देख नहीं पाती। ख़ैर, कमल उसे recommend करता है अपनी फ़िल्म में और मिली की किस्मत रातोंरात बदल जाती है। मुन्ना इस बीच उसे अपने दिल की बात बताने की बहुत कोशिश करता है पर बता नहीं पाता। उधर फ़िल्म स्टार कमल को भी उससे प्यार हो जाता है, वो भी उसे शादी के लिए प्रपोज़ करने के बारे में सोच रहा है। ये वो ज़माना था जब लड़की को प्रपोज़ करना पहाड़ खोदने जितना कठिन हुआ करता था, लड़के हिम्मत नहीं कर पाते थे। आगे की कहानी इसलिए नहीं बताऊंगा कि यदि किसी ने न देखी हो तो spoil न हो। 

कहानी को ह्यूमर के साथ गूँथा गया है और क्या कमाल का ह्यूमर है। तथाकथित कॉमेडी फ़िल्में भी हँसाने में नाकामयाब रहती हैं पर ये फ़िल्म गुदगुदाती रहती है और इसका पूरा जिम्मा आमिर ने लिया है। कमाल के सीन लिखे हैं और उससे भी ज़्यादा कमाल से आमिर ने perform किए हैं। न सिर्फ़ कॉमिक बल्कि emotional सीन भी इतनी शिद्दत से निभाए हैं कि आप ख़ुद दुखी हुए बिना नहीं रह सकते। मिसाल के तौर पर जब मिली कहती है कि उसकी सफलता सिर्फ़ कमल जी के कारण है तब जो लुक आमिर देते हैं, उफ़्फ़! आज भले उन्हें उतना नहीं माना जाता लेकिन इतिहास ज़रूर उन्हें महान अभिनेता के रूप में याद रखेगा। ऐसी ही सिचुएशन जैकी श्राफ़ के साथ भी बनती है लेकिन आपको अभिनय का अंतर साफ़ नज़र आएगा, उन्हें भी सिर्फ़ एक लुक से ही सब दिखाना था लेकिन जो excellence आमिर के भावों में थी वो जैकी के चेहरे पर नहीं आ पाई, हालाँकि जैकी को भी मैं एक अच्छा एक्टर मानता हूँ। जैकी के पास जो है, और आज भी है, वो और किसी के पास नहीं, “perfect persona”। उस जमाने में उन्हें इंडस्ट्री का सबसे सेक्सी हीरो कहा जाता था। हाय रामा गीत में रेत के बैक्ग्राउण्ड में काले कपड़े पहने जैकी dashing लगते हैं। उर्मिला जस्ट पर्फेक्ट हैं मिली के किरदार में। इस फ़िल्म में उनके कम कपड़े और हाय रामा गीत उस समय चर्चा का विषय थे। हालाँकि आज के दौर के लिहाज से अब उनमें ऐसा कुछ नहीं था। रीमा लागू उस दौर की सबसे हिट माँ थी, और जँचती भी थी। और पक्या (राजेश जोशी) ने तो धूम ही मचा दी थी, पर अफसोस, सिर्फ़ 3 सालों बाद ही एक दुर्घटना में राजेश जोशी की मृत्यु हो गई। ये राजेश जोशी, अभिनेता मनोज जोशी के छोटे भाई थे पर मनोज जोशी का फिल्मों में पदार्पण बाद में हुआ। 

ये शायद रामगोपाल वर्मा की इकलौती प्यारी फ़िल्म है, बाकी समय वे वीभत्स रस में डूबे रहे। इस फ़िल्म में वे फुल फ़ॉर्म में हैं, हालाँकि weird camera angles के लिए उनका obsession इसमें भी कहीं कहीं नज़र आता है, जो आगे चलकर पागलपन की हद तक बढ्ने वाला था। बल्कि इसके तुरंत बाद ही उन्होंने “दौड़” जैसी वाहियात फ़िल्म बना डाली थी। लेकिन ये दौर ऐसा था कि उनके सहायक भी बेहतरीन फ़िल्में बना रहे थे जिन्हें प्रोड्यूस वर्मा ही कर रहे थे, जैसे “रंगीला” को एडिट करने वाले “ई निवास” ने उनके लिए “शूल” बनाई, जिसे सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। 

रंगीला का स्क्रीनप्ले रामगोपाल वर्मा का ही था पर संवाद “नीरज वोरा” और “संजय छैल” ने लिखे थे। इन दोनों ही ने आगे चलकर स्वतंत्र निर्देशन किया। कैमरा वर्क बढ़िया है और lights का उपयोग दक्षिण की फ़िल्मों की ही तरह है। वहाँ ज़्यादा ब्राइट lights use होती हैं। संगीत का तो कहना ही क्या, आज भी जब “याई रे” गीत शुरू हुआ तो Goosebumps आ गए। गाने कहीं भी जबर्दस्ती घुसाए हुए नहीं लगे, बल्कि गीत इतने अच्छे हैं कि फ़िल्म की वैल्यू कई गुना बढ़ा देते हैं। और मज़े की बात ये है कि रामगोपाल वर्मा रहमान को लेकर असमंजस में थे। उन्हें रहमान का नाम मणि रत्नम ने सुझाया था। वर्मा उन्हें लेकर गोवा गए म्यूजिक सिटिंग के लिए और जब उन्होंने "हाय रामा" की धुन सुनाई जो राग "पूरिया धनश्री" पर आधारित थी, तो वर्मा को अजीब लगा, क्योंकि सेन्सुयस सिचुएशन के लिए, और वो भी 90s में राग आधारित गीत कैसे चलेगा? उन्होंने एक बार मणि रत्नम को फोन किया और फिर से पूछा कि ये आदमी अच्छा तो है न? मणि रत्नम ने उन्हें assure किया, तब वे आगे बढ़े। और नतीज़ा? उनका आज तक का सबसे अच्छा फैसला था वो। हालाँकि इसके बाद उनकी संगीत से दुश्मनी हो गई, और उन्होंने संगीत को गैर ज़रूरी मान लिया। 


इस फ़िल्म को सबसे ज़्यादा nomination मिले थे फ़िल्मफेयर अवार्ड्स में जिसमें बेस्ट एक्टर का भी शामिल था पर उस साल का अवार्ड आमिर की बजाय शाहरुख को मिल गया था फ़िल्म “दिलवाले दुलहनियाँ ले जाएँगे” के लिए। रंगीला भी अच्छी लगी थी लेकिन मैंने डीडीएलजे उस वक़्त 6 बार देखी थी, पर आज अगर देखना हो तो आधी भी न झेल पाऊँ। वो समय था ऐसी छिछोरी फ़िल्मों का और छिछोरे हीरो को स्टार बनाया था शाहरुख ने। अब देखिए ना, रंगीला का मुन्ना टपोरी होकर भी छिछोरा नहीं है पर ddlj का राहुल अमीर होकर भी छिछोरा है। अवार्ड्स तो हमेशा क्वालिटी पर ही दिये जाने चाहिए और उस मामले में निस्संदेह रंगीला के आमिर, डीडीएलजे के शाहरुख पर कई गुना भारी हैं। अफ़सोस ये भी है कि डीडीएलजे की सफलता ने वैसी ही फ़िल्मों की बाढ़ ला दी और उन्हें बनाने वाले निर्देशक टॉप पर पहुँच गए। 

एक कमर्शियल फ़िल्म कैसी होनी चाहिए ये 90 के दशक में रामगोपाल वर्मा, राजकुमार संतोषी मणि रत्नम जैसे निर्देशकों ने बताया था पर बोलबाला हमेशा mediocrity का ही होता है। 

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टिप्पणियाँ

  1. बेनामी6:42 pm

    बेबाक समीक्षा !
    इस प्रकार की समीक्षा हमे फिल्म के अन्तसमन से जोड़ती है ! वाह क्या खूब लिखा है आपने ! आज की रात एकबार फिर रंगीला के नाम--!!

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया। आप अगर रंगीला देखते हैं फिर से तो इस लेख की इससे बड़ी सफ़तला नहीं हो सकती।

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  2. क्या कमाल रिव्यू लिखा आपने। ख़ासतौर पर डीडीएलजे और रंगीला पर एकदम परफेक्ट लिखा है।

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  3. बेनामी2:51 am

    फिल्म बचपन में देखने के बाद दूसरी बार ७ महीने पहले देखी थी और यही अनुभव किया कि क्या गजब कालजई फिल्म बनाई है । अब देखने पे फिल्म के हर डिपार्टमेंट का क्वालिटी वर्क समझ आया अच्छे से और तब के दौर में भी लोगों ने बस सेंसेशन के लिए ही पसंद किया होगा पर उस चीज को हटा भी दे तो भी फिल्म सबसे ऊपर आयेगी मनोरंजन, भाव, निर्देशन के मामले में ।

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  4. BlogSpot ज़िन्दा है?
    बेहतरीन लेख.

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  5. बेनामी11:14 am

    फिल्म के क्लाइमेक्स मे टॉकीज मे दर्शको द्वारा खूब सिटी और तली बजी थी वो आज भी याद है और उस खुशी मे मै भी शामिल था...बहुत खूब लिखा भाई।

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  6. बेनामी11:21 pm

    👌 👌 excellent

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