पुष्पा - द राइजिंग



भारत में नंबर वन पर ट्रेंड कर रही है फ़िल्म और फ़ेसबुक और इतर स्थानों पर लोग आपस में भिड़ रहे हैं कि बॉलीवुड अच्छी फिल्में क्यों नहीं बनाता? कैसे बनाये भाई लोग, तुम बोलता कुछ है, देखता कुछ है हांय! हालाँकि अच्छी फिल्में बन रही हैं। आज जिस तरह की फिल्में बन रही हैं, 15 साल पहले कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। पर उन्हें देखने वाले अब भी कम हैं, वरना अक्षय कुमार एक फ़िल्म के 30 करोड़ नहीं ले पाते।

खैर, पुष्पा बहुत कोशिश करके भी मैं आधे घंटे से ज़्यादा नहीं झेल पाया, और वो भी उस समय जब मैं ऐसी मानसिक स्थिति में था कि कोई गंभीर फ़िल्म देख ही नहीं सकता था, मुझे escape चाहिए था। शायद इसीलिए मैंने पुष्पा लगाई। मुझे मसाला फ़िल्म ही देखनी थी पर उस पैमाने पर भी ये फ़िल्म फ़ेल रही। मेरा दिमाग और खराब हो गया। फ़िल्म का premise ही flawed है। कैरक्टराइजेशन में मेजर प्रॉब्लेम्स हैं। कैरक्टर का कोई स्टैंड नहीं है, कोई morality नहीं है, कोई खूबी नहीं है। एक बिलकुल ही कचरा टाइप का इंसान है जिसे हीरो बनाने की कोशिश की गई है।

फ़िल्म के पहले ही सीन ने निराश कर दिया, हालाँकि दृश्य अच्छे थे, खासकर ड्रोन शॉट्स। पुष्पा ट्रक में लकड़ी लेकर भाग रहा है। पुलिस पीछा कर रही है। बहुत देर तक भागने के बाद पुष्पा रुक जाता है। पुष्पा एक पुलिस वाले को पटक कर पैसा ऑफर करता है। दूसरा पुलिस वाला दौड़कर उसकी कोलर पकड़ कर पता है क्या कहता है? "पुलिस को रिश्वत देता है?" बताइये, कितना हास्यास्पद संवाद है। और हाँ, इसके पहले जब फ़िल्म शुरू होती है, एनिमेशन चलता है जिसके पीछे एक आवाज़ सूत्रधार का काम कर रही है। पहले तो ये आवाज़ सूत्रधार बनने के काबिल ही नहीं है, वो वॉइस क्वालिटी ही नहीं है, उस पर भी इतना गंदा बोला है, कोई उतार-चढ़ाव नहीं, ही शब्दों का उच्चारण सही है, ही भाव संप्रेषित हो पा रहे हैं। टैस्ट वहीं से खराब होने लगता है। यूं ही नहीं किसी ज़माने में सूत्रधार के लिए ओमपुरी या अमिताभ बच्चन को लिया जाता था। सूत्रधार की ज़िम्मेदारी होती है सिर्फ आवाज़ के दम पर दर्शकों को बाँध लेने की। ख़ैर, इसके बाद फाइट है जो साउथ की फिल्म में हर 3 मिनट में आए तो मेकर को बद हज़मी हो जाती है। तो पुलिस वाले जब बता चुकते हैं कि इस पृथ्वी पर उनसे ज़्यादा ईमानदार और सन्यासी टाइप प्रॉफ़ेशन और कोई नहीं तो फिर मारपीट शुरू होती है। पुष्पा का पीछा करते 2- गाडियाँ भर के पुलिस वाले रहे थे पर जब मारपीट होने लगी तो जैसे कंट्रोल की दुकान पर राशन लेने आए हों, एक एक करके जाने लगे। पुष्पा जब एक की हड्डियाँ तोड़ चुका होता है, तब नैक्सट दौड़कर आता है। ऐसे एक-एक करके सब अपनी ताक़त आजमाते हैं, अलग-अलग। फिर जब सब धरती सूंघ रहे हैं तब आखरी बचे सबसे हट्टे-कट्टे पुलिस वाले को याद आता है कि अरे, अपन को तो सरकार ने बंदूक दे रखी है। बंदूक निकालने के बाद ही उसे याद आता है कि इसमें तो गोली भी भरनी होती है। ये सारा कर्मकांड करने के बाद वो एक बार गोलियां घुमाता है और पुष्पा पर तान देता है। पुष्पा मारते-मारते रिश्वत की राशि बढ़ाता रहता है। जीप में वो पर हैड एक लाख देने की बात करता है तब सबकी साँस रुक जाती है।

पुष्पा मिल में नौकरी करता है। मिल मालिक के आने पर भी ऐश से बैठा पाव ठूँसता रहता है। मजदूर को भी सम्मान मिलना चाहिए ये सिद्धान्त सही है पर ये मजदूर किसी को सम्मान नहीं देना चाहता। सम्मान शिष्टाचार में भी आता है, सिर्फ शोषण का ही नज़रिया नहीं होता। पर पुष्पा का कैरक्टर अपन को अलग बनाने का है इसलिए अपुन उसको आइसाइच बनाएगा।

अगर इरादा एंटी-हीरो दिखाने का भी है तो ये सिर्फ एंटी बन पाया, हीरो नहीं। एंटी हीरो का भी एक मोटिवेशन होता है जिसे justify करना होता है। ये आदमी ऐसा ही है, इसमें हीरोइक कुछ नहीं। 

अरे हमको भी मसाला फिल्में अच्छी लगती हैं, हम थोड़ी गिरीश कर्नाड की आर्ट फिल्में देखते रहते हैं 24 घंटे, पर कुछ कायदे का तो हो। मतलब मसाला भी डालते हैं तो हर चीज़ की एक क्वांटिटी होती है, ऐसा थोड़ी कि एक प्लेट सब्जी में 1 किलो अदरक डाल दिया। वो लकड़ी की तस्करी करने जाता है पर बातें ऐसे करता है जैसे मजदूरों के शोषण के खिलाफ क्रांति कर रहा हो, वो लोगों को एक होने का पाठ पढ़ाता है, पर गलत के खिलाफ़ नहीं, गलत करने के लिए। वो अराजकता का प्रतीक है। अगर उसे हीरो मानकर उसके सिद्धान्त पर दुनिया चलाई जाये तो एक बार फिर कबीले बन जाएँ। दुनिया एक बड़ा यू टर्न ले ले। इंसान विकासक्रम में हजारों साल पीछे चला जाये। ये पुष्पा अपनी माँ का कर्ज़ उतारने के लिए उसकी भैंस बेच आता है, सीधे रास्ते काम करने की बजाय चोरी-चकारी करने लगता है और यही हीरो है।

नंबर वन है क्योंकि ये देश अब ऐसे ही हीरो चुन रहा है जो कर्ज़ उतारने के लिए घर में बँधी दुधारू भैंस बेच देते हैं।

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