तुमसे न हो पाएगा - सच कहा भाई


 डिज़्नी हॉटस्टार पर नई फ़िल्म आई है। यूं ही कुछ चेंज के लिए लगा ली। प्रॉडक्शन सिद्धार्थ रॉय कपूर, RSVP जैसे बड़े लोग, जो हम जैसों को मिलने का वक़्त भी नहीं देते। अपना जो अनुभव है कहानियाँ सुनाने का, उससे लगा कि भाई इन लोगों ने कहानी पास की है तो कुछ बवंडर ही होगा। इसीलिए देखना शुरू की।

कहानी तो अपने जीवन के जैसी ही है। हम भी आईटी इंजीनियर थे, रोज़ पैरों को जबर्दस्ती घीस-घीस कर ऑफिस ले जाते थे। वहाँ मैनेजर, टीम लीडर की शक्लें देख कर उनके मुंह पर ही उल्टी कर देने का मन करता था। उन उल्टियों को सात सालों तक पेट में ही इकट्ठा करते रहे और एक दिन स्वतन्त्रता दिवस आया। पर उससे आगे का रास्ता अपने तबीयत से बजने का था। तो कहने का आशय ये है महाशय के इस कहानी को हमने जिया हुआ है और इसे जितना वाहियात और superficial तरीके से बनाया जा सकता था उसमें इस फ़िल्म के लेखक निर्देशक ने कोई कसर नहीं छोड़ी है। काहे? क्योंकि इनको कॉमेडी का भी कीड़ा था। इनको इस “स्वयं की खोज” की कहानी में माँ का बघार लगाना था और उस पर दोस्ती का खड़ा मसाला भी डालना था। कमी थी तो उसमें बटर भी डाल दिया बाल्टी भर कर, लड़की का एंगल जोड़ कर। अरे हाँ, आजकल तो सोशल मीडिया का ज़माना है, उस पर satire भी तो बनता ही है। उस पर बेवजह गालियां ही गालियां, इतनी और ऐसी जगहों पर जहां हम असल ज़िंदगी में भी नहीं बकते।


ख़ैर, कहानी यूं है कि गौरव को उस जॉब से निकाल दिया जाता है जो वो मेरी तरह ही घिस घिस कर कर रहा था। ये नौकरी से निकालने वाला sequence भी बहुत ही कृत्रिम लगता है। घर में माँ है, बहुत ही सीधी-सादी। अरे हाँ, ये माँ का रोल “आमला” ने क्यों किया है यार? और कितनी दयनीय दिख रही हैं एक ज़माने की खूबसूरत और ग्लैमरस अभिनेत्री। चलो आगे बढ़ते हैं। गौरव के दो और दोस्त हैं जो उसी की तरह है लेकिन अपनी नौकरी से उस दर्ज़ा परेशान नहीं हैं जितना गौरव। अब इन तीनों का एक और दोस्त है जो बचपन से इनसे हमेशा आगे रहता है, अपनी लाइफ में बहुत सक्सेसफुल है, उसकी टिपिकल मम्मी है जो अपने गौरव की मम्मी को हमेशा गौरव को लेकर शर्मिंदा करती रहती है। अब यहाँ आ जाता है सदियों से “ओवर hyped” “माँ के हाथ का खाना”। एक बात तो बताइये, जिन लड़कियों के हाथ का खाना बहुत ख़राब होता है वो माँ नहीं बनती या माँ बनते ही खाना बनाना सीख जाती हैं? तो इस खाने से गौरव को बिज़नेस आइडिया आता है, डब्बे का बिज़नेस। तो इनका कोर आइडिया है माँ के हाथ का खाना देंगे। मैं जब कॉलेज में पढ़ता था, तो मेस में खाना खाया, एक नहीं बहुत सी, और वहाँ खाना बनाने वाली महिलाओं के भी बच्चे थे, मतलब वे भी माँ थीं। और सच बता रहा हूँ, उन जगहों पर खा-खा कर मेरा खाने पर से ही भरोसा उठ गया था। अगर आप ये तर्क देंगे कि अपनी माँ के हाथ का ही अच्छा लगता है तो फिर इनका बिज़नेस आइडिया ही धराशायी हो जाता है।


तो गौरव को अच्छे दोस्त मिलते हैं, अच्छी गर्ल फ्रेंड मिलती है, अच्छी चाचियाँ मिलती हैं, जो उसे रोज़ खाना बनाकर देती हैं, और अच्छे बिज़नेसमैन मिलते हैं जो इनको फंड देने के लिए ही कमा रहे हैं। कम ऑन मैन, इतना आसान कुछ नहीं होता ज़िंदगी में। ज़िंदगी परी कथा नहीं है। जितनी रोज़ी पिक्चर इसमें दिखाई गई है वैसी तो बिलकुल भी नहीं है। यहाँ दोस्त की सफलता पर दिन रात साथ रहने वाले दोस्त ही बुरा मान जाते हैं, यहाँ परिवार एक निरंतर संघर्ष का मैदान है। समाज गिद्ध भोज के लिए लाली पाउडर लगा कर हर वक़्त तैयार है।


उफ़्फ़, चलिये कुछ अच्छी बातें करते हैं। फ़िल्म में performances अच्छे हैं। दोनों दोस्तों के आपस में टकराव का सीन अच्छा बना है। गौरव के रोल में ईश्वक सिंह ने अच्छा काम किया है। जाने क्यों मुझे पूरी फ़िल्म में मुझे ऐसा लगता रहा कि मैं इसे जानता हूँ। वे पाताल लोक में भी थे, शायद इसलिए। फ़िल्म में जो ट्विस्ट है उसका विचार अच्छा है कि इंसान अच्छा काम करके बनता है और फिर बनने के बाद वो काम की क्वालिटी में समझौता कर लेता है। लेकिन इस विचार का execution फिर से कमज़ोर है।


फ़िल्म में दो बार ट्विस्ट आते हैं, और एक बार तो ऐसा ट्विस्ट आता है कि भाई लोग होर्वर्ड पहुँच जाते हैं लैक्चर देने। मेरे जीवन में वो पल कब आएगा रे देवा?


हालांकि फ़िल्म का कोर मैसेज अच्छा है कि “आप सफ़ल हैं या नहीं ये सिर्फ़ आप तय करेंगे” आपके पड़ोसी या वो चार लोग नहीं जो बचपन से आपकी हर हरकत पर नज़र रखे हुए हैं। जैसे मैं कभी हुआ करता था आईटी इंजीनियर और अगर बना रहता तो बहुत कुछ होता मेरे पास, शायद अपने मित्रों की तरह “सफ़ल” हो जाता और किसी अन्य देश में सैटल भी हो जाता पर सिर्फ़ वही एक पैमाना तो नहीं है सफ़ल होने का?


ख़ैर, कुल मिलाकर एक औसत फ़िल्म है। ऐसी भी नहीं है कि झेली न जाये। विषय ऐसा था कि बिना गालियों के और अच्छी लगती। कहीं-कहीं तो बहुत ही घटिया हो जाती है भाषा जैसे एक सिचुएशन में एक खाना बनाने वाली चाची ने मेनू में “गट्टे की सब्जी” को “गोटे की सब्जी” लिखा है और दूसरी वाली चाची बहुत ही वाहियात कमेंट पास करती है जो फॅमिली चैनल होने के कारण मैं पोस्ट नहीं कर सकता।


आईटी की जॉब को भी गहराई के साथ नहीं दिखाया है। अच्छे लेखक के हाथ में कहानी और भी निखर कर आती पर ठीक है, बिलकुल फुर्सत में हैं तो देख सकते हैं।


और संगीत का तो भिडु पूछना ही मत मेरे से, दिमाग घूम जाएगा।


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