सिनेमा सिटीजन केन के बहाने

 

Citizen Kane दुनिया की सबसे बेहतरीन फिल्मों में शुमार की जाती है। फिल्म मेकर्स के लिए फिल्म एक टेक्स्ट बुक की तरह है जिसे देखकर फिल्म मेकिंग की बारीकियाँ समझी जाती हैं।

सिनेमा की अपनी भाषा,अपना व्याकरण होता है। ओरसन वेल्स ने उस जमाने में इस भाषा के साथ क्रांतिकारी प्रयोग किए थे। तब तक फिल्मों को दर्शकों के लिए समझने में आसान रखा जाता था। लेकिन वेल्स ने इस फिल्म के जरिये दर्शकों की आँख, कान और दिमाग तीनों को चुनौती दी थी। फिल्म के संवाद higly realistic थे। आश्चर्य की बात ये है कि ये वेल्स की पहली ही फिल्म थी। वेल्स ने इस के बाद The Magnificent Ambersons बनाई जिसमें अपनी वही स्टाइल जारी रखी।

जिस फिल्म को आज तक किताब की तरह पढ़ाया जाता है वो फिल्म उस वक़्त फ्लॉप हो गई थी। बल्कि वेल्स की ये दोनों फिल्में व्यावसायिक रूप से असफ़ल रहीं जिसकी वजह से उन्हें थ्रिलर्स की तरफ मुड़ना पड़ा हालाँकि उन थ्रिलर्स पर भी उनकी छाप थी पर ये वो सिनेमा नहीं था जो वो बनाना चाहते थे।

अब आते हैं आज की बात पर। मैंने अपने लेख में वेब सिरीज़ मिर्ज़ापुर की आलोचना की थी जो कुछ पाठकों को बुरी लगी। मिर्ज़ापुर के पहले सीज़न को डाइरैक्ट किया था करण अंशुमन ने। करण अंशुमन पहले मिरर में फिल्मों के review लिखते थे और उन थोड़े से समीक्षकों में थे जो निष्पक्ष रूप से समीक्षा करते हैं और जिनकी फिल्मों के बारे में समझ अद्वितीय है। मैं उनकी हर समीक्षा पढ़ा करता था। फिर यूं हुआ कि उनकी समीक्षा आनी बंद हो गई। बाद में पता चला कि वे अपनी खुद की फिल्म बना रहे हैं। वो फिल्म थी “Bangistan” जो 2015 में रिलीज़ हुई थी। फिल्म एक डार्क कॉमेडी थी जिसका कुछ उद्देश्य था। कारण अपनी समीक्षाओं में जो बातें करते थे,उसी आदर्श सिनेमा को ध्यान में रखकर उन्होने बनाया होगा। “होगा” इसलिए कह रहा हूँ कि मैं ये फिल्म अब तक नहीं देख पाया। पर फिल्म पिट गई। लंबे समय तक उनकी दूसरी कोई फिल्म नहीं आई।

उनकी पहली सिरीज़ थी “Inside Edge”। उसके बाद आई मिर्ज़ापुर। पैटर्न देखा आपने?जैसा वेल्स के साथ हुआ था। उद्देश्य से निरुद्देश्यता की ओर पलायन। मैं फिर कहूँगा,मिर्ज़ापुर लुगदी है। रियलिज़्म के नाम पर गंदगी है। इसकी Gangs of Wasseypur से तुलना करना वस्सेयपुर की तौहीन है।

पश्चिम का दर्शक अंततः mature हो गया पर हम नहीं हो पा रहे हैं। फिल्म बनाना अत्यंत महंगा और बेहद मेहनत का काम है। जो फिल्म मेकर्स अच्छा काम करना चाहते हैं उन्हें या तो मौका ही नहीं मिलता या एकाध फिल्म के बाद गुमनामी में चले जाते हैं या फिर समझौता करके मिर्ज़ापुर बनाने लगते हैं। अब भी आप रेकॉर्ड देखेंगे तो वाहियात फिल्मों का बिज़नस करोड़ों में होता है और कई अच्छी फिल्में डब्बा बंद ही रह जाती हैं क्योंकि उन्हें रिलीज़ करने का रिस्क कोई लेना नहीं चाहता, क्योंकि दर्शक अच्छी फिल्में देखना नहीं चाहता। उसे मिर्ज़ापुर में अपने सेंसेस को सहलाना बहुत अच्छा लग रहा है तो फ़िल्मकार भी वही कर रहा है...वो आदमी को ज़िंदा जलाकर दिखाता है, औरत के साथ नौकर दिखाता है...कहता है realistic है और दर्शक इसे defend करने के लिए सबसे भिड़ जाता है।

भक्ति,ज़रूरी नहीं कि सिर्फ राजनीति में ही हो...वो हमारे डीएनए में है। हम किसी के भी भक्त हो जाते हैं। अपने से ज़्यादा जानने वाले व्यक्ति की बात सुनकर निष्पक्ष रूप से समीक्षा करना, कि कहीं मेरी ही इन मामलों की समझ कम तो नहीं पड़ रही?, हमारे इगो को हर्ट करता है।

हमें अच्छी फिल्मों, अच्छी किताबों, अच्छे संगीत को समझना सीखना होगा। जब हम माँग करेंगे तो पूर्ति होगी। एक जमाने में लड़कियाँ साहिर लुधियानवी का फोटो तकिये के नीचे रखती थीं तो सोचिए किस स्तर की समझ होगी लोगों में तभी न संगीत में वो काम हुआ जो फिर कभी नहीं हुआ। आप जो देखना, सुनना चाहेंगे वही आपके सामने परोसा जाएगा।


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