दो मासूम फ़िल्में - रघु रोमियो, चमन बहार

 


अगर वीभत्सता के अतिरेक से घबरा गए हैं, इंसान के अंदर की अंधेरी गुफाओं के चक्रव्यूह में फँस गए हैं तो दो सुझाव देता हूँ। आपके ज़ेहन को दुरुस्त कर देंगे। 

हालाँकि ये फिल्म मैंने तभी देखी थी जब 2003 में रिलीज़ हुई थी पर इतने बरसों में सिर्फ उसकी थीम ही याद रही थी। कुछ दिनों पहले फिर से देखी और शायद पहले से ज़्यादा मज़ा आया। अद्भुत फिल्म है। क्यों ऐसी फ़िल्में नहीं देखते लोग? 

विजय राज़ फिल्म के नायक हैं और ये "रन" से पहले की फिल्म है इसलिए निर्देशक रजत कपूर को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होने उन्हें केंद्र में रखकर फिल्म बनाई। 

फिल्म की कहानी है रघु की जो एक डांस बार में वैटर है। उसे एक टीवी एक्ट्रेस से मोहब्बत हो जाती है। वो इतना भोला है कि उसे ये पता ही नहीं है कि टीवी पर जो मीता के नाम से नज़र आती है वो असल में रेशमा है। कहानी कुछ ऐसा मोड लेती है कि वो उस एक्ट्रेस को किडनैप कर लेता है। कहानी और नहीं बताऊंगा, आप खुद देखिये। फिल्म हल्की भी है और गहरी भी। समाज की गंदगी दिखाने आप कपड़े उतार कर उसमें उतर जाएँ ज़रूरी नहीं। 

सबसे खूबसूरत बात मुझे ये लगी कि फिल्म का हर एक पात्र मासूम है, यहाँ तक कि सुपारी किलर भी हद दर्जे का मासूम है। 

फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है। रजत कपूर की अपनी एक टीम है जिसके साथ वे इसी तरह की छोटी-छोटी मगर बेहतरीन फ़िल्में बनाते रहते हैं। इतिहास उन्हें ज़रूर अंडरलाइन करेगा, वर्तमान शायद कोई नोटिस नहीं ले रहा। सोचने वाली बात ये है कि विजय राज़ के साथ उन्होने इसके बाद कोई फिल्म नहीं बनाई जबकि संजय मिश्रा, रणवीर शौरी के साथ वे कई फ़िल्में कर चुके हैं। उस वक़्त रैप का चलन नहीं था पर इस फिल्म में एक रैप सॉन्ग भी है। 

मस्ट वॉच है, यूट्यूब पर उपलब्ध है और अमज़ोन प्राइम पर भी। ज़रूर देखिये। 

दूसरी फिल्म जो आज ही देखी वो है - चमन बहार। 



indie फ़िल्में आजकल पूरी तरह छोटे कस्बों को समर्पित हैं। यूपी, बिहार से लगभग अजीर्ण हो चुका है तो इस फिल्म में छत्तीसगढ़ पर नजरे-इनायत की गई है। फिल्म एक निम्न वर्गीय लड़के की कहानी है जो जिला मुख्यालय सड़क पर पान की दुकान खोलता है मगर कुछ ही दिनों में जिला बदल जाता है और सड़क सुनसान हो जाती है। उस पर फिर बहार आती है जब दुकान के ऐन सामने एक परिवार रहने आता है जिसमें एक बेहद खूबसूरत लड़की भी है जो हाइ स्कूल में पढ़ती है। उसके मजनूँ इस पान की दुकान पर डेरा डाले रहते हैं। इसी केंद्रीय विचार पर बहुत ही प्यारी कहानी गढ़ी गई है। फिल्म के पात्र सभी अपने आसपास के ही लगते हैं। कोई रहस्यमय नहीं है पर चरित्र सबके उजागर किए गए हैं। एक मासूम सी प्रेम कहानी है जिसमें आज के समाज को सही तरीके से सामने रखा गया है। फिल्म अपने आसपास ही घटित होती महसूस होती है, कोई ऐसा पात्र नहीं है जिसके लिए आपको कल्पना करनी पड़े। गोलियां नहीं चल रही, चमकीला रोमैन्स नहीं हो रहा। टुच्चाई, चाहे वो रिश्तों में हो, दोस्ती में, समाज में या लोकल राजनीति में, अच्छी तरह से रेखांकित की गई है। एक बात जो कही नहीं गई है लेकिन शिद्दत से महसूस होती है वो ये कि एक लड़की का जीना कितना कठिन होता है, खास तौर पर अगर वो खूबसूरत भी है। 

जितेंद्र कुमार आज के दौर के अमोल पालेकर बनने की राह पर हैं। एक आम दबे-कुचले आदमी की भूमिका में पूरी तरह फिट हो जाते हैं। 

फिल्म नेट्फ़्लिक्स पर उपलब्ध है। 

दोनों फ़िल्में unusual लव स्टोरीस हैं। पर प्रेम ही शास्वत है, जब गोली-बारी से आजिज़ आ जाएंगे तो फिर वही छांव सुकून पहुंचाएगी।

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टिप्पणियाँ

  1. शुक्रिया मित्र, आप इसी तरह लिखिए और हमारे लिए फिल्में सजेस्ट करते रहिए।

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