भावेश जोशी - सुपर से नीचे वाला हीरो

 

अनुराग कश्यप जैसा लेखक और विक्रमादित्य मोटवाने जैसा निर्देशक जिसने "उड़ान" और "लुटेरा" जैसी फ़िल्म बनाई हो, और फिर भी फिल्म कब आई, कब गई किसी को पता ही नहीं चला। ऐसा जलवा है हमारे हर्षवर्धन कपूर का। 

"भावेश जोशी सुपर हीरो" के पीछे इरादा अच्छा और मेरा जहां तक ख्याल है,बड़ा था। अगर ये फिल्म हिट होती तो अपना एक देसी हीरो चल पड़ता जो खालिस हीरो होता पर अफसोस, अब रामदेव को ही देसी सुपर हीरो भी लॉन्च करना पड़ेगा।

कहानी की पृष्ठभूमि बहुत ही सामयिक और रिलेटेबल है। मेरे जैसे कई सॉफ्टवेयर इंजीनियर उससे इत्तेफ़ाक रखते हैं। अन्ना आंदोलन के वक्त हमें लगा था कि कुछ करना चाहिए, सिस्टम को चेंज करने का यही वक्त है और इस चेंज में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए। हम भी जुलूस में जाते और भ्रष्टाचार पर बहसें करते। सच कहूं तो इस फिल्म में भावेश को जैसा दिखाया गया है में उसी तरह आक्रामक था, मैं भी ऐसा ही हीरो बन जाना चाहता था, कभी तो "हिंदुस्तानी" के कमल हासन की तरह करने का बहुत मन करता था। ये कहानी भी उसी दौर में शुरू होती है जब तीन दोस्त उस आंदोलन से इस कदर प्रभावित होते हैं कि सिर्फ जुलूस और बहसों तक सीमित न रहकर वाकई लड़ने लगते हैं। एक बैग को अपना मास्क बनाकर हर नियम तोड़नेवाले से लड़ने लगते हैं। इस कदर ईमानदारी का जुनून कि आधी रात सड़क पर किसी के ना होने पर भी सिग्नल नहीं तोड़ना है। ये दो दोस्त हैं, जिसमे से एक का नाम भावेश जोशी है और दूसरे का सिक्खू। कुछ ऐसा होता है कि ये इनके इस काम को धक्का लगता है और सिक्खू अपनी नौकरी में रम जाता है। जैसे us आंदोलन के बाद खालीपन आया था वैसा ही कुछ इनके साथ भी होता है, लेकिन भावेश हार नहीं मानता वो अकेला काम चालू रखता है। उसे पानी की बड़ी चोरी के बारे में पता चलता है जिसके खिलाफ वो छान बीन करता है, दूसरी तरफ सिक्खु अमरीका जाना चाहता है। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनती हैं कि सिक्खू का जाना कैंसल हो जाता है और कहानी नया मोड़ ले लेती है।

ट्रीटमेंट अच्छा है, फिल्म विश्वसनीय लगती है। पता नहीं बजट की कमी थी या लिखने का आलस्य, किसी भी किरदार का परिवार ही नहीं है फिल्म में, ऐसा लगता है सारे अनाथों की कहानी है। लड़का पूरा टूट फूट जाता है पर परिवार का जिक्र तक नहीं है चली एक आदमी का मान भी लें लेकिन तीनों लड़कों में से किसी का कोई भाई, बंधु सखा नही?

सुपर हीरो किसी सुपर पावर से लैस नहीं है बल्कि एक बिल्कुल आम, कमज़ोर आदमी है जिसे गुंडे तोड़ सकते हैं। यही शायद इसकी कमी भी है। पर ये भी कमी नहीं होती अगर हीरो वाकई सुपर होता। हर्षवर्धन कपूर को चुनने की क्या वजह हो सकती है ये बहुत बड़ा रहस्य है। वे स्टोन फेस ही नहीं, पूरा का पूरा स्टोन हैं। उनके चेहरे पर गम तो छोड़िए, खुशी के भाव भी नहीं आते। न बोलने में कोई उतार - चढ़ाव, न चेहरे पर। कोई कैसे झेले? मैंने जब "थार" का रिव्यू लिखा था तब भी इनके कसीदे पढ़ ही दिए थे। अर्जुन कपूर अपने भाई - बहनों में तो सबसे अच्छे एक्टर हैं, अपनी पहली फिल्म में इतने बुरे नहीं थे। हर्षवर्धन कपूर को कोई बिजनेस शुरू कर लेना चाहिए समय रहते। 



उनके साथी अभिनेता प्रियांशु वाकई अच्छे अभिनेता हैं। उन्होंने अपना काम बखूबी निभाया है। एक बात और समझ नहीं आई, रिलायंस जैसा प्रोडक्शन होने के बाद भी फिल्म कम बजट की फिल्म लगती है, क्या पर्याप्त पैसा नहीं मिला? 

इस फिल्म को शायद डुबोने के लिए ही बनाया गया था, क्योंकि पहले इस किरदार को इमरान खान से करवाना चाहते थे, फिर सिद्धार्थ मल्होत्रा से, आख़िर में हर्षवर्धन को चुना गया। मतलब शुरू से ही sucuidal मोड में थे निर्देशक। 

और अगर हिट होने के विचार से बनाई गई थी तो इसके सीक्वल भी प्लान किए होंगे। इस फिल्म में सुपर हीरो बना है, अगले भाग में इवोल्व होता। 

फिर से कहूंगा, सुपर हीरो फिल्म में हीरो सुपर चुनते तो शायद ये फिल्म बहुत अच्छी बनती। 

ख़ैर, अब भी हमारे पास अपने देसी सुपर हीरो कम नहीं हैं - शहंशाह, अजूबा, तूफान, आखरी अदालत जैसे हीरो हैं हमारे पास।


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