ये लेख चुनाव परिणाम आने के कुछ दिनों में लिखा गया था लेकिन क्या करें अपनी लेटलतीफी की आदत के चलते पोस्ट आज कर पाया हूँ कृपया उसी समय को ध्यान में रखकर पढें :)

लालच आहा लप लप…
और आखिर आडवानीजी मान गए…
अन्दर के आदमी ने इस बार बहुत शिद्दत से सर उठाया था और उन्होंने राजनीती से complete संन्यास की घोषणा भी कर दी थी लेकिन…आखिर एक बार फिर लालच जीत गया. वैसे उनकी गलती भी क्या, 80 सालों के लम्बे समय में लालच दिमाग से दिल में, दिल से खून में और खून से DNA में उतर जाता है. इस निर्मोही कुर्सी ने क्या नहीं करवाया, इस उम्र में मुह से ऐसे शब्द निकलाये जिसमे बड़प्पन नाम मात्र को भी नहीं था…और आखिर जाकर फिर उसकी हो गई जिसने नीचे से इतनी गालियाँ सुनने के बाद भी नीचे उतरने से इनकार कर दिया था… च..च..च. आँखों ने भी धोखा दे ही दिया जो नम हो गईं ये सुन कर की ये आखरी उम्मीद नाकाम हो गई. हाय…रथ पर बैठकर कहाँ कहाँ की ख़ाक छानी और मिठाई खाने का वक़्त आया तो अटलजी गप कर गए। देश की जनता के दिमाग को ज़हर से लबालब भर दिया की पहुच जाएँ वहां लेकिन वो भी कम पड़ गया. राम को इतना support किया कि शांत, मर्यादा पुरुषोत्तम राम का नाम ही दंगों का पर्याय बन गया लेकिन वो भी काम नहीं आये. राम मंदिर को गन्ने का रस निकालने वाली मशीन में डाल कर फिर गन्ने की तरह मरोड़-मरोड़ कर चूस लिया लेकिन रस नहीं निकला।
On a serious note-
आडवाणीजी को गंभीरता से सोचना चाहिए की अपना जीवन कम से कम अब वो सही दिशा में ले जाएँ। ये आखरी मौका है उनके पास कुछ अच्छा करने का वरना इतिहास उन्हें सिर्फ एक अतिमहत्वाकांक्षी व्यक्ति के रूप में ही याद करेगा, जिसने अपने जीवन में देश और जनता की भलाई के लिए तो कोई काम नहीं किया लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा के जूनून ने इतनी बुरी हालत में ज़रूर पंहुचा दिया की फिर से normal होने में बरसों लगेंगे।

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