मेरी आरजू कमीनी




बहुत हल्ला है साहब - 'कमीने...कमीने...कमीने'। 
आखिर हम देख ही आये। दरअसल मुझे इंतज़ार भी था इसके प्रदर्शन का। विशाल भारद्वाज का नाम उम्मीदें जगाने के लिए काफी है। लेकिन...उम्मीदें पूरी तरह से पूरी नहीं हुई.....नहीं, मैं ये नहीं कह रहा कि फिल्म बुरी है। अपने तल पर फिल्म बहुत अच्छी बनी है, और मुझे मज़ा आया देखने में, लेकिन खुद विशाल से ही तुलना करें तो ये उनके स्तर से थोड़ी सी कम फिल्म है। मकबूल, मकडी, ब्लू अम्ब्रेला और ओमकारा बनाने वाले फिल्मकार को मैं फिल्म के उस कलात्मक स्वरुप का झंडाबरदार मानता हूँ, जो सीधे दिल की रगों को छू लेती है।

 याद कीजिये ब्लू अम्ब्रेला में पंकज कपूर के किरदार का बारीक मनोवैज्ञानिक चित्रण, ओमकारा का अंत जहाँ अपनी निर्दोष पत्नी को सुहागरात पर नायक मार देता है, और फिर उसका पश्चाताप जो आपको हिला देता है. उनकी अब तक की फिल्में किसी न किसी रूप में आपकी संवेदनाओं को हिलाती-डुलाती है, लेकिन कमीने शुद्ध व्यावसायिक विषय पर बनी शुद्ध व्यवसायिक फिल्म है, हालांकि फिल्म का प्रस्तुतीकरण काबिले-तारीफ़ है। 

फिल्म पर निश्चित रूप से हॉलीवुड फिल्मकार Quentin Tarantino का प्रभाव है. फिल्म की कहानी चित-परिचित फार्मूले पर आधारित है। दो जुड़वाँ भाई हैं गुड्डू(शाहिद कपूर), जो हकला है, और चार्ली (फिर से शाहिद कपूर) जो तोतला है, और स को फ बोलता है। गुड्डू सीधा-सादा है, और चार्ली जुआरी है। एक लोकल मराठी गेंगस्टर भोपे (अमोल गुप्ते) है, जो उत्तर भारतीयों से नफरत करता है, और चुनाव लड़ने वाला है। गुड्डू से गलती ये होती है, कि वो भोपे की बहन स्वीटी (प्रियंका चोपडा) से प्रेम करता है, और शादी से पहले ही उनकी सुहागरात हो जाती है। एक तो करेला, ऊपर से नीच चढ़ा, यानि गुड्डू उत्तरप्रदेश का मूल निवासी है। भोपे को जब पता चलता है तो वो अपने आदमियों को गुड्डू को मारने के लिए भेजता है। दूसरी तरफ अपने पैसों की वसूली करके भागता चार्ली एक पुलिस अफसर की कार लेकर भाग जाता है। पुलिस अफसर एक गेंगस्टर ताशी के लिए काम करता है। कार में रखे गिटार केस में १० करोड़ की कोकीन है, जो पुलिस अफसर ताशी के लिए ले जा रहा था। गुड्डू भोपे के आदमियों से बचकर भागता है, और चार्ली गिटार लेकर...गुड्डू उस पुलिस अफसर के हाथ लग जाता है, जो चार्ली को ढूंढ रहा है, और चार्ली भोपे के हाथ लग जाता है। बस यहीं से आप घटनाओं का झूला झूलने लगते हैं. सब लोग गिटार के पीछे लग जाते हैं, और आपस में गुत्थम-गुत्था होते हैं। 

घटनाओं को निर्देशक ने विश्वसनीय तरीके से एक सूत्र में पिरोया है। फिल्म दर्शक की उत्तेजना को अंत तक बरकरार रखती है, बशर्ते कि दर्शक पूरी तरह एलर्ट है। किरदार फिल्मी होते हुए भी विश्वसनीय हैं। कुल मिलाकर कमीने एक रोमांचक फिल्म है। फिल्म की शुरुआत में आपको लग सकता है कि मज़ा नहीं आ रहा है, लेकिन फिल्म धीरे-धीरे अपनी पकड़ मजबूत बना लेती है।सब कुछ होते हुए भी मैं ये कहूँगा कि विशाल भारद्वाज व्यावसायिकता के लालच में पड़ गए हैं, लेकिन कभी-कभी स्वाद बदलने के लिए फिल्मकार को इतनी छूट मिलनी चाहिए। वैसे भी व्यावसायिक होते हुए भी रंग वही है। 

अभिनय के मैदान में मुझे उम्मीद थी कि जैसे सैफ अली खान ने ओमकारा में चकित कर दिया था वैसा ही कुछ शाहिद के साथ होगा लेकिन अफ़सोस शाहिद औसत ही रहे, इतनी तरक्की उन्होंने ज़रूर की है कि शाहरुख खान की नक़ल बंद कर दी है फिर भी कहीं-कहीं अन्दर का शाहरुख बाहर आ जाता है। मुल्क के सबसे बेहतरीन अभिनेताओं में से एक अभिनेता के पुत्र होने के बाद भी शाहरुख़ की नक़ल उन्हें शोभा नहीं देती, जो खुद अपने किरदार में कभी उतर नहीं पाए। फिर भी शाहिद दो अलग-अलग चरित्रों को प्रर्दशित करने में सफल रहे हैं। प्रियंका चोपडा के अभिनय में पिछले कुछ समय में बहुत सुधार आया है। अमोल गुप्ते ने कमाल का अभिनय किया है। 'तारे ज़मीन पर' जैसी स्तरीय फिल्म का लेखक उतना ही स्तरीय अभिनेता भी है। सभी कलाकारों ने प्रभावशाली अभिनय किया है, जिसमे कई नए चेहरे शामिल हैं। निर्देशन और संवाद उम्दा हैं। संगीत का तो कहना ही क्या, उस क्षेत्र में विशाल ने अब तक कोई समझौता नहीं किया है। बहुत दिनों के बाद वाकई अच्छे गीत किसी फिल्म में आये हैं। गुलज़ार साहब को सलाम कर-करके मेरी कमर दुःख गई है, वे किसी भी शब्द को हाथ लगाकर जादुई बना देते हैं फिर चाहे वो 'कमीने' हो या धेला, टका, पाई हो, जो यूँ तो चलना बंद हो गए हैं लेकिन गुलज़ार साहब ने ऐसा चलाया कि बेशकीमती हो गए। स्क्रीनप्ले बहुत दिलचस्प, और कसा हुआ है। 
अंगरेजी अखबारों में समीक्षक इस बात से बेहद खुश हैं कि विशाल ने टोरेंतिनो की तरह की फिल्म बनाई है, और इसकी तुलना वे बहुत सी अंगरेजी फिल्मों से कर रहे हैं, लेकिन शायद वे ये भूल जाते हैं कि एक अंगरेजी अखबार में समीक्षक होने पर भी वे भारतीय ही हैं। वे लोग इसलिए भी खुश है कि फिल्म की नायिका जो मध्यमवर्गीय प्रष्ठभूमि से है, सेक्स के बारे में खुल कर बातें करती है और वे इसे नारी स्वतंत्रता मानते हैं. अफ़सोस ये है कि नारी स्वतंत्रता सिर्फ शराब, सिगरेट और सेक्स के इर्द-गिर्द ही घूमकर रह गई है। पुरुष तो ठीक है, खुद नारी भी अपनी स्वतंत्रता इन्ही चीज़ों में खोज रही है। उन्हें ये समझना ज़रूरी है कि स्वतंत्रता पुरुष की बुरी आदतों की नक़ल में नहीं है, बल्कि अपने स्वभाव की गरिमा को स्थापित करने में है। फिल्म में एक अच्छा मुद्दा उठाया गया है, लेकिन वो उठा ही रह गया। मुद्दा आजकल की नफरत की राजनीति का, जहाँ महाराष्ट्र के कुछ नेता दूसरे प्रांत के लोगों के लिए नफरत फैलाकर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं। वास्तव में इन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं है, इन्हें चुनाव जीतना है बस यही इनका एकमात्र धर्म है। मेरे हिसाब से इन्हें भी आतंकवादियों में शुमार किया जाना चाहिए, पर करेगा कौन? नेता खुद ऐसा करेंगे नहीं और अवाम तो कब का सो गया। 

ये अलग से एक लम्बी बहस का विषय है, हम फिर से फिल्म पर आते हैं। कुछ कमियां होते हुए भी फिल्म बहुत अच्छी है। मेरा आशय इतना ही है कि पिछली फिल्मों के मुकाबले इस बार विशाल भारद्वाज थोड़े से कमज़ोर रहे।एक बात और साबित होती है कि फिल्म की कहानी लीक से हटकर न होते हुए पुराने ढर्रे की ही हो लेकिन निर्देशक में अगर कूवत है, तो वो उस पर एक बेहतरीन फिल्म बना सकता है. 

मेरी तरफ से ५ में से ३.८ और आप मोल-भाव करेंगे तो ४ तक दे दूंगा लेकिन उससे ज्यादा नहीं :)

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