अभी-अभी पीपली लाइव देखकर लौटा हूँ. मुझे लिखना तो थी समीक्षा लेकिन दिल नहीं करता कि इसकी एक फिल्म की तरह समीक्षा करूँ. क्योंकि सोचने वालों के लिए ये फिल्म एक फिल्म से कहीं ज्यादा है. ये सिर्फ एक तमाशा जिसमे कुछ कलाकार अपने जौहर का प्रदर्शन करते हैं, नहीं है. हालांकि फिल्म बनाने का तरीका ऐसा है कि हंसी-हंसी में बात हो जाए. आमिर खान ने फिर अपने आप को साबित किया...अपने आप को साबित करने से मेरा मतलब? कितने लोग हैं जो वो करते हैं जो वो करना चाहते हैं? बड़े-बड़ों से लेकर छोटे-छोटों तक हर कोई बाज़ार को देखकर चलता है, बड़ा आदमी उस चीज़ में पैसा लगाता है जिसके चलने की गारंटी हो और छोटा आदमी वो काम करता है जो चल रहा है. और फ़िल्मी दुनिया में ऐसे लकीर के फ़कीर भरे पड़े हैं. मैं खुद इस दुनिया में कुछ हद तक अन्दर जा चुका हूँ इसलिए मुझे पता है कि यहाँ एक कहानी फिल्म में तब्दील कैसे होती है. पैसे लगाने वाला सबसे पहला सवाल जो करेगा वो यही कि हीरो कौन है...अगर आपके पास एक चलता हुआ हीरो है तब तो आपकी कहानी किस्मतवाली है वरना आप कितने ही जूते रगड़ दीजिये कुछ नहीं होगा....तो ऐसे में नत्था को हीरो लेकर आपकी फिल्म कैसे बनेगी? फिर अगर हीरो आपके पास है भी तो गाँव की कहानी है सुनकर पहले तो लोग आप पर हँसेंगे और फिर आपकी कहानी कि ऐसी कि तैसी की जायेगी, उसमे आयटम सॉन्ग डाला जाएगा, कुछ गरमा-गरम डाला जाएगा और यो जेनेरेशन को ध्यान में रखकर धिन चक संगीत (?) बनाया जाएगा. ऐसे में अगर पीपली लाइव बनती है तो मैं कहूँगा कि निर्देशिका अनुषा रिज़वी की किस्मत ज़ोरदार है और आमिर खान को इस बात के लिए शाबाशी मिलनी ही चाहिए कि इस माहौल में रहते हुए भी वो ऐसी कहानियाँ चुनते हैं जो सचमुच कुछ कहती हैं. आप अगर पीपली लाइव देखें तो इसमें न तो कोई हीरो है, न कोई आयटम गर्ल है, न गरमा-गरम सीन हैं और न ही धिन चक संगीत है बल्कि ठेठ गावठी लोक संगीत है.
फिल्म की कहानी सभी को पता है, एक किसान अपनी ज़मीन को बिकने से बचने के लिए आत्महत्या की घोषणा करता है, करता क्या है उसका बड़ा भाई उससे ये करवाता है. फिर गन्दा खेल शुरू होता है मीडिया और राजनीति का. फिल्म को हास्य का रंग देकर बनाया गया है क्योंकि गंभीर बात न कोई करना चाहता है न सुनना चाहता है. और मैं तो कहूँगा कि हास्य का ये रंग भी सफल होगा इसमें संदेह ही है क्योंकि फिल्म देखने के बाद बाहर निकलने वाले संभ्रांत लोग बात को बिलकुल नहीं समझे, कुछ इसे आर्ट फिल्म कहकर खारिज करते पाए गए तो कुछ मुह बिगाड़ कर चले गए या फिर एक कॉमेडी फिल्म की रेटिंग दे कर चले गए. हो सकता है कुछ लोग उस बात को देख पाए हों जिसे फिल्मकार दिखाना चाहती थी, काश कि कुछ लोग तो हों ऐसे. कुछ लोगों की शिकायत है कि फिल्म मीडिया में उलझ कर रह गई लेकिन एक कहानी को आगे बढ़ने के लिए घटनाएं चाहिए और ये कहानी इसी तरह से आगे जा सकती थी जिस तरह इसे ले जाया गया है...मज़ाक-मज़ाक में गहरी बातें कही गई हैं क्योंकि सीधे-सीधे कोई बात कहना अब उपदेश कहलाता है. कुल मिलाकर फिल्म से जो उभर कर आता है वो एक ऐसे देश की सच्ची तस्वीर है जो हद दर्जे का भ्रष्ट है, संवेदनाहीन है और नकली है.
फिल्म में एक अंग्रेजी न्यूज़ चैनल की पत्रकार कहती है - "लोग डॉक्टर बनते हैं, इंजीनियर बनते हैं, हम जर्नलिस्ट हैं. ये हमारा पेशा है. और अगर तुम ये नहीं कर सकते तो तुम गलत पेशे में हो". ये बात वो कहती है एक ऐसे लोकल पत्रकार को जिसका ज़मीर उसे अन्दर से कचोट रहा है इस सब नाटक पर. ये इस देश की सबसे सच्ची तस्वीर है, यहाँ सब कुछ पेशा है....एक संगीतकार अगर संगीत के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है....एक कलाकार अगर कला के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है....एक डॉक्टर अगर मरीज़ के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है.....एक वकील अगर क़ानून और जुर्म के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है.......नेता अगर जनता के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है....हर किसी को वो माल बनाना है जो बिकता है...फिर चाहे उसके लिए उस मूल विचार की ही हत्या हो जाए जो उस काम के पीछे है. सब कुछ बाज़ार से चल रहा है....
और देश के महानगरों में रहने वाले लोगों को ये पता भी नहीं है कि उनके शायनिंग और २१वी सदी के इंडिया में ऐसी जगहें और ऐसे लोग और ऐसी जिंदगियां भी हैं. और मैं सचमुच ऐसे लोगों से मिला हूँ जिन्हें नहीं पता कि लोग इतने गरीब भी हो सकते हैं और इसी देश में रहते हैं. महीने के आखिर में जब मोटी-मोटी पगार उनकी जेबों में आती है तो उन्हें लगता है कि सभी की जेबों में ये पहुँच गई हैं. जबकि सच्चाई यही है कि असली इंडिया वही है जो इस फिल्म में दिखाया गया है. फिल्म के अंत में एक खेतिहर किसान आखिर में शहर पहुँच कर मजदूर हो जाता है और इस सन्देश के साथ कि १९९१ से २००१ के बीच ८० लाख किसान खेती छोड़कर मजदूर हो गए फिल्म ख़त्म हो जाती है. और आखिर वो आदमी क्या करे जिसका जीना मुश्किल हो जाए. खेती-किसानी की अगर बात करें तो अब तो ये हाल हैं कि खेती कोई करना नहीं चाहता. दूर क्यों जाएँ मैं अपनी खुद की कहूं तो मेरे पिताजी ने खेतों की ही बदौलत मुझे पढाया-लिखाया लेकिन मुझे हमेशा उससे दूर रखा...कोई भी आदमी जो खेती से जीवन बसर कर रहा है वो अपने बच्चों को ये कहकर डराता है कि पढ़ लो वरना खेती करना पड़ेगी जैसे खेती करना कोई बेहद गलीज काम हो. इस सब ने खेती को सबसे निचले स्तर पर ले जाकर पटक दिया है. ज्यादा से ज्यादा लोग खेत और गाँव छोड़कर शहर जाना और एक अदद नौकरी पाना चाहते हैं.....फिर यही दौड़ और चाह ऐसे लोग बनाती है जो बिना रीढ़ के हैं, जो तरक्की के लिए किसी के भी तलुवे चाट लेते हैं. सोचिये वो दिन जब सारे किसान खेती-किसानी छोड़ चुके होंगे और उनके बच्चे कहीं न कहीं नौकरी कर रहे होंगे....फिर उनके खाने के लिए अनाज कहाँ से आएगा...? और ऐसे बिना रीढ़ के नागरिक कैसा देश बनायेंगे?
बहुत सी बातें हैं....बातें ख़त्म नहीं हो सकती....सौ बातों कि एक बात ये कि मेरे ख़याल में ये देश तरक्की नहीं कर रहा है बल्कि ख़त्म हो रहा है. सब कुछ धीरे-धीरे नकली हो रहा है...अपनी सारी चीज़ें धिक्कारी जा रही हैं और एक अंधी दौड़ लगी हुई है. एक समय वो आएगा जब सब कुछ उधार होगा...अपना कुछ भी नहीं होगा. अब फिल्म की थोड़ी बातें करें तो एक बेहतरीन फिल्म है पीपली लाइव....अभिनय, निर्देशन, संगीत, संवाद...सब कुछ बेहतरीन. फिल्म में नत्था के बहुत थोड़े से संवाद हैं लेकिन वो अपने चेहरे और आँखों से वो सब कुछ कहता है. बहुत तकलीफ होती है ये देखकर कि किसान को हर किसी के पैर छूने पड़ते हैं, हर टटपुन्जिये के सामने गिडगिडाना पड़ता है. गरीब आदमी अपना स्वाभिमान कैसे बनाए रखे? अगर रखता है तो उसे आत्महत्या करनी ही पड़ेगी...नत्था तो हर तरह से मरेगा ही, या तो शर्म से या निराशा से या भूख से...समाज ऐसा ही बन गया है. नत्था की कहानी के बीच एक बहुत ही छोटी सी कहानी और भी है, हीरा महतो की...ऐसा किसान जिसकी ज़मीन नीलाम हो चुकी है और जो रोज़ बंजर ज़मीन से मिटटी खोदता है बेचने के लिए...उसके शरीर की हालत सब कुछ कहती है. और एक दिन उसी गड्ढे में वो मरा हुआ मिलता है...गाँव के लोकल पत्रकार का दिल दहल जाता है ये देखकर, उसे सब व्यर्थ लगने लगता है और किसी को भी चोट पहुंचेगी अगर उसके अन्दर भावनाएं हैं...ये एक छोटी सी कहानी उस सब नौटंकी की पोल खोलने के लिए जो मीडिया और नेता मचाये हुए हैं. फिल्म के हर कलाकार ने अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई है. एक लम्बे समय के बाद राजपाल यादव को देखना बहुत अच्छा लगा. फिल्म में जो गाँव और जो घर दिखाया गया है वो बिलकुल असली है, इसी तरह के होते हैं गाँव और घर....कम से कम हमारे मध्यप्रदेश में तो हर तरफ यही तस्वीर है...गरीबी, गन्दगी और असुविधाएं...और फिल्म की शूटिंग भी मध्यप्रदेश के ही एक गाँव में हुई है. पहले उड़ान और अब पीपली लाइव...उम्मीद जगाती हैं कि कुछ अच्छे लोग पहुँच गए हैं फिल्म इंडस्ट्री में और हम और अच्छी फिल्मों की उम्मीद कर सकते हैं. अगर ४-५ भी आमिर के जैसे निर्माता हो जाएँ तो हमारी फिल्मों का कायापलट हो जाए. मैं ये सलाह दूंगा कि हर किसी को पीपली एक बार ज़रूर देखनी चाहिए क्योंकि जहां बाज़ार से सब कुछ तय होता है वहां अगर एक अच्छी चीज़ चल जाए तो आगे और अच्छी चीज़ मिलने की उम्मीद बढ जाती है.
अनिरुद्ध शर्मा
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें