किल - अरसे के बाद आई एक असली एक्शन फ़िल्म



 मैंने जॉन विक देखी थी और उसके बारे में अपनी राय लिखी थी तो कई जॉन विक्क सीलिंग fans को बुरा लगा था लेकिन मुझे तो पसंद नहीं आई। फ़िल्म कम विडियो गेम ज़्यादा लगी मुझे फ़िल्म। 

अब आपको ये समझना ज़रूरी है कि आजकल जब गेम्स भी बहुत रियलिस्टिक बन रहे हैं तो फ़िल्म और गेम में क्या अंतर होना चहये जबकि पूरी फिल्म और पूरा गेम killing पर ही आधारित हो। सबसे बड़ा अंतर तो ये कि फ़िल्में मानवीय होती हैं और ये मानवीयता अगर नदारद है तो वो फ़िल्म बेजान हो जाती है और विडियो गेम की श्रेणी कोप्राप्त हो जाती है। विडियो गेम में रस नहीं होते जबकि फ़िल्म हो या नाटक, ये नौ रसों का मिश्रण होते हैं। ये रस ही इनका आधार है, और यही कहानी में आत्मा का काम करते हैं। तो लब्बोलुआब ये कि जॉन विक्क सिर्फ हथियारों से लड़ाई के ज़रिये दर्शक को भौचक करने के लिए बनाई गई थी जो विडियो गेम इसलिए लगती है कि हमने बचपन में contra नामक गेम बहुत खेला है, जॉन विक उसी contra की तरह धाँय धाँय करता सबको ढेर करता जाता है, और उसे कितनी भी चोट लगे उसके पास लाइफलाइंस होती हैं। 

अब आते हैं “किल” पर।

अगर एक पंक्ति में कहा जाये तो किल में किलिंग ही किलिंग है। एक कमांडो है जो एक गैंंग से भिड़ जाता है और फिर शुरू होता है 2 घंटे का संहार। पर अब इस किलिंग को आपको justify करना बहुत ज़रूरी है और बीच में मानवीयता के दूसरे पहलू भी नज़र आने चाहिए, ऐसा नहीं कि खलनायक खूँखार है, नायक की आँखों में ख़ून है और बस दे दना दन, दे दना दन। “किल” यहीं सफ़ल होती है। एक मजबूत मोटिव है और उसे अलग-अलग रिश्तों से बुना गया है। लोगों को लगेगा कि हिंसा ने काम किया है और इस तर्ज़ पर अब हिंसक फ़िल्मों की बाढ़ आ जाएगी आप देखना पर वे सभी हिंसा पर फोकस करेंगे और मूल बात को नज़रअंदाज़ कर देंगे। जैसे जब “चोली के पीछे” गीत हिट हुआ तो “चोली” गीतों की बाढ़ आ गई, लेकिन कोई गीत नहीं चला, क्योंकि उस गीत की सफलता सिर्फ “चोली” शब्द की वजह से नहीं थी, उसका music arrangement इतना लाजवाब था कि आज तक और उससे पहले भी कभी नहीं हुआ था। किल की सफलता उस हिंसा या वीभत्सता की सफलता नहीं है, वरन उसके अंदर जो भावनाओं का जाल बुना गया है, उसकी सफलता है। हर एक अभिनेता के अपने किरदार में विलीन हो जाने की सफलता है, किरदारों के मुँह से जो असरदार शब्द निकलते हैं, उनकी सफलता है। बॉलीवुड की मूल समस्या यही है कि एक फिल्म के सफ़ल होने के बाद उसका जो सबसे ज़्यादा visible पहलू है उसको पकड़ कर ढेरों फ़िल्में बना देते हैं पर फिर सब औंधे मुँह गिरते हैं तो कहते हैं दर्शक को समझना मुश्किल है, आपकी समझ में समस्या है भाई, दर्शक को समझना मुश्किल नहीं है। आत्मा चाहिए कहानी में, उसके ऊपर आप हिंसा, ड्रामा, हॉरर, या कॉमेडी, किसी भी चीज़ का मुलम्मा चढ़ा दीजिये। 

किल का नायक एक कमांडो है जो अपने दोस्त, जो ख़ुद भी एक कमांडो है, के साथ ट्रेन में सफ़र कर रहा है। उसी ट्रेन में उसकी प्रेमिका भी है जो अपने परिवार के साथ सफ़र कर रही है। रास्ते में लुटेरों की एक गैंंग ट्रेन में चढ़ती है जो सभी यात्रियों को लूटने लगते हैं। ये लोग क्रूर हैं, हिंसक हैं और इनका जो लीडर है “फनी” वो सनकी भी है। उसे किसी की भी जान ले लेने में ज़रा भी समय नहीं लगता है। दोनों कमांडो परिस्थिति का संग्यान लेते हुए, लड़ाई छेड़ देते हैं। और फिर जो कहर बरपा होता है वो उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है। 

“लक्ष्य” इस दौर की सबसे अच्छी खोज हैं। टीवी सिरियल से अपने सफ़र की शुरुआत करने वाले लक्ष्य को बड़ा मौका मिला जब कारण जौहर के धर्मा productions ने उन्हें तीन फ़िल्मों के कांट्रैक्ट पर साइन किया। उनका पदार्पण “दोस्ताना 2” से होने वाला था पर वो फिल्म शुरू होकर बंद हो गई, फ़िर एक और फिल्म “बेधड़क” शुरू हुई पर वो भी बंद हो गई। आख़िर बड़े परदे पर “किल” से आए और किलर पदार्पण हुआ। मैं कहता हूँ दोस्ताना जैसी बचकानी फ़िल्म से न होकर इस फ़िल्म से आना उनके लिए बहुत अच्छा साबित होगा। लक्ष्य ने हर तरह से अपने किरदार को जिया है। एक्शन तो ख़ैर जबर्दस्त की ही है, और बहुत ही convincingly की है। लेकिन emotions भी बहुत बढ़िया किए हैं। ये हीरो आगे चलकर स्टार बनेगा और वो deserve भी करता है। 

हीरो की ही तरह विलन भी टक्कर का है, उसके कमीनेपन की कोई इंतेहा ही नहीं है। “राघव जुयल” ने अपने अभिनय से नफरत जगाने का काम बख़ूबी किया है। और बाकी काम उनके जबर्दस्त संवाद और उनकी अदायगी कर देती है। ये दोनों लंबी रेस के घोड़े हैं। हर्ष छाया हमेशा की ही तरह असरदार लगे हैं। आशीष विद्यार्थी तो ख़ैर हैं ही बढ़िया अभिनेता। बस कोई चीज़ मुझे नहीं जँची तो वो इसकी हीरोइन है। न खूबसूरती में और न ही अभिनय के मामले में। दोनों ही मोर्चों पर औसत रही। 

पूरी फ़िल्म एक ट्रेन में ही चलती है। ट्रेन के डब्बे में ही पूरी फ़िल्म शूट कर देना बहुत बड़ी चुनौती है। एक हीरो है और 40 लोगों से लड़ना है, ये बड़ी वाहियात बात साबित हो सकती है अगर execution में ज़रा ही चूक हो, लेकिन execution इतना पर्फेक्ट है कि मेरे पास बैठा हुआ लड़का बार-बार चिल्ला उठता था, मुझे लग रहा था कि उसकी मुट्ठियाँ भिंची जा रही हैं। कुछ ऐसे प्रभावशाली दृश्य थे कि उसके मुँह से “जियो”, “ओओ” की तरह की आवाज़ें निकल जाती थीं। एक जगह तो जनता ने तालियाँ भी बजा दीं। इससे बड़ी सफलता क्या हो सकती है, आज के दौर में?

मेरे हिसाब से बॉलीवुड में अनगिनत एक्शन फ़िल्में बनी हैं पर ऐसी फ़िल्म जिसे वाकई में एक्शन फ़िल्म कहा जा सके वो “घातक” के बाद मुझे यही लगी है। 

विलन गैंंग में सारे एक ही परिवार के सदस्य हैं, साला, चाचा, फूफा, ताऊ, और उनके लड़के सब चोट्टे। और इस गैंंग को भी रोना आता है, अपनों की लाश देखकर ये भी डरते हैं, यही मानवीय तत्व है। 

बैक्ग्राउण्ड म्यूजिक के लाउड होने का डर होता है ऐसी फ़िल्मों में पर बड़ा ही सधा हुआ म्यूजिक है। बल्कि लड़ने के दृश्यों में संगीत है ही नहीं, ऐसा पहली बार मैंने “शिवा” में देखा था और मुझे बहुत बढ़िया प्रयोग लगा था। “शिवा” भी इसी तरह की फ़िल्म थी। अनगिनत लड़ाई के दृश्यों के बीच में दोस्ती, प्यार, भावनाओं के छोटे-छोटे पल इसे रिच बनाते हैं, कुछ घटनाएँ आपकी भावनाओं को उद्वेलित करती हैं। 

फ़िल्म की गति बहुत तेज़ है और कहीं भी ढीली नहीं पड़ती। इसमें गीतों के लिए जगह थी ही नहीं और बहुत ही अच्छा किया कि गीत नहीं रखे।

हाँ, एक और बात याद आई। जॉन विक गोलियाँ बरसाता चलता है, जबकि यहाँ हीरो हाथ की लड़ाई लड़ता है। गोलियों से भूनते चलना बोरिंग हो जाता है, हाथ की लड़ाई एक्साइटिंग लगती है। और सबसे बड़ी बात ये कि पहली बात हॉलीवुड एक हिन्दी फ़िल्म का रिमेक बना रहा है। जॉन विक के निर्देशक ने इसका रिमेक बनाने की घोषणा की है। 

तो आप अगर एक्शन फ़िल्में देखते हैं और वीभत्सता से डरते नहीं हैं तो इसे फौरन देख डालिए। फ़िल्म में disturbing scenes हैं पर अगर आप हॉलीवुड की एक्शन फ़िल्में और खास तौर पर टोरेंटिनो की फ़िल्में देखते हैं तो आपके लिए कुछ नया नहीं हैं, otherwise आप डिस्टर्ब हो सकते हैं, आधी कटी गार्डन लटकते देखकर या सिर का पीट-पीट कर मलीदा बन जाना देखकर। 

यशराज के “महाराज” और अब धर्मा के “किल” बनाने से ये अच्छी बात हुई कि इंडस्ट्री के इन दो सबसे बड़े निर्माताओं ने सार्थक फ़िल्मों की तरफ़ देखा है और उम्मीद है कि अतीत में बनाए अपने कचरे को छोड़ अब ये सार्थक फ़िल्मों की श्रेणी को आगे बढ़ाएँगे। 

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