हम देखते ही रहे और कब देश की सबसे महत्वपूर्ण चीज़ें कला और
संस्कृति विचारशील लोगों के हाथों से निकल कर हुड़दंगियों के हाथ में चली गईं, पता
ही नहीं चला। वो चाहे फिर बजरंगी भाईजान हो, या दिलवाले हो, या बाजीराव मस्तानी हो, इनका एक ही काम है विरोध और तोड़-फोड़, इनमें किसी
कलाकृति को समझने जितनी थोड़ी सी भी बुद्धि होती, तो इनका विरोध करने का तरीका भी और
ही होता।
खैर, बात मुझे करनी है “बाजीराव मस्तानी” के
बारे में। मैं किसी भी फिल्म को उतनी ही अच्छी समझता हूँ जितने लंबे समय तक वो दर्शक
के मन-मश्तिष्क में घूमती रहे, और कतरा-कतरा उसका रस उसके ज़हन में रिसता रहे। इस
पैमाने पर बाजीराव-मस्तानी पूरी उतरती है। देखते वक़्त तो फिल्म ने दिल को गहराई तक
छुआ ही, पर देर तक उसका असर छाया रहा। रामलीला के पहले तक संजय लीला भंसाली से मैं
कुछ खास प्रभावित नहीं था। खामोशी के बाद कोई दिल को छूने वाली फिल्म उन्होने बनाई
नहीं थी। हम दिल दे चुके सनम एक बार देखने लायक फिल्म थी, शरतचंद्र
के देवदास की उन्होने बेतरह दुर्गति बनाई थी, “ब्लैक” में
प्रचार के अलावा कुछ नहीं था। आर्ट के नाम पर एक बोरियत भरी फिल्म जिसमें महानायक
अमिताभ बच्चन की ओवर एक्टिंग साफ नज़र आती है। साँवरिया एक सदमा ही थी, उसे क्यों बनाया गया था, क्या बनाया गया था आज तक
स्पष्ट नहीं है। गुजारिश भी ठीक ही थी, लेकिन फिर मैंने रामलीला देखी, और जैसे जादू
हो गया। एक फिल्म एक कलाकृति की तरह कैसे नज़र आ सकती है, ये
मैंने रामलीला में देखा।
और अब “बाजीराव मस्तानी”...
एक बात तो तय है, भंसाली से ज़्यादा कल्पनाशील निर्देशक आज के
परिदृश्य में तो कोई नहीं है, फिर चाहे वो विजुअल्स हो, संगीत
हो, रंग हों, सेट हो या नृत्य हो। एक
बार फिर मैं स्तब्ध था, स्क्रीन पर चलती खूबसूरत तस्वीरें देखकर। और शायद उन्हें
रणबीर सिंह और दीपिका पादुकोण के रूप में अब जाकर सही कलाकार मिले, जो उनकी कल्पना
को हू-ब-हू साकार करें। दो वज़नी चरित्र जो अपने तेज से आपको विस्मित किए रहते हैं।
बाजीराव को मस्तानी से मुहब्बत होती है, तो कुछ समय में आप खुद भी उसकी मोहब्बत में
गिरफ्तार होते हुए महसूस करते हैं। यही तो है एक फ़िल्मकार की सबसे बड़ी सफलता।
फिल्म में कैमरा एंगल क्या लगे हैं? कलर कैसे हैं? कपड़े कैसे हैं? आदि बातें उतनी महत्वपूर्ण नहीं
है...सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है भाव... जो भाव निर्देशक प्रेषित करना चाहता है, क्या
दर्शक उसे महसूस कर रहा है? अगर हाँ,
तो निर्देशक सफल है। इस मायने में भंसाली रामलीला में भी सफल थे, और एक बार फिर सफल
हैं। आपको दुख, खुशी, गुस्सा, बेबसी...सब कुछ महसूस होता है, भंसाली की इस 3 घंटे लंबी कहानी में, जो कतई
लंबी नहीं लगती बल्कि शायद इस भव्यता के लिए इतना समय शायद ज़रूरी था। भव्यता को
रचने की कला भी शायद उनके ही पास है, इसे देखकर मुझे
जोधा-अकबर की याद आई जो सारे सेट्स, कॉस्ट्यूम्स, संगीत के बावजूद बेजान थी।
विरोध करने वालों की मानसिक अपंगता पर तरस खाएं या नाराज़
हों? बाजीराव के बारे में शायद ही कोई बहुत ज़्यादा जानता हो, और महाराष्ट्र के बाहर
तो बिलकुल नहीं। वही बाजीराव इस फिल्म को देखने के बाद दर्शकों के मानस में एक
सच्चे नायक के रूप में स्थापित होते हैं। इन सतही लोगों ने इतिहास के महान लोगों
को भी सतही बना दिया है। इनके अनुसार महान वही है जिसने सिर्फ तलवारें चलाई हैं। बल्कि महान इतिहास ने उसे ही माना है, जिसने शक्तिशाली होने के बाद भी मनुष्य होने
का परिचय दिया है। फिल्म में बाजीराव उस योद्धा और नायक के रूप में उभरते हैं जो
खालिस मनुष्य है। वो चतुर है लेकिन संवेदनशील है। उसे प्रेम होता है तो दिल की
गहराइयों से होता है, जो एक ही संवाद से स्पष्ट हो जाता है “बाजीराव ने मोहब्बत की
है, अय्याशी नहीं”। वो बेखौफ इंसान है जो न सत्ता से डरता है, न राजा से, न प्रजा से, न
धर्म से, न रिश्तों से...वो वही करता है जो सही है और
खुले-आम करता है।
अफसोस की बात ये है कि भारत में इतिहास से कुछ नहीं सीखने
की प्रवृत्ति है, और इसी के चलते हम गुजरे ज़मानों के बाजीरावों को तो महान होने का
दर्जा दे देते हैं, लेकिन हम लोग चीमाजी बने रहते हैं। जिस तरह बाजीराव की ताक़त का
उपयोग ही उस वक़्त के चीमाओं और भट्टों का स्वार्थ था,
बाजीराव को महानता का तमगा देना आज के चीमाओं और भट्टों का स्वार्थ है। बाजीराव
अपनी तमाम अच्छाइयों और सफलताओं के बाद भी अपने परिवार से नहीं जीत सके। ये वही
परिवार और समाज है जो बेवजह के मुद्दों में अपने आप को और देश को उलझाए रखता है, और
उसे हमेशा दरिद्र बनाए रहता है। बाजीराव तमाम तरह के पाखंडों से दूर है...उसे दिखाई
देता है कि उसके अपनों को म्लेच्छ का धन स्वीकार है लेकिन बेटी नहीं, ये वो गए-गुजरे लोग हैं जिन्हें रंगों में भी धर्म दिखाई दे जाता है। ये
समाज कोई आज का बीमार नहीं है, ये बीमारी बहुत गहरी और बहुत
पुरानी है।
चलिये फिर से फिल्म पर आ जाते हैं वरना बात निकलेगी तो दूर
तलाक जाएगी। जब पर्दे पर गीत “दीवानी मस्तानी” शुरू हुआ तो लगा जैसे दिल बाहर ही आ
जाएगा। बेहद खूबसूरत गीत, बेहद खूबसूरत रंग संयोजन और उतना ही
खूबसूरत नृत्य। भंसाली ने प्यार किया तो डरना क्या को दोहराने की कोशिश की थी शायद
पर उतना नहीं हो पाया। मेरी राय में भंसाली इस वक़्त इंडस्ट्री के सबसे अच्छे
संगीतकार हैं। उनके स्तर का संगीत बना पाने की क्षमता शायद किसी में नहीं और शायद
इसीलिए उन्होने खुद ही ये बीड़ा उठा लिया है। इस मामले में उनकी तुलना राज कपूर से
करने का मन करता है जिनका संगीत का बोध बेहतरीन था। मेरे लिए तो फिल्म का पैसा इस एक
गीत ने ही वसूल करवा दिया था।
फिल्म विश्वसनीय है लेकिन 3 चीज़ें हैं जो जबर्दस्ती डाली गई
हैं, पहली – काशीबाई की बचपन की सहेली आकर उसे श्राप जैसा कुछ दे देती है कि जैसे
मैं तड़प रही हूँ वैसे तू भी तड़पेगी। उस एक दृश्य के बाद उस सहेली का और कोई काम नहीं
है। क्यों? आखिर क्यों?
दूसरा – मल्हारी गीत जिसमें बाजीराव अपने सिपाहियों के साथ बहुत
ही बढ़िया नृत्य करते हुए नज़र आते हैं। उस मौके पर गीत की कोई आवश्यकता नहीं थी, बल्कि
गीत ने जीत को हल्का कर दिया और बाजीराव का जो चरित्र फिल्म ने बनाया था उसे भी हल्का
कर दिया। मैं ये नहीं कह रहा कि ऐसा योद्धा हमेशा मुह लटकाए गंभीर ही रहता होगा, लेकिन
फिल्म में वो अनावश्यक था।
तीसरा – काशी और मस्तानी का मिलन। शायद दोनों के एक साथ नृत्य
करने का लालच भंसाली रोक नहीं पाए। हालांकि इसे इस बात की एक कोशिश की तरह भी लिया
जा सकता है कि काशीबाई के संवेदनशील स्त्री होने के नाते अगर वो ऐसा करती तो उनका कद
और बढ़ जाता और इसी कोशिश में भंसाली थोड़ी-बहुत छेड़-छाड़ करते हैं।
रनबीर सिंह निर्विवाद रूप से आज की पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ हीरो
(मुख्यधारा सिनेमा के नायक) हैं। उनमें जो ऊर्जा है वो और किसी में दिखाई नहीं
देती। ऐसी ऊर्जा किसी जमाने में शाहरुख खान में थी, जो उन्होने फूहड़ फिल्मों में
ज़ाया कर दी। रामलीला में गुजराती और यहाँ मराठी लहजा उन्होने पूरी तरह से अपनाया, और
उच्चारण में कहीं भी गलती नहीं हुई। इतनी बारीकी समर्पण से ही आती है। दीपिका पादुकोण
ने बहुत मेहनत की है अपने आपको नायिका से अभिनेत्री बनाने में, एक समय
था जब उनसे अभिनय की कोई उम्मीद नहीं की जाती थी, और आज वो इस तरह की भव्य फिल्म को
सफलतापूर्वक निबाह ले जाती हैं।
अंत में अफसोस ये है कि इतिहास से सीख कर हमें समाज को वो दिशा
देनी चाहिए कि एक नहीं कई बाजीराव समाज में मौजूद हों, लेकिन अब तो वो एक भी नज़र नहीं
आता, चारों तरफ चीमाजी और भट्ट जैसे ठेकेदार ही हैं, जो नायकों का उपयोग तो कर लेते
हैं लेकिन उनकी महानता को किताबों की पवित्रता में दफन कर देते हैं। युग बदल गए पर
हम कभी नहीं बदले...
बहरहाल फिल्म बहुत ही अच्छी है, और मुझे
समय मिला तो मैं दोबारा देखूंगा। आप भी देखिये।
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