मदन मोहन - श्रद्धांजलि (A tribute to Madan Mohan)

Lag ja gale ke phir ye composer - Madan Mohan

लग जा गले | Lag jaa gale ke phir ye

एक गीत जो 55 साल पहले बना था और जिसे आज भी जब सुना जाता है तो रूह तक कंपकंपी पहुँचती है। किस शिद्दत से उसे बनाया गया होगा? किस दुनिया से उसे लाया गया होगा?

ना कुछ से ऐसा कुछ बना देना जादू ही तो है?

और वो जादू है फ़िल्म 'वो कौन थी' का गीत - "लग जा गले के फ़िर ये हसीं रात हो न हो, शायद फ़िर इस जनम में मुलाक़ात हो न हो"...

और जादूगर?

The Greatest मदन मोहन!

यूँ तो ये एक ही गीत उन्हें अमर कर देता है पर ऐसे कईं-कईं गीत उन्होंने बना दिये हैं कि हर गीत पर बस हाय... उफ़्फ़...वाह ही निकल सकता है।

यूँ हसरतों के दाग़,

आपकी नज़रों ने समझा,

तू जहाँ-जहाँ चलेगा,

फिर वही शाम,

बैयाँ ना धरो,

नैना बरसे,

नैनों में बदरा छाए,

आप के पहलू में आकर रो दिए...

उफ़्फ़!

क्या-क्या बना दिया है।

14 जुलाई, इस महान मौसिककार की पुण्यतिथि होती है और यही सबब है आज उन्हें याद करने का। हम आज बस यही कह सकते हैं उन्हें कि आप हमारे लिए महत्वपूर्ण है, इसलिए कि आप न होते तो ये खज़ाना हमारे पास न होता। हमारी जिंदगियों पर ये अहसान है आपका।

Madan Mohan - music director


फ़िल्म इंडस्ट्री में ऐसी कईं मिसालें हैं कि योग्यता को उसका वो मुक़ाम नहीं मिला जिसकी वो हक़दार है। मदन मोहन जी के साथ भी यही हुआ। उन्हें ख़ुद भी इस बात का हमेशा मलाल रहा। विडंबना यह थी कि गीत तो चलते थे पर फ़िल्म फ़्लॉप हो जाती थी। इसी सिलसिले के चलते निर्माताओं ने उन पर मनहूस होने का ठप्पा लगा दिया। कैसी विडम्बना है कि, एक पेशा जो प्रोग्रेसिव होने की मिसाल का काम करता है, अपनी कहानियों में बंधे-बँधाए ढर्रे को ध्वस्त करता है, वो भी पर्दे के पीछे उन्हीं सब बेवकूफियों में उलझा है। एक संगीतकार को, और वो भी ऐसा संगीतकार जिसकी धुनें बेमिसाल हों, फ़िल्म पिटने का जिम्मेदार ठहराना निहायत ही बेवकूफ़ी की बात है।

लता मंगेशकर

लताजी ख़ुद मानती हैं कि अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ काम उन्होंने मदन मोहन जी के साथ किया है, और वाकई आप ग़ौर करें तो ये सच भी है, मन न माने तो एक बार फिर से ऊपर लिखे कुछ गीतों पर गौर कर लीजिए। यूँ तो लताजी का गाया एक-एक गीत अनमोल है, पर मदनजी के साथ उनका काम इस दुनिया से ऊपर का है। कोई और उस ऊँचाई को छू नहीं सका है।

वीर जारा का संगीत

संगीतकार (असली) जीवन भर कुछ न कुछ बनाता रहता है, बहुत सा काम ऐसा भी होता है जो कभी लोगों तक नहीं पहुँच पाता। मदन मोहन धुनें बनाकर कैसेट्स में रिकॉर्ड करके रखते थे। इनमें से बहुत सी ऐसी भी थीं जो रखी रह गईं, फिल्मों तक नहीं पहुँची। उनके इंतक़ाल के बाद उनके सुपुत्र संजीव कोहली ने वे कैसेट्स सुनीं और उन्हें संभाल कर रख दिया। संजीव की दिली ख़्वाहिश थी कि काश उनके पिता का संगीत ऐसी किसी फ़िल्म में आए जिसका निर्देशक चोटी का निर्देशक हो, जिसमें अमिताभ बच्चन जैसा कोई सुपर स्टार हो, क्योंकि मदन मोहन की आशिकांश फ़िल्में छोटी फ़िल्में ही थीं। उनका ये सपना 30 साल बाद पूरा हुआ, जब यश चोपड़ा ने उस खज़ाने में से कुछ मोती अपनी फ़िल्म "वीर-जारा" के लिए चुने। यश चोपड़ा निर्देशक थे और हीरो थे उस दौर के सुपर स्टार "शाहरुख खान"। इसके सबसे मशहूर गीत "तेरे लिए" की धुन मदन जी ने गुलज़ार की फ़िल्म मौसम के गीत "दिल ढूंढता है" के लिए बनाई थी। कहा जाता है कि उस गीत के लिए मदन जी ने 10 धुनें बनाईं थीं जिसमें से एक गुलज़ार साहब ने चुनी।

एक किस्सा मैंने कहीं पढ़ा है कि एक बार मदनजी अपने बेटे को साईकल पर बैठाकर कहीं जा रहे थे और बेटा रमैया वस्ता वैया गुनगुना रहा था, मदन जी ने कहा कि तू भी किसी और के गाने ही पसंद करता है?

बेटे से तो उन्होंने यूँ ही कहा होगा, पर ये उनके दिल का दर्द था।

अफसोस कि उन्हें अपने जीवन में कभी वो जगह नहीं मिली जो दुनिया से चले जाने के बाद मिली। इस ग़म में उन्होंने शराबनोशी का सहारा लिया और उसी शराब ने उन्हें पी लिया। इसका नुकसान हुआ हमें, और इन गीतों को देखते हुए लगता है कि बहुत ज़्यादा हुआ है, वरना ऐसे और भी कईं हीरे-मोती होते हमारे पास।

कहने को तो बहुत कुछ है लेकिन इस दीवार की भी सीमा है सो फिर कभी इस अध्याय को आगे बढ़ाते हैं। जाते-जाते एक और गीत याद आता है, जो मेरा पसंदीदा गीत है, कभी सुनिए फ़िल्म हक़ीक़त का कैफ़ी आज़मी का लिखा और रफी साहब का गाया गीत। कोई वाद्य नहीं बस हल्का हल्का संगीत बैकग्राउंड में है। बस एक धुन है, लफ्ज़ हैं और रफी साहब की आवाज़ है...

"मैं ये सोचकर उसके दर से उठा था के वो रोक लेगी मना लेगी मुझको

हवाओं में लहराता आता था दामन, के दामन पकड़कर बिठा लेगी मुझको"


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