बदलते दौर
कल से इतने लोग लिख चुके हैं कि अब लिखने के लिए शायद ही कुछ बचा हो। “ज्वार-भाटा (1944)” से लेकर “क़िला (1998)” तक लिख चुके लोग। ऐसे में मैं क्या लिखूँ? जीवनी लिखना व्यर्थ है, मुझे भाता भी नहीं, फ़िल्मों की लिस्ट देना उबाऊ है...तो मैं इतना कर सकता हूँ, कि दिलीप साहब के बारे में लिखते समय खुद के बारे में भी लिखूँ।
हम उस दौर में बड़े हो रहे थे जिस दौर पर आमिर ख़ान, शाहरुख़ ख़ान और सलमान ख़ान की तिकड़ी की बादशाहत थी। ये मेरी पीढ़ी का सौभाग्य रहा कि हमने दूरदर्शन पर फिल्में देखी हैं, और शायद इसीलिए अपने दौर से कई दशक पीछे के अभिनेता-अभिनेत्रियों को भी देखा था, उन्हें जानने का मौका मिला था। हालाँकि बचपन में तो झगड़ा वही था जो शास्वत है – “हमारे समय का सब पुराने समय से बेहतर है”। हम भी यही सोचते थे, पुराने हीरो की बजाय नए हीरो अच्छे हैं। फिर भी, हमने ब्लैक अँड व्हाइट फ़िल्में भी देखी थीं; राज कपूर की, शम्मी कपूर की, देव आनंद की और दिलीप कुमार की। जिस तरह 90 के दशक में आमिर-शाहरुख़-सलमान की तिकड़ी छाई हुई थी, ठीक उसी तरह एक दौर में राज कपूर, दिलीप कुमार और देव आनंद की तिकड़ी छाई हुई थी।
दिलीप कुमार का एक अभिनेता के रूप में समर्पण
माफी सहित कहना चाहूँगा कि मैं राज कपूर से कभी प्रभावित नहीं हुआ। मुझे हर फिल्म
में उनका चार्ली चैपलिन एक्ट खलता था। हर किरदार अलग होता है,
पर मुझे हर फिल्म में अलग नाम से वही आदमी देखना जँचता नहीं था। दिलीप कुमार मुझे
बचपन में बिलकुल पसंद नहीं आते थे। एक तो मुझे उनकी सूरत बड़ी अटपटी लगती थी,
फिर उनकी मेथड एक्टिंग अपनी समझ से बाहर थी। मुझे वे बहुत ही स्लो लगते थे। मुझे
देव आनंद बहुत पसंद आते थे। मस्त-मौला इंसान और गजब का हैंडसम। ये वो दौर था जब
मैं अमिताभ बच्चन का भक्त था। मुझे वो मार-धाड़, वो तेज़ी पसंद थी। जब
अमिताभ बच्चन के बारे में कोई लिखता कि वे दिलीप कुमार की नकल करते हैं,
तो मुझे चिढ़ होती थी। कहाँ अमिताभ और कहाँ दिलीप कुमार,
अमिताभ की पर्स्नालिटी देखो। फिल्म “शक्ति” मुझे बहुत अच्छी लगी थी,
मैं उसमें सिर्फ और सिर्फ अमिताभ बच्चन देख रहा था और ये देखने की कोशिश कर रहा था
कि कैसे अमिताभ ने दिलीप कुमार को मात दे दी। बचपन था,
तो यही निष्कर्ष भी निकाल लिया कि अमिताभ कहीं बेहतर है।
फिर बड़े हुए,
अभिनय की समझ गहरी हुई। पता चला मैलोड्रामा क्या होता है,
स्वाभाविक अभिनय क्या और मेथड एक्टिंग क्या बला है। इन सबको एक बारगी अलग भी रख
दिया जाये तो मेरी सरल सी परिभाषा ये है कि अभिनेता जिस पात्र को जी रहा है,
उस पात्र की हर भावना, हर संवेदना, हम तक पहुँचा सकने वाला अभिनेता ही उच्च कोटि का
अभिनेता है। ज़रूरी नहीं कि बहुत चीख-चीख कर कहे, या हाथ-पैर हिला-हिला कर
कहे, एक आदमी की तरह कहे, मगर कहे इस तरह की सीधे हमारे दिल तक उतर जाये।
तो ये समझ जब आनी शुरू हुई तब एक बार फिर जब वही फ़िल्में नज़रों के आगे से गुज़री तो समझ आया, कि दिलीप कुमार क्यों दिलीप कुमार हैं। जिस तरह हमारे दौर की तिकड़ी में आमिर अभिनय के मामले में सबसे आगे थे, उनके बाद शाहरुख और फिर सलमान थे। या यूं कहें कि आमिर हमारे दौर के दिलीप कुमार, शाहरुख, राज कपूर और सलमान, देव आनंद थे। अभिनय के मामले में यही क्रम था। न न, आप यूं न समझिएगा कि मैं आमिर और दिलीप कुमार की तुलना कर रहा हूँ। मैं सिर्फ कालखण्डों की तुलना कर रहा हूँ। क्योंकि, दिलीप कुमार अतुलनीय हैं। मैंने जब शाहरुख खान की देवदास देखी तो मन बहुत खराब हो गया था। मैंने शरतचन्द्र का उपन्यास भी पढ़ रखा था। इस देवदास ने उसकी आत्मा की धज्जियाँ उड़ा दी थीं। ये देवदास अश्लील थी। मैंने फिर दिलीप कुमार अभिनीत देवदास देखी, जो 1955 में बनी थी। इतनी पुरानी फ़िल्में आम तौर पर अपने पुरानेपन के कारण ही देखी नहीं जातीं पर दिलीप कुमार ने देवदास को जिस तरह जिया था, वो अद्भुत था। शरतचंद्र की कल्पना का देवदास हू-ब-हू यही था। बस यही तो चाहिए कहानी को एक अभिनेता से, और यही खूबी जिस व्यक्ति में अपने और अपने से बहुत आगे के समय तक में सबसे अधिक हो, वही दिलीप कुमार कहलाता है। फिर तो शक्ति भी मैंने दोबारा देखी और इस बार वाकई मैंने माना कि कौन है अभिनय सम्राट। इसी दौर में मैंने मशाल देखी। इस फ़िल्म के एक दृश्य के बारे में बहुत सुना था, जिसमें आधी रात को उनकी पत्नी सड़क पर मरने के कगार पर है और वो आते-जाते लोगों से मदद की गुहार लगा रहे हैं। उफ़्फ़! कौन निभा सकता है इस तरह किसी दृश्य को इस शिद्दत से? इस तरह के दृश्य में लाउड हो जाने का बहुत खतरा होता है पर आप देखिये कभी, किस स्वाभाविकता से उन्होने पूरा दर्द उसमें उंडेल दिया है। और मुगल-ए-आज़म को कौन भूल सकता है? एक-एक दृश्य में कमाल किया है।
कोई भी कलाकार कला के
सर्वोच्च शिखर पर तभी पहुँचता है जब अपनी कला के प्रति उसमें पूरा समर्पण हो,
दूसरों का तो ठीक ही है, पर अपने से भी ज़्यादा जो अपनी कला को महत्व देता
हो। फ़िल्म संगीत की दुनिया में ऐसा नाम अगर मोहम्मद रफ़ी थे,
तो अभिनय की दुनिया में दिलीप कुमार।
आपने फ़िल्म “कोहिनूर” का
गीत “मधुबन में राधिका नाचे रे” तो देखा ही होगा? एक बार फिर देखिये,
इसे पढ़ने के बाद। उस गीत में एक जगह दिलीप कुमार सितार का एक सोलो पीस बजाते हैं।
अब आप याद करिए वो सभी गीत जिनमें हीरो को कोई साज बजाते हुए दिखाया गया है। आपको
देखकर ही पता चल जाता है कि वो सिर्फ हाथ घुमा रहा है,
इस तरह साज नहीं बजता। लेकिन निर्देशक और अभिनेता सोचते हैं कि इन बातों पर किसी
का ध्यान नहीं जाता, और उस जमाने में तो वाकई कोई ध्यान देता भी नहीं
था। याद कीजिये ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के दौर में हर दूसरी फ़िल्म में हीरो
पियानो बजा रहा होता था, पर उसके हाथ बस हिलते भर थे। लेकिन दिलीप कुमार
ठहरे परफेक्शनिस्ट, उन्होने गीत सुना, उन्हें ये भी बताया गया
कि ये सितार पीस सोलो बजाते हुए दिखाना है, और ये कि इस गीत को शेड्यूल की शुरुआत में ही
फिल्मा लिया जाये। दिलीप साहब ने गुजारिश की कि इसे अंत में फ़िल्माया जाये ताकि वे
सितार का रियाज़ कर सकें। उनकी बात मान ली गई और उन्होने सितार सीखना शुरू किया
सितार वादक उस्ताद हलीम जाफ़र खान साहब से। सितार एक मुश्किल साज है,
उसे ठीक से बजाने में उन्हें 6 महीने लगे, रियाज़ से उँगलियाँ छिल गईं थी। आख़िर गीत की शूटिंग
में उन्होने वो पीस खुद बजाया, तभी तो वो इतना असली लगता है,
क्योंकि असली है।
ट्रेजेडी किंग (Tragedy King)
लगातार गमगीन किरदार करते-करते
वे अवसाद का शिकार हो गए थे। कारण वही था, कि किरदार के दुख को वे असल में जीते थे। उन्हें इसी वजह से ट्रेजेडी किंग कहा जाता है। हाल ऐसा हो
गया कि डॉक्टर के पास जाना पड़ा। डॉक्टर ने उन्हें कुछ समय के लिए इस तरह की फिल्में
करने से सख़्ती से मना किया और कुछ हल्की-फुलकी फिल्में करने की राय दी। तभी आई “राम
और श्याम”। अब तक जो लोग सोचते थे कि दिलीप कुमार सिर्फ संजीदा किरदार ही कर सकते हैं,
उन्हें इस फ़िल्म ने झटका दिया। वे ऐसे खिलंदड़ किरदार भी बखूबी निभा सकते हैं।
हमारी पीढ़ी ने उनका अंतिम दौर
ही देखा है, जब फ़िल्में बहुत ही घटिया बन रहीं थीं। उन मसाला फिल्मों
में वैसे तो उनके लिए कोई चुनौती नहीं थी, फिर भी जिन किरदारों को उन्होने जीवंत किया उनमें कर्मा,
मशाल, सौदागर प्रमुख हैं।
अभिनय के लिए इतनी ज़हमत हर
कोई नहीं उठाता। बाद के वर्षों में इस स्तर का समर्पण कमल हासन और आमिर ख़ान में ही
देखा गया है।
बतौर अभिनेता इतनी लंबी और सफल पारी खेलने के बाद उनके मन में अभिलाषा जागी निर्देशक की कुर्सी पर बैठने की। निर्माता सुधाकर बोकड़े के साथ फिल्म बनाना तय हुआ, फ़िल्म का नाम था “कलिंगा”। ये 1992 की बात है। ये उस समय की सबसे बड़ी खबर थी। खूब धूमधाम से फिल्म की शुरुआत हुई। हीरो लेना था सनी देओल को लेकिन उस समय सनी बहुत व्यस्त थे। घायल की सफलता के बाद बहुत सी फ़िल्में मिल गईं थीं। “कलिंगा” में भी हीरोइन मीनाक्षी शेषाद्रि ही थी। सनी ने डेट्स की समस्या के चलते इन्कार कर दिया। उनकी जगह एक नए अभिनेता अमितोज मान को लिया गया। फ़िल्म के दूसरे कलाकारों में दिलीप कुमार के अलावा जैकी श्रोफ़, राज बब्बर, राज किरण, शिल्पा शिरोडकर और अमज़द ख़ान थे। इस फ़िल्म के कारण दिलीप साहब ने अभिनय के सारे प्रस्ताव ठुकरा दिये। वे पूरा ध्यान इसी पर केन्द्रित करना चाहते थे।
कलिंगा, दिलीप साहब का महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट (kalinga)
फ़िल्म कछुए से भी धीमी गति से आगे बढ़ी, कुछ दिलीप कुमार के परफेक्शनिस्ट होने की वजह से और
कुछ दूसरी समस्याओं के लगातार आते रहने से। जब फ़िल्म काफी बन चुकी थी तब अचानक अभिनेता
राज किरण गायब हो गए। फ़िल्म में उनका बहुत महत्वपूर्ण किरदार था। दिलीप कुमार के साथ
उन्होने फ़िल्म मजदूर में काम किया था और तभी से दोनों के इतने घनिष्ठ संबंध थे कि दिलीप
कुमार उन्हें अपना बेटा मानते थे। राज किरण के गायब होने से वे बहुत परेशान हो गए।
उन्होने देश के हर कोने में राज किरण को ढूँढा पर वे नहीं मिले। दिलीप साहब ने एक निर्देशक
की तरह नहीं, एक पिता की तरह उन्हें खोजा था। 20 साल बाद राज किरण
ऋषि कपूर को कैलिफोर्निया के एक मेंटल हॉस्पिटल में मिले थे। समस्याओं से घिरी ये फ़िल्म
रुकते-चलते चार सालों तक बनती रही, और 70% बनकर बंद हो गई। अगर ये फ़िल्म शुरू नहीं होती
तो शायद हमें “सौदागर” के बाद दिलीप कुमार का कुछ और बेहतरीन काम देखने
को मिल सकता था। बी आर चोपड़ा अपनी फ़िल्म “बागबान” में भी उन्हें लेना चाहते थे,
जो बाद में अमिताभ बच्चन के साथ बनाई गई। इसी तरह सुभाष घई भी उनके साथ एक फ़िल्म “होम-लैंड”
शुरू करना चाहते थे पर कलिंगा ने उनका अभिनय करियर भी ख़त्म कर दिया। धर्मेंद्र इस फ़िल्म
में छोटे-से छोटा रोल करने को भी तैयार थे, क्योंकि दिलीप कुमार का वे बहुत सम्मान करते थे और
उनके साथ एक बार काम करना चाहते थे। इससे पहले नासिर हुसैन की फ़िल्म “ज़बरदस्त” और बी
आर चोपड़ा की “चाणक्य चन्द्रगुप्त” में दोनों को लिया गया था पर दोनों फ़िल्में बंद हो
गईं।
कई अभिनेताओ के गुरु और प्रेरणा
वे खुद अभिनय का एक स्कूल थे,
जिनसे प्रेरणा लेकर कई अभिनेताओं ने अपना करियर सँवारा। अमिताभ बच्चन और शाहरुख ख़ान
ने तो उनसे प्रेरणा ली है, मनोज कुमार तो उनके क्लोन ही थे। क्रान्ति में मनोज
कुमार ने जब दिलीप साहब को लिया तो दिलीप साहब बहुत असहज हुए,
उन्हें अपने अस्वाभाविक क्लोन का सामना करना था, आख़िर उन्होने अपने अंदाज़ में
परिवर्तन किया।
चुनिन्दा और पूरे फोकस के साथ
काम करने के ही कारण उनकी फिल्मों की गिनती उनकी कुल उम्र से कहीं कम है। मात्र 66
फ़िल्में उन्होने की हैं अपने पूरे कार्यकाल में। फ़िल्म “लीडर” और “गंगा जमुना” की कहानी
दिलीप कुमार ने ही लिखी थी। गंगा जमुना के तो निर्माता भी वही थे।
हम सिनेमा प्रेमी आज इस महान
कलाकार के इस दुनिया से जाने पर दिल की गहराइयों से श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। हालाँकि
कलाकार अपनी कला के माध्यम से हमेशा ज़िंदा रहता है।
ज्ञान वर्धक जानकारी है।
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