द कश्मीर फ़ाइल्स - राजनीति से अलग फ़िल्ममेकिंग के पैमाने पर

 


अच्छी फ़िल्म और खराब फ़िल्म में क्या अंतर होता है?
दोनों ही फ़िल्में एक आइडिया से शुरू होती हैं। एक विचार होता है जैसे एक विचार लेखक को आया कि 'एक लड़का है जो परिस्थितियों में फँसकर स्पर्म डोनेट करने लगता है"। बस यहीं से शुरुआत हुई होगी और इसका विस्तार होते-होते बन गई "विकी डोनर"। अब इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात क्या आई मालूम है?

कि ये विचार आया किसे है? अगर कोई अच्छा लेखक है तो वो इसके आसपास ऐसा ताना-बाना बुनेगा कि देखने वालों को लगेगा ही नहीं कि बात एक लाइन से शुरू हुई थी। देखने वालों को कहानी सीधे उसी तरह आसमान से उतरी हुई लगती है। जी हाँ, कई कहानियाँ ऐसी भी होती हैं जिन्हें पढ़-देखकर लगता ही नहीं कि किसी इंसान की रचना होगी। ये खूबी होती है एक अच्छे लेखक की। अगर यही लेखक फ़िल्म निर्देशक भी है तो सोने पे सुहागा और यदि नहीं तो ये दूसरा महत्वपूर्ण कदम होता है अच्छी फ़िल्म बनने का। अच्छा निर्देशक कहानी की कमियों को भी छुपा देता है वहीं बुरा निर्देशक एक अच्छी कहानी को भी मटियामेट कर सकता है।

इसका एक बढ़िया उदाहरण याद आया। बहुत पहले संजय दत्त और ऐश्वर्या राय की एक फ़िल्म आई थी "शब्द"। उस फ़िल्म का विचार बहुत ही अच्छा था। एकदम कमाल की फ़िल्म बन सकती थी लेकिन वही, लेखक में उस एक लाइन को विस्तार देने की प्रतिभा नहीं थी और उसने उसके आसपास वो कथा बुनी जो बेहद उबाऊ और अविश्वसनीय थी।

अब आते हैं मुद्दे पर। मुद्दे से पहले इतनी भूमिका यूँ बांधनी पड़ी कि जब कश्मीर फ़ाइल्स के बारे में ये माहौल देखा, पढ़ा तो मेरे मन में एक ही खयाल आया। विवेक अग्निहोत्री एक सी ग्रेड लेखक निर्देशक हैं, ये वे अपने करियर की शुरुआत में ही साबित कर चुके थे। उनकी पहली फ़िल्म थी "चॉकलेट"। मेरा फिल्मों का टैस्ट भगवान की कृपा से पैदाइशी बहुत अच्छा है। उस फ़िल्म को बहुत उम्मीदों के साथ देखा था क्योंकि स्टारकास्ट बहुत बढ़िया थी - अनिल कपूर, इरफ़ान ख़ान, सुनील शेट्टी, इमरान हाशमी, अर्शद वारसी।
इतने अभिनेताओं, उनमें भी इरफ़ान, को लेकर ऐसी घटिया फिल्म बनाना गुनाह-ए-अज़ीम है, पाप है। लेकिन बिलकुल घटिया फिल्म थी। थ्रिलर के नाम पर धब्बा थी। उस फिल्म के बाद "धन धनाधन गोल" के नाम से एक और उबाऊ फिल्म और फिर अपने आपको बेचने के लिए "हेट स्टोरी" और "ज़िद" के नाम से सॉफ्ट पॉर्न पर आ गए विवेक महोदय। नंगे होने पर भी काम नहीं चला पर उसी वक़्त बिल्ली के भाग से छींका टूटा और सरकार के साथ साथ पूरे देश का माहौल ही बदल गया। ये विवेक जैसे मौका परस्तों के लिए स्वर्ण युग था। ये आदमी अब तक चुप बैठा था, मस्जिदों में जाकर इबादत के फोटो भी खिंचवा आता था। यानि सफलता के लिए सारे हथकंडे इसने आजमाए हैं। पर ये जो अंधा युग शुरू हुआ था इसमें प्रॉफ़िट के बहुत chances बन रहे थे। थ्रिलर बना चुका, पॉर्न बना चुका, अब बचा था प्रोपगंडा। क्योंकि जिसे वाकई में कहानी कहा जाता है, सिनेमा कहा जाता है वो बनाने की प्रतिभा उसके पास थी ही नहीं। जिसके पास प्रतिभा की कमी होती है वो थ्रिल, पॉर्न या प्रोपगंडा का ही सहारा लेता है।
उसने कोशिश भी की थी कुछ अजीब सा बनाने की जिसका नाम "बुद्धा इन ट्रेफिक जाम" था। पर कुछ सार्थक बनाने के लिए अंदर कलाकार होना चाहिए। इस फिल्म के जरिये उसने विश्वविद्यालयों की नक्सलवादियों से लिंक बताने की कोशिश की जो सफल नहीं हुई। फिर जुनूनियत के नाम से एक बोरिंग लव स्टोरी बनाई और आखिर खुलकर एक प्रोपगंडा फिल्म बनाई "द ताशकंद फाइल्स", जब माहौल बहुत ही अनुकूल देखा। अफ़सोस, कि जो टार्गेट आडियन्स उनकी है वो उस विषय के लिए बहुत dumb है। आखिर उसने उस विषय को छुआ जो मालिकों को बरसों से सत्ता दिलाता आया था। यही पैसों की बरसात भी करने वाला था।

द कश्मीर फाइल्स।
कश्मीर के बारे में ढेरों किताबें लिखी गई हैं। लेकिन विवेक के लिए फायदा ये है कि भारतीय लोग अब पढ़ने-लिखने में विश्वास नहीं करते। बहुत थोड़े से लोग हैं जो जागरूक हैं, जिन्हें वस्तुस्थिति का ज्ञान है। बाकियों की बुद्धि whatsapp ने हर ली है। मैंने फिल्म देखना शुरू की और बहुत दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि थोड़ी सी ही देख पाया। मेरे लिए झेलना बहुत मुश्किल था।

ना, विचारधारा उसका कारण नहीं है। मेरी ये कमी है कि बकवास फ़िल्में मैं देख नहीं सकता। मैं कितनी ही कोशिश करूँ, मुझसे देखी ही नहीं जाती। और फिल्म बकवास कैसे होती है? हम फिर से उस सूत्र को पकड़ते हैं जिसकी बात हम शुरू में कर रहे थे। एक अच्छा लेखक-निर्देशक कहानी को कहानी नहीं रहने देता, ऐसा लगता है कि जो कुछ परदे पर घट रहा है, वो प्रकृति कर रही है, इसमें कोई इंसानी हाथ नहीं है। उसके लिए कहानी का जो बहाव है वो बिलकुल नैचुरल होना चाहिए, उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। कोई भी बात दर्शक के ज़हन में जबर्दस्ती डालने की कोशिश नहीं होनी चाहिए। आपने कई हास्य फ़िल्में देखी होंगी जिन्हें देखकर लगता है कि ये लोग हमें जबर्दस्ती हँसाने की कोशिश कर रहे हैं और वाकई में उन फिल्मों को लिखते वक़्त लेखक पूरे समय कोशिश में रहता है कि कैसे हर लाइन में हँसा दूँ, इस चक्कर में हास्य बरबाद हो जाता है। ये हर genre के साथ सही है।
काश्मीर फाइल्स की सबसे बड़ी कमी यही है। ये ठीक है कि ये एक विशेष विचारधारा के प्रचार और जनता को उत्तेजित करने के लिए बनाई गई फिल्म है लेकिन इसे भी filmmaking के सिद्धांतों पर बनाया जाता तो शायद निष्पक्ष न होने के बावजूद अच्छी कही जाती। अफ़सोस, कि दक्षिणपंथ के पास स्तरीय कलाकारों का हमेशा अकाल होता है क्योंकि सच्चा कलाकार हमेशा मानवता से ओतप्रोत होता है, उसकी कल्पना में पूरा विश्व समाया होता है, उसके अंदर पूरे विश्व के लिए करुणा होती है, फिर कैसे वो एक की हत्या को नाजायज और दूसरे की हत्या को जायज़ ठहरा सकता है? बस इसीलिए विवेक और चेतन भगत जैसे व्यापारी कलाकार का भेस बनाकर इनके साथ हो लेते हैं।

कश्मीर फाइल्स का पहला ही सीन - कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं, एक रेडियो में क्रिकेट कमेंटरी चल रही है। तीन आदमी आग तापते बातें कर रहे हैं। सचिन ने सिक्सर मारा है और क्रिकेट खेलता बच्चा खुशी से उछलने लगता है। दूसरा बच्चा उसे चुप रहने को कहता है पर तब तक तीनों बड़े आदमियों ने सुन लिया है। वो तीनों क्रोधित होकर उस बच्चे को पीटने लगते हैं। एक फिल्म लेखक होने के नाते इस दृश्य की बनावट मुझे बहुत ही बचकानी लगी। पहले कुछ शॉट्स में ही निर्देशक ने establish कर दिया था कि ये तीन आदमी इस बच्चे के साथ कुछ करेंगे। फिर जबर्दस्ती सीन को लंबा खींचा गया। दृश्य देखकर साफ़ समझ आ जाता है कि लिखने वाले का उद्देश्य इस दृश्य के जरिये क्या बताना है। ये सबसे बड़ी कमी है एक लेखक की। फ़िल्म अपने मूल उद्देश्य पर बहुत देर से आनी चाहिए। एक बिल्ड अपनाम की चीज़ होती है, जो निहायत ही ज़रूरी तत्व है एक फिल्म का। एक प्रेम कहानी में पहले ही दृश्य में आप प्रपोज़ करवा कर हाँ करवा देंगे तो फिल्म असफल है। सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है उनके दिलों में प्रेम के बीज कैसे पड़े ये बताना। इसके लिए शुरू आपको करना पड़ेगा तब से जब दोनों एक दूसरे को जानते ही नहीं थे। कश्मीर फाइल्स बिल्ड अप के मामले में पूरी तरह फ़ेल है। विवेक बाबू को इतनी जल्दी है आपको भड़काने की कि ये काम पहले ही दृश्य से शुरू कर देते हैं।
फिल्म का दूसरा ज़रूरी तत्व होता है दृश्यों की लड़ी बनाना और एक अच्छा लेखक एक जैसे दृश्य लगातार कभी नहीं रखता। हॉलीवुड में तो हर दृश्य को एक रंग दिया जाता है, उसके भाव के आधार पर, और कड़ी मेहनत से ऐसे जमाया जाता है कि एक ही रंग लगातार न आए। यहाँ तो हर दृश्य में वही एक रंग चल रहा है।

एक महान फिल्म तब बनती है जब फिल्म में पर्दे पर नज़र आने वाला हर अभिनेता, चाहे वो आधे मिनट के लिए ही क्यों न आ रहा हो, अपना बेहतरीन प्रदर्शन करे। यहाँ एक्सट्रा कलाकारों के नाम पर बैक बेंचर्स की भर्ती कर ली गई है। पहले दृश्य में जो तीन आदमी दिखाये हैं उन्होने इतनी खराब एक्टिंग की है कि गुस्सा आता है। दृश्य चाहे वाहियात हो पर अच्छा अभिनेता उसमें भी थोड़ी जान तो डाल ही देता है, और कई बार तो उस दृश्य को जानदार ही बना देता है। यही दूसरे दृश्य में भी होता है। एक माँ-बेटी घर से निकलती हैं और पुलिस वाला विवेक बाबू के कहने पर (ऐसा साफ नज़र आता है) दौड़ कर जाता है और उन्हें जबर्दस्ती पकड़ कर अपने ठीये पर ले जाता है। अब तक वो बोरी के पीछे छुपा था पर माँ बेटी को लाकर बोरी के सामने बैठकर खुद भी वहीं बैठ जाता है क्योंकि विवेक बाबू के कहने पर आतंकवादी आने वाले हैं और इनको गोली मारने वाले हैं। डाइलॉग डेलीवेरी की तो बात ही न करें। जो आदमी कैमरा के सामने ठीक से दौड़ नहीं पा रहा वो बोलेगा क्या खाक?
अगले सीन में महान देशभक्ष अनुपम खेर नज़र आते हैं महादेव के भेस में। कैमरा जान-बूझकर ऊपर टांगा गया है और खेर साहब जबर्दस्ती ओंकार का जाप कर रहे हैं और जाने क्यों आँखें फाड़कर खड़े हैं। किसी नाटक की रिहर्सल होनी है। कोई कहता है आज नहीं करते, माहौल ठीक नहीं है तो खेर साहब जवाब देते हैं कि मैंने बहुत देखे हैं ऐसे जुलूस। डाइलॉग निश्चिंत करने वाला है और मुख-मुद्रा परेशान। कुछ भी, कहीं भी ठहरता नहीं है, मतलब किसी भी दृश्य में ठहराव नहीं है। निर्देशक को आतंकवादी दिखाने की बहुत जल्दी है। कैरक्टराइजेशन से उन्हें कोई लेना-देना नहीं है जो कि फिल्म की सबसे महत्वपूर्ण चीज़ है। characters को establish भी नहीं करना चाहते वे। अगले दृश्य में एक हिन्दू अपने पड़ोसी से माहौल के बारे में पूछ रहा है, यहाँ भी विवेक बाबू फिर से हमारे ज़हनों में जबर्दस्ती ठूँस रहे हैं कि पड़ोसी गद्दार है। ये जबर्दस्ती साफ ज़ाहिर है। यही चीज़ शिकारामें भी दिखाई थी लेकिन इसे किस तरह दिखाना चाहिए ये उससे सीखना चाहिए था, ख़ैर वो विधु विनोद चोपड़ा हैं, मास्टर स्टोरी टेलर।
फिर घर में घुसते हैं आतंकवादी और इन आतंकवादियों के डाइलॉग सुनकर आपको सदाशिव अमरापुरकर की फिल्में याद आ जाएंगी। खेर साहब घर में घुसकर उसे कहते हैं तू तो मेरा स्टूडेंट था बट्ट तो बट्ट कब्जियत से परेशान मुंह बनाकर कहता है "कमांडर बट्ट साहब बोल" और फिर उसके गुर्गे खेर साहब को यही बोल-बोल कर पीटने लगते हैं। इसके बाद मैंने फ़िल्म आगे बढ़ा-बढ़ाकर देखने की कोशिश की जिसमें मुझे भूतपूर्व नक्सली और वर्तमान देशभक्ष मिथुन भी नज़र आए, कुछ दृश्य और देखने के बाद मैं बेहोश हो गया।

तो उन सभी से माफ़ी, जो मुझसे पूरी फिल्म की समीक्षा की उम्मीद रख रहे थे।
मेरा verdict ये है कि ये एक थर्ड ग्रेड प्रोपगंडा फिल्म है जो शुरुआती कुछ दृश्यों से ही समझ आ जाता है। फिल्म सीधे पंडितों के ख़ून-खराबे से शुरू होती है जबकि असल में शुरुआत मुस्लिम नेताओं की हत्या से हुई थी। अंडरलाइन करने के लिए खेर साहब का surname सीधे पंडित ही रखा है और नेम प्लेट भी दिखाई है। दूसरा पक्ष जानने के लिए प्रसिद्ध लेखक श्री अशोक कुमार पाण्डेय का विडियो देखें जो यूट्यूब पर उपलब्ध है। उन्होने तथ्यों के साथ पूरा घटनाक्रम बताया है।

प्रोपगंडा को नज़र अंदाज़ भी कर दिया जाये और फिल्म को लेखन और निर्देशन की कसौटी पर कसा जाये तो ये एक वाहियात फिल्म है जो फिल्म्मकिंग के हर मापदंड पर फ़ैल है, फिर चाहे वो कैरक्टराइजेशन हो, सेट-अप हो, डाइलॉग हों, अभिनय हो या फ्लो हो। एक कहानी के तीन हिस्से होते हैं – establishment, conflict और resolution। ये फिल्म पहले हिस्से को स्किप करके सीधे conflict को पकड़ती है जो इसका सबसे बड़ा failure है। विवेक से मुझे उम्मीद थी कि शायद एक निर्देशक के तौर पर उनमें निखार आ गया हो, लेकिन वे अब भी सी ग्रेड लेखक निर्देशक हैं जो प्रोपगंडा बेचकर अपनी जेब भरना चाहता है।

काश्मीर में जो हुआ था वो बेहद शर्मनाक और दुखद था लेकिन ये लोग उसके नाम पर जो कर रहे हैं ये उससे भी शर्मनाक है। और अगर अगला कोई जनसंहार होता है तो इनके हाथों पर भी ख़ून होगा। कश्मीर का इतिहास अगर आप जानना चाहते हैं तो बहुत सी किताबें उपलब्ध हैं। सभी आपको स्कूल में नहीं पढ़ाई जा सकतीं। ज्ञान को बढ़ाना आपकी अपनी ज़िम्मेदारी है, सरकारों की नहीं। इतिहास का शौक रखते हैं तो किताबों का रखना ही पड़ेगा।

अंत में - शिकारा इससे कई गुना बेहतर फिल्म है। कई लोगों की शिकायत है कि उसमें लव स्टोरी है। साहब नफरत का सबसे स्ट्रॉंग कांट्रास्ट प्रेम ही होता है। उसी के backdrop में नफ़रतें नंगी नज़र आ सकतीं हैं, इसीलिए शिकारा में कहानी को प्रेम के जरिये कहा गया है। उसका उद्देश्य नफ़रतों को उकेरना नहीं बल्कि प्रेम की महत्ता साबित करना था। दोनों फिल्मों के मूल उद्देश्य में ही अंतर है। ऐसे ही शिण्ड्लर्स लिस्ट जब आप देखते हैं तो करुणा से भर जाते हैं, नफरत से नहीं। अगर विवेक बाबू उसे बनाते तो शायद यहूदी हथियार उठाकर मारकाट मचाने लगते।

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टिप्पणियाँ

  1. क्या कहने, दिल जीत समीक्षा है, धन्यवाद बात मानने और समीक्षा करने के लिए 🙏💐

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