धर्म - फिल्म के बहाने



 2006 में एक फ़िल्म आई थी - "धर्म"

अफ़सोस, कि ये फ़िल्म समय से बहुत पहले बन गई। उस वक़्त बॉलीवुड का सार्थक सिनेमा की तरफ़ झुकाव नया-नया हुआ था, छोटी फिल्में बनने लगीं थीं, पर बिना स्टारकास्ट वाली फिल्मों को सफ़लता कम ही मिलती थी।

पंकज कपूर को मुख्य भूमिका में लेकर फ़िल्म बनाना लाभ कमाने के उद्देश्य से तो नहीं ही किया जा सकता था। फ़िल्म में पंकज कपूर ने काशी के बहुत बड़े पंडित की भूमिका निभाई है। पंडित चतुर्वेदी के लिए धर्म धंधा नहीं है, उसने उसे जीवन में उतार लिया है। साधना और आराधना ही उसके जीवन का ध्येय हैं। इस बात से वे पंडित कुढ़ते हैं जो घाट पर ग्राहकों का शिकार करने की घात में बैठे रहते हैं। चतुर्वेदी का व्यक्तित्व और ज्ञान ऐसा है कि कोई सीधे उनसे पंगा नहीं ले सकता।

एक दिन घाट पर उनकी बेटी को एक लावारिस बच्चा मिलता है। पत्नी, बेटी की ज़िद पर वे बच्चे को अपने घर में रख तो लेते हैं पर उससे दूर ही रहते हैं, इस अंदेशे पर कि जाने किसका बच्चा होगा । पर बचपन तो भगवान का रूप होता है, मूर्तियों के बदले उस बच्चे के अंदर का भगवान पंडित जी को लुभाने लगता है, बच्चा उनके दिल में ऐसी जगह बना लेता है कि उनके लिए सब कुछ वही हो जाता है। इंसान प्रेम में ही खूबसूरत हो सकता है, अगर आपने भी किसी से भी, चाहे वो बच्चा हो या बड़ा, ऐसे डूब कर प्रेम किया हो तो आपको पता होगा दुनिया कितनी अलग होती है। सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा होता है, ऐसे में ही एक दिन पता चलता है कि बच्चा एक मुस्लिम परिवार का था। उसकी माँ उसे लेने आ गई है। बस, चतुर्वेदीजी के अंदर और बाहर की दुनिया में बवंडर खड़ा हो जाता है। एक तरफ बच्चे के लिए प्रेम और दूसरी तरफ धर्म भ्रष्ट हो जाने की ग्लानि। इतने दिन एक मुस्लिम को अपने घर में रखा? वे कड़ा प्रायश्चित्त करने लगते हैं। 

ये बात बाहर भी पता चलती है। पंडितजी के विरोधी और धर्म के छद्म ठेकेदारों को मौका मिल जाता है, वे इसका फायदा पंडित जी को बदनाम करने और शहर में सम्प्रदायिक तनाव पैदा करने के लिए उठाते हैं, जैसा कि कुछ लोग बरसों से करते ही आए हैं। ये गिद्ध घात में रहते हैं। दंगा भड़क जाता है...पंडित जी किंकर्तव्यवईमूढ़ से हो जाते हैं। उनके अंदर और बाहर तूफ़ान खड़ा हो गया है। इन्हीं सब आंधियों के बीच पहली बार उन्हें समझ आता है कि वास्तविक धर्म क्या है? कि ये अंतर्द्वंद्व क्यों उठ खड़ा हुआ? मान्यता और वास्तविकता में कुछ तो गहरा फ़र्क़ है, तभी तो ये उलझन है।

फ़िल्म बहुत ही सधे हुए तरीके से, बिना उपदेशात्मक हुए वो कह जाती है जो कहना चाहिए। सारे दोगलेपन और जहालत को खोल कर रख देती है। ऐसा नहीं है कि काल्पनिक बातें दिखाई हों, सब कुछ वही है जो हमारे आसपास घटित होता है।

एक पंडित है जो चतुर्वेदी से जलता है। चतुर्वेदी को धार्मिक समस्या में फँसा देख उसे अवसर नज़र आता है, वो दंगाइयों के साथ हो जाता है। फ़साद होता है, वो पंडित भी सड़कों पर उतर जाता है मगर जब बहता हुआ ख़ून देखता है तो बर्दाश्त नहीं कर पाता, उसके अंदर का इंसान जाग जाता है। उसका बैर व्यावसायिक था लेकिन वो किसी का गला नहीं काट सकता था, ये उसकी फ़ितरत नहीं है, उसका धर्म इसकी इजाज़त नहीं देता। वो ज़ार-ज़ार रोने लगता है लेकिन पाप तो सर चढ़ चुका। हममे से अधिकांश की ये फ़ितरत नहीं होती है। अगर आप को याद हो, गुजरात दंगों में एक युवक की तलवार उठाए नारे लगाती तस्वीर बहुत प्रसिद्ध हुई थी, बल्कि वही उन दंगों की पहचान बन गया था। नेताओं के उकसावे पर खून-खराबा तो कर लिया लेकिन होश में आने पर आत्मा कचोटने लगी। वो आज तक पश्चाताप में जल रहा है। वेब सिरीज़ “ग्रहण” में इसी तरह का एक पात्र है “गुरु”। दंगों के बीच उस पर जैसे जुनून तारी हो जाता है और वो एक के बाद एक ढेर सारे लोगों को मार देता है लेकिन उसके बाद का उसका जीवन रोज़ मरने की तरह ही हो जाता है। अगर आपके अंदर आत्मा है तो वो आपको सोने नहीं देती।

शिण्ड्लर्स लिस्ट का शिंडलर कोई हीरो नहीं था। शिंडलर की कहानी काल्पनिक नहीं है। वह एक असफल व्यापारी था। कई धंधों में नुकसान उठाकर हथियारों के धंधे में उतरा था लेकिन अपने आसपास घटनी घटनाओं से उसके अंदर का इंसान तटस्थ नहीं रह पाता। वो उन आम लोगों में से ही एक होता है जो किसी भूखे को देखकर उसे खाना देने के लिए मजबूर हो जाते हैं। कोई बदले की भावना नहीं, कोई युद्ध नहीं, कोई लड़ाई नहीं, ये करुणा ही शिंडलर को महान बनाती है, इसी करुणा का चित्रण शिण्ड्लर्स लिस्ट को महान फिल्म बनाता है। यही है धर्म, यही है ज्ञान। फिल्म धर्म इसी की पड़ताल करती है। और इसके उलट इंसान से इंसान की नफरत को ज़रूरी ठहराती फ़िल्म "द कश्मीर फ़ाइल्स" इसलिए घृणित फ़िल्म है। 



अभिनय के मामले में पंकज कपूर को जज करना बेवकूफी ही होगी, ऐसा कोई किरदार नहीं जिसे उन्होंने excellance के साथ न निभाया हो। उनकी पत्नी के महत्वपूर्ण किरदार में सुप्रिया पाठक ने उसी स्तर का साथ दिया है। फ़िल्म 2007 में आई थी और तब पंकज त्रिपाठी की दर्शकों में कोई पहचान नहीं थी। मैंने भी पहली बार ही उन्हें देखा था और देखकर लगा था कि ये बहुत बेहतरीन अभिनेता है, जो भी है। एक कट्टरपंथी हिन्दू जिसे न अपने धर्म का ज्ञान है, न शास्त्रों का, वो किस बेशर्मी के साथ उस धर्म का ठेकेदार बनता है ये इस फ़िल्म ने इस अंधे युग की शुरुआत से 7 साल पहले ही दिखा दिया था। उस समय के लोग संख्या में कम थे या सुसुप्तावस्था में थे, कालांतर में ये सारे zombies सक्रिय हुए और देश को खा गए। जलनखोर पंडित की भूमिका "दया शंकर पांडे" ने बखूबी निभाई है। ये फ़िल्म जब बनी तब "हासिल" फ़िल्म से हृषिता भट्ट ने अच्छी लोकप्रियता पा ली थी, उनकी भी इसमें एक महत्वपूर्ण भूमिका है। मुझे हृषिता हमेशा से अच्छी लगी हैं पर उनका करियर ज़्यादा नहीं चल पाया। 

धर्म "काँस फ़िल्म महोत्सव" की क्लोज़िंग फ़िल्म थी, 2007 के राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार समारोह में इसे "Nargis Dutt award for best film on national integration" मिला था। "Asian festival of first films" में इसे स्वरोव्स्की ट्रॉफी प्राप्त हुई थी। इसके अलावा विश्व के कई बड़े फ़िल्म समारोहों में इसका प्रदर्शन हुआ, इसके वर्ल्ड राइट्स फ़िल्म्स डिस्ट्रिब्यूशन, फ़्रांस ने लिए थे। इतना सब कुछ हो गया था पर इससे भारत के आम दर्शक को कोई लेना देना नहीं था, धर्म बॉक्स ऑफिस पर फ्लॉप रही। ये जनता किसी नीरो के इंतज़ार में थी शायद। 

अब आते हैं भारत की सबसे बड़ी ख़ूबी पर, जिस फ़िल्म ने पहले ही दुनिया में झंडे गाड़ रखे थे, वो फ़िल्म ऑस्कर में नहीं भेजी गई। ऑस्कर समिति ने इसकी बजाय किसे भेजा पता है? "एकलव्य: द रॉयल गार्ड" को। मुझे पक्का विश्वास है की उस फ़िल्म को ख़ुद विधु विनोद चोपड़ा नहीं देख पाते होंगे और अब देखकर शर्मिंदा भी होते होंगे। वो फ़िल्म उनकी सबसे खराब फ़िल्म थी। और उस फ़िल्म को ऑस्कर के लिए भेजा गया। oscars में हर साल ये लोग अपनी मट्टी पलीद करवाते हैं। ज़रूर समिति में इन्हीं सुसुप्त zombies में से कोई होगा। फ़िल्म की निर्देशक थीं "भावना तलवार" और ये उनकी पहली ही फ़िल्म थी। पहली फ़िल्म होने के लिए ये बहुत, बहुत बड़ी उपलब्धि थी।  एकलव्य के ऑस्कर में जाने पर भावना तलवार चुप नहीं बैठीं, क्योंकि वे एशियन एज में पत्रकार रही थीं। उन्होने ऑस्कर समिति के खिलाफ़ कोर्ट में मुक़दमा किया पर बाद में उसे वापस ले लिया क्योंकि तब तक ऑस्कर की deadline निकल चुकी थी। शायद यही वजह रही कि उनकी अगली फिल्म "Happi" 2019 में आई, सीधे 12 साल बाद। इतनी प्रतिभाशाली निर्देशक की कोई फ़िल्म इस बीच नहीं बनी। ये देश सचमुच अजूबा है। 

अगर आपने अब तक नहीं देखी तो ज़रूर देखिये। फिल्म यूट्यूब और ज़ी5 पर उपलब्ध है।

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टिप्पणियाँ

  1. एक दम स्वच्छ टिप्पणी, धर्मिक द्वेष को कम करने वाली कहानियों को आगे ऑस्कर के लिए भेजा जाना चाहिए।

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  2. बेनामी4:37 pm

    बढ़िया

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  3. बेनामी5:02 pm

    ढूंढ ली है देखी जाएगी ❤️

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