कौन प्रवीण तांबे? - एक फिल्म जिसे देखना ज़रूरी है।

 


कौन प्रवीण तांबे?

कौन मैं?

इस फिल्म को देखकर बस यही प्रश्न गूँजता रहा। प्रवीण तांबे मेरी दुखती रग साबित हुआ। न जाने कितनी बार मुझे अपने आप को सख़्ती से कंट्रोल करना पड़ा।

ज़िंदगी में सही समय पर अगर चूक जाएँ तो ज़िंदगी उसका इतना भारी जुर्माना वसूल करती है कि उसके नीचे पूरा वजूद दब जाता है। एक नए लड़के को अपने जुनून के लिए जो संघर्ष करने होते हैं वो तो एक नियम ही है, लेकिन उस आदमी का संघर्ष असीमित हो जाता है जो इस समय को पार कर देता है। ये उस बाधा दौड़ की तरह है जिसमें लेवेल बढ्ने के साथ-साथ बाधाओं का लेवेल भी बढ़ता जाता है, और खौफ़नाक होता जाता है। अव्वल तो आदमी एक या दो लेवेल बढ्ने के साथ ही अपने हाथ खड़े कर देता है और दुनियादारी में लग जाता है। फिर बुढ़ापे में एक टीस के साथ बयां करता है अपने जुनूनी समय को लेकिन तब वो दूसरों के लिए सिर्फ मज़ाक का विषय ही होता है। बहुत ही कम लोग इस जुनून को बढ़ती बाधाओं के साथ भी जारी रखते हैं और जहन्नुम में जीते रहते हैं, पर इस सब के बाद भी जन्नत नसीब हो, पक्का नहीं। जैसा कि इस फिल्म के एक डाइलॉग में कहा गया है जब तांबे का दोस्त उससे कहता है “तू या तो पागल है या महान” तो तांबे जवाब देता है “सक्सेस हो गया तो महान नहीं तो पागल”। बस यही है फलसफ़ा। दुनिया का पैमाना सफलता है। एक आदमी जो किसी चीज़ के जुनून में दिन-रात एक कर दे वो पागल है जब तक सफल नहीं हो जाता और सफल होते ही वही यार-दोस्त जो उसके पीठ पीछे उसका मज़ाक बनाकर टाइम पास किया करते थे या जिनमें से कोई कभी उसे जलील भी कर देता था, एक सुर में कहने लगते हैं “हमें तो मालूम था, ये एक दिन ज़रूर कुछ बहुत बड़ा करेगा”।

ख़ैर, जिसके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई? प्रवीण तांबे का दर्द सिर्फ प्रवीण तांबे ही जानता है।

श्रेयस तलपड़े ने इकबाल के बाद एक बार फिर वही राह पकड़ी है जिसे बुरी संगत में पूरी तरह से भूल चुके थे। इनकी कहानी भी कुछ-कुछ प्रवीण तांबे की ही कहानी है। एक संभावनाओं से लबरेज अभिनेता जिसे अपने करियर की शुरुआत में ही 1-2 बेहतरीन फिल्में मिल गई लेकिन उसके बाद पता नहीं क्यों बड़े स्टार्स की फूहड़ फिल्मों में छोटे, भद्दे किरदार करने लगा ये अभिनेता। सच कहूँ तो मुझे श्रेयस तलपड़े से चिढ़ हो गई थी। उन्होने रितेश देशमुख वगैरह के साथ बहुत ही घटिया फिल्मों में बिलकुल ही बेकार के पात्र निभाए हैं। मुझे ऐसा लगा था कि ये एक्टर एक fluke था। लेकिन इस फिल्म में उन्होने साबित किया कि वो फ्लूक नहीं था बल्कि सचमुच एक्टर था। शायद उनकी अपनी पसंद ठीक नहीं थी या परिस्थितियाँ वैसी बनी हों जो उन्होने ऐसे किरदार निभाए। इस फिल्म से उन्हें फिर एक बार मौका मिला है अपने आप को साबित करने का और बख़ूबी साबित किया है। उन्होने प्रवीण तांबे को स्क्रीन पर हु-ब-हू उतार दिया। फिल्म का आर्ट वर्क गजब का है। मध्यम वर्गीय मराठी परिवार, उनका घर और उनके आपसी रिश्ते को बख़ूबी दिखाया है। बैक्ग्राउण्ड स्कोर और अच्छा हो सकता था। और गाने वैसे तो 1-2 ही हैं, वो नहीं होते तो और भी अच्छा होता क्योंकि जिस तरह के गीत ये लोग आजकल बनाते हैं वो कहानी में कुछ जोड़ते तो नहीं हैं अलबत्ता कानों में से खून ज़रूर बहने लगता है। एक शब्द पकड़ लिया “खामखा”, अब उसी को रगड़े जा रहे हैं अलग-अलग तरह से चीख-चीख कर। और वही एक धुन जो पिछले 10 सालों से चली आ रही है, वही एक रेजमाल जैसी आवाज़ जो हर गाने के साथ आपको लहूलुहान करती है। पहले मैं फिल्मों में कम होते गीतों के चलन से दुखी था, पर अब कहता हूँ बंद कर दो ये चलन। हम पुराने गीत सुनकर ही गुज़ारा कर लेंगे पर इन लोगों की जानलेवा आवाज़ें और शोर-शराबे से हमें मुक्त करों।

कास्टिंग बहुत अच्छी है, खास तौर पर लीड एक्टर की। अभिनय सभी का अच्छा ही है। आरिफ़ जकरिया ऐसे अभिनेता हैं जिन्हें स्क्रीन पर देखना हमेशा अच्छा लगता है।

परम्ब्रता चटर्जी बॉलीवुड को हाल ही में मिले बहुत अच्छे अभिनेताओं में एक हैं। इस फिल्म में उन्होने एक पत्रकार सान्याल का किरदार किया है जो बिना वजह तांबे के खिलाफ़ रहता है। कहानी जीवन की बारीकियों को भी अच्छी तरह पकड़ती है। जैसे दोनों भाइयों की शादी होती है लेकिन चॉल में छोटा सा घर है, सुहाग रात मनाने की सुविधा नहीं है। एक ही कमरा है जिसमें कोई एक जोड़ा ही सो सकता है। चिट उछालना तय होता है, जिसका नाम आएगा उसी कि होगी सुहागरात। प्रवीण दोनों में बड़े भाई का नाम लिख देता है फिर अपनी पत्नी को समझाता है हनीमून  के लिए अच्छी जगह जाएंगे – “दापोली”। अंजली पाटिल बेहतरीन हैं। एक मिडिल क्लास पत्नी के रोल में जान डाल दी है उन्होने। उनके चेहरे की मासूमियत इसमें चार चाँद लगा देती है। आशीष विद्यार्थी अपने किरदार में पर्फेक्ट हैं, आखिरकार ओवर एक्टिंग को तिलांजलि दी उन्होने।

कुछ दृश्य वाकई दिल को चीर कर निकल जाते हैं। तांबे रात में वैटर का काम करने लगता है और दिन में ट्रेनिंग लेता है। वहीं सान्याल पहुंचता है। तांबे को देखकर उसे एक खुशी मिलती है, किसी के दुख को देखकर जो खुशी मिलती है वही खुशी। उसे तांबे को चोट पहुंचाकर खुशी मिलती है। खामोशी से देर तक टॉर्चर करने के बाद जब वो चला जाता है तब तांबे के अंदर का जो दुख और गुस्सा फूटता है वो हिला देता है। या अन्त में जब इतने लंबे संघर्ष का सिला मिलता है, सच में चोक कर देता है।

जो लोग क्रिकेट की जानकारी नहीं रखते उनके लिए बता दूँ, प्रवीण तांबे एक असल क्रिकेटर है। 2017 में उन्हें पहली बार आईपीएल में चुना गया था। वे भारत के पहले खिलाड़ी हैं जिसने सीपीएल भी खेला है।

दर असल ये फिल्म उस लंबे, बहुत लंबे संघर्ष को उतनी ही लंबाई से दिखाने और महसूस करवाने में सफल है, और इसीलिए ये एक महान फिल्म है। निर्देशक जयप्रद देसाई का काम अव्वल दर्ज़े का है। इससे पहले उन्होने एक फीचर फ़िल्म "नागरिक (मराठी)', और एक वेब सिरीज़ "हुतात्मा" बनाई है। एक अच्छा निर्देशक और लेखक ही फ़िल्म को पार लगाता है या डुबो देता है। "83" भी एक महान फ़िल्म हो सकती थी लेकिन उसके लिए निर्देशक कबीर खान नहीं होने चाहिए थे। अफ़सोस ये है कि इस देश में संसाधन हमेशा अयोग्य को ही उपलब्ध होते हैं, योग्य लोग जुगाड़ से जीवन चलाते हैं। इतना पैसा जयप्रद देसाई की टीम को मिल जाता तो कपिल देव की जीवनी यादगार बन जाती। मेरा मानना है कि कपिल देव की कहानी भी अवश्य कही जानी चाहिए, 83 बुरी नहीं है मगर कपिल देव के साथ न्याय नहीं करती।

थ्रिलर के मकडजाल से मुक्त होना आजकल बहुत मुश्किल है। हर प्लैटफ़ार्म पर खूनी कहानियाँ बिखरी पड़ी हैं। ये थ्रिल अफ़ीम की तरह है जिसे रोज़ चटा-चटाकर आपको इसका आदी बनाया जा रहा है। जनता के ज़हन अब खूनी हो चुके हैं, किसी कहानी में अब अगर कुछ चौंका देने वाली घटना न हो तो लोग चैनल बदल देते हैं। साहित्य और सिनेमा का उच्चतम स्तर वो होता है जब ये मानवीय भावनाओं का बारीकी से चित्रण करती हैं, इस पैमाने पर खरी न उतरने वाली कहानियों को ही पहले लुगदी साहित्य के नाम से पुकारा जाता था। अब लुगदी ही श्रेष्ठ है और श्रेष्ठ का नया नाम उबाऊ है। इंसान अब फिल्में देखकर, कहानियाँ पढ़कर रोना नहीं चाहता, उसे हमेशा हंसी-ठट्ठे का खून-खराबे का बहाना चाहिए। इसे “अ ग्रेट एस्केप” कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिन चीजों से इंसान भागना चाहता है, भुला देना चाहता है, उन्हीं से तो बना है वो। कहते हैं जो आदमी रो नहीं सकता वो विक्षिप्त हो जाता है। देख रहे हैं आप? रोना हँसने से कितना ज़्यादा महत्वपूर्ण है? एक फिल्म देखकर जो आपके आँसू बह जाते हैं, वो आपके अंदर के किसी न किसी दुख को अपने साथ बहा ले जाते हैं। आप अंजाने ही अपने किसी दबे-छुपे दर्द से मुक्त हो जाते हैं। यूँ ही नहीं पुराने उदास गीत कालजयी हो गए। कितने ही लोग होंगे जो “एक प्यार का नगमा है” सुनकर रो पड़ते होंगे। ये रोना शर्म की नहीं, गर्व की बात है। गर्व इस बात का कि अभी आप भगोड़े नहीं हुए, मशीन नहीं हुए, इंसान हैं।

तो रोइए प्रवीण तांबे का संघर्ष, उसका दुख, उसकी बेचैनी देखकर क्योंकि कहीं न कहीं हर इंसान में एक मरा हुआ प्रवीण तांबे होता ही है।

और हाँ, अन्त में एक बात और कहूँगा - श्रेयश तलपड़े ज़िंदाबाद।



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