Thar - Review

 




अनिल कपूर इस बार खुद ही अपने बेटे को लेकर मैदान में उतर पड़े हैं। थार को लेकर कोई उत्साह नहीं था मन में, फिर भी कुछ मित्रों के सुझाव पर देखने बैठा।

शुरुआत बहुत ही शानदार थी। एक गिद्ध बंजर पहाड़ों के ऊपर मँडराता हुआ और पीछे राजस्थानी folk बजता हुआ। लगा कि कुछ बेहतरीन देखने वाले हैं। एक घर में लूट होती है, फिर होती है अनिल कपूर की एंट्री। कुछ अभिनेता अपने आसपास ऐसा ऑरा बना लेते हैं कि उनकी उपस्थिती मात्र से ही स्क्रीन में जान आ जाती है। अनिल कपूर ऐसे ही अभिनेता हैं। इंस्पेक्टर सुरेखा सिंह बरसों से इंस्पेक्टर ही हैं, तरक्की नहीं हो पाई उनकी, इसकी टीस है उनके मन में। करने को इस गाँव में कुछ है भी नहीं। इस लूट और हत्या की इन्वैस्टिगेशन शुरू होती है। अगले ही दिन एक पेड़ से लटकी हुई लाश मिलती है सुआ की। उसे बहुत बर्बरता से मारा गया है। उसके कान छुरी से काट लिए हैं और सीने में कुल्हाड़ी धँसी हुई है। ये गाँव सरहद के पास है जहाँ से अफीम की स्मगलिंग होती है। ये केस भी उसी से जुड़ा लग रहा है। तफ़्तीश के दौरान अनिल कपूर को अपने सीनियर से भी जलील होना पड़ता है। फिर एंट्री होती है अनिल कपूर के साहबज़ादे (फ़िल्म में नहीं) हर्षवर्धन कपूर की। वो इस गाँव में ऐसे लोगों की तलाश में आया है जो शहर मे काम कर सके। पन्ना का पता पाकर उसके घर पहुंचता है। पन्ना वहाँ नहीं है, बस उसकी पत्नी है चेतना (फातिमा सना शेख)। सुरेखा सिंह की तफ़्तीश, हर्षवर्धन का साइलेंस, अफीम की स्मगलिंग के साथ कहानी आगे बढ़ती है और नहीं भी बढ़ती है। फिल्म की शुरुआत जितनी अच्छी होती है, मध्य उतना ही बोझिल हो जाता है। कहानी कहीं जाती हुई नहीं लगती। उस पर हर्षवर्धन का स्टोन फ़ेस और उसका गुमसुम रहना एक पॉइंट पर irritate करने लगता है। हालांकि अंत में फिर से लय पकड़ लेती है लेकिनी बीच का एक बड़ा हिस्सा ऐसे ही निकल जाता है। कहानी ज़्यादा नहीं बताऊंगा क्योंकि अंत में जाकर बहुत से राज़ खुलते हैं, बहुत से धागे एक-दूसरे में मिलते हैं।

फिल्म की सबसे बड़ी कमी इसका पेस है। पता नहीं जानबूझकर किया या अंजाने में हो गया, फिल्म 80 के दशक की आर्ट हाउस फिल्मों की तरह चलती है। बैक्ग्राउण्ड स्कोर भी कुछ-कुछ वैसा ही है जो कभी-कभी बोर करने लगता है। अगर pace बहुत स्लो है तो म्यूजिक से उसे उठाया जाना चाहिए, म्यूजिक इसके पेस को और स्लो बना रहा है। सस्पेन्स क्रिएट करने के लिए एक सीन के पूरा होने से पहले ही कट करके दूसरे सीन में पहुंचा दिया जाता है जो कहीं-कहीं तो अच्छा प्रभाव देता है और कहीं चिढ़ पैदा करता है। दर्शक का फ़्लो अगर बन जाता है तो उसे कट नहीं किया जाना चाहिए।

अनिल कपूर हमेशा की तरह बेहतरीन हैं। न जाने क्यों अनिल कपूर और Jacky दादा ने अपने बच्चों को एक्टिंग नहीं सिखाई, या उनमें आई ही नहीं जबकि दोनों बेहतरीन अभिनेता हैं। अमिताभ बच्चन और राकेश रोशन के बच्चे फिर भी एक्टिंग कर लेते हैं। हर्षवर्धन पूरी फिल्म में चुप ही रहते हैं। उनके किरदार को कोई क्लू नहीं देना अपनी पहचान का इसलिए उसे एक ही तरह से react करना है पूरी फ़िल्म में। ये किरदार उनके लिए जानबूझकर रचा गया होगा जो उन्हें जैसे वो हैं वैसा ही पेश करे लेकिन अगर अभिनेता की कमजोरी को छुपाने के लिए किरदार को खामोश रखा गया है तो इससे बड़ी भूल कुछ नहीं हो सकती। पूरी फ़िल्म में खामोश रहने वाले किरदार के लिए मँझा हुआ अभिनेता चाहिए। बस यही भूल इस फ़िल्म को खा जाती है। अगर खामोशी का अभिनय देखना हो तो मनोज वाजपेयी को देखिये बेंडिट क्वीन में या पिंजर में या संजीव कुमार को देखिये गुलजार की फिल्म कोशिश में। हर्षवर्षण और टाइगर में अंतर ये है कि टाइगर का रुझान बेतुकी फ़िल्मों की ओर है जबकि हर्षवर्धन का अब तक का चुनाव अलग रहा है। उन्हें अपने अभिनय को निखारने का काम प्राथमिकता पर करना चाहिए। फातिमा सना शेख अच्छी लगी हैं। फिल्म में गालियां और सेक्स जबरन घुसाया गया है। टोर्चर के सीन जस के तस “गेम ऑफ थ्रोन्स” से उठा लिए गए हैं। बाल्टी में चूहे डाल कर बांध देना, पैरों में कील ठोंक देना। इतनी बर्बरता मुझे नहीं पचती। फिल्म की फोटोग्राफी अच्छी है। राजस्थान की बंजर जगह कहानी के मूड के साथ जाती है। जगह को अच्छी तरह capture किया गया है।

फ़िल्म के निर्देशक राज सिंह चौधरी हैं। इन्हें आपने फ़िल्म गुलाल में देखा होगा। उस फ़िल्म में लीड यही थे। कहानी भी इन्हीं की थी। फ़िल्म नो स्मोकिंग भी इनकी कहानी पर आधारित थी। इसके बाद फ़िल्म अंतर्द्वंद्व में भी इनकी मुख्य भूमिका थी। “द लास्ट चैप्टर” और “शादिस्तान” इनकी बतौर निर्देशक अन्य फिल्मे हैं। थार के संवाद अनुराग कश्यप ने लिखे हैं, जो समझ में भी आता है। वे अपनी इमेज में कैद हो गए लगते हैं।

अंत में, मेरा फिल्म के अच्छी होने का सबसे बड़ा पैमाना होता है फिल्म देखने के बाद वो आपके साथ कितने समय तक रहती है। अगर उसका असर लंबे समय तक रहे तो फिल्म सफल है। ऐसा कुछ मुझे थार के साथ नहीं लगा। फ़िल्म को ठीक-ठाक कहा जा सकता है।

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