इजाज़त - फ़िल्म नहीं एक कविता है

क्या आपने कभी कविता सुनने या पढ़ने की बजाय देखी है? देखना चाहते हैं? तो देखिये “गुलज़ार” की कोई भी फिल्म। और उसमें भी सबसे अच्छी कविता देखनी है तो देखिये “इजाज़त”। मैंने कई साल पहले देखी थी, इतना पहले कि मैं कहानी बिलकुल भूल चुका था, बस इतना ही याद था कि ये तीन लोगों के रिश्तों की कहानी है। लेकिन जब देखी थी तब ये फिल्म मेरी सबसे फ़ेवरेट फिल्मों में शुमार हो गई थी। काफ़ी दिनों से चाहता था कि एक बार फिर देखूँ। फिर आख़िर वेब सिरीज़ वगैरह जो मैं देख रहा था, उन्हें दरकिनार कर देख ही ली, और अपने आप को शाबासी देता हूँ कि बहुत अच्छा किया और कुछ भी देखने की बजाय ये फिल्म देख ली। फिल्म खूबसूरत कैसे होती है ये जानना है, तो इजाज़त देखिये। फिल्म कविता कैसे बन जाती है? ये जानना है, तो इजाज़त देखिये। फिल्म अहसासात में घुलकर अंदर ही अंदर फैलते हुए कैसे महसूस होती है? ये देखना है तो इजाज़त देखिये। फ़िल्म में संगीत का क्या महत्व होता है? ये देखना है तो इजाज़त देखिये और फ़िल्म के गीत फ़िल्म की आत्मा कैसे बन सकते हैं, ये देखना है तो इजाज़त देखिये। 

अब इतनी बार कह दिया है तो आप देखेंगे पक्का। है ना? फिल्म सुबोध घोष की एक बंगाली कहानी “जातुगृह” पर आधारित है। फिल्म के पहले दृश्य में, एक रेल्वे स्टेशन के वेटिंग रूम में, महेंद्र और सुधा की मुलाक़ात होती है। दोनों के बीच बातचीतका सिलसिला शुरू होता है, और इसी सिलसिले के ज़रिये हम झाँकते हैं उस अतीत में, जहां वे एक-दूसरे से अनजान नहीं थे।। इस अतीत में है इन दोनों का रिश्ता, और इस रिश्ते के बीच एक और रिश्ता “माया” का। महेंद्र अपनी मंगनी हो जाने के बाद माया से मिलता है, और उसे प्यार करने लगता है। माया एक विद्रोही, और बेहद अस्थिर स्वभाव की लड़की है। जब महेंद्र पर शादी का दबाव बढ़ जाता है,तो वो माया को लेने आता है अपने दादू से मिलवाने के लिए ले जाने,पर वो गायब हो जाती है। महेंद्र को शादी करनी पड़ती है। हालांकि महेंद्र सुधा को माया के बारे मे पहले ही सब कुछ बता देता है। महेंद्र, सुधा के लिए ईमानदार है, लेकिन परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बन जाती हैं कि इन तीनों की ज़िंदगियाँ उलझ जाती हैं। महेंद्र अकेला रह जाता है। 

मैंने कहानी को जान-बूझकर उलझा हुआ छोड़ दिया है क्योंकि मैं सब कुछ बताना नहीं चाहता, मैं चाहता हूँ कि आप फिल्म देखें। मैं ये सोचता हूँ कि क्या कोई फिल्म इतनी नाज़ुक भी हो सकती है? और फिल्म के characters को देखकर ये भी सवाल उठता है, क्या ऐसी भी कोई प्रेमिका होती है? क्या ऐसी भी कोई पत्नी? ये फ़िल्म भावनाओं की शुद्धतम अभिव्यक्ति है। बरसों पहले जब इसे देखा था तब अपनी ही दुनिया की कहानी लगी थी, क्योंकि वो नई उम्र थी, पर इस बार किसी दूसरी ही दुनिया की कहानी लगी। तब से अब तक दुनिया बहुत देख ली है, इतनी नाज़ुक तो नहीं है ये दुनिया, या शायद अब नहीं बची। फ़िल्म इंसानी रिश्तों को बहुत ही परिपक्वता से दर्शाती है। ये अपने समय से बहुत आगे की फ़िल्म है क्योंकि उस दौर में ' पति, पत्नी और वो' को लेकर इतना उदार और परिपक्व विमर्श आम जीवन में संभव नहीं था। बल्कि आज भी नहीं है। आज भले ही इन रिश्तों पर बातें होती हों, लेकिन वे सब सतही हैं। ये फ़िल्म जिस तरह से उसे उठाती है वो साहस और समझ आज भी दिखाई नहीं देती, जबकि आज इस विमर्श के अनुकूल समाज बन चुका है। 
 फ़िल्म में बहुत कम पात्र हैं, बहुत कम locations हैं पर कोई कमी महसूस नहीं होती। क्योंकि फ़िल्म बाहरी दुनिया के बारे में है ही नहीं, वो अंदर के बारे में है और उस अंदर की दुनिया को गुलजार से बेहतर कोई नहीं समझता शायद। फ़िल्म देखते हुए लगातार एक हूक सी उठती रहती है। सब कुछ पोएटिक है। फ़िल्म का संगीत कहानी को नई ऊँचाई पर ले जाता है। ऐसा बहुत ही कम होता है, कि फ़िल्म का संगीत फ़िल्म की कहानी को आगे बढ़ाए। इस फ़िल्म के गीत इसका बेहद ज़रूरी हिस्सा है। मेरा ऐसा मानना है कि गीतों की ज़रूरत वहाँ होती है, जहां संवाद किसी भाव को प्रदर्शित करने में अक्षम हों। इस चीज़ का सबसे अच्छा उदाहरण यही फ़िल्म है और हो भी क्यों न? एक कवि की फ़िल्म है...कविता ही तो उसे आगे बढ़ाएगी। फिर चाहे वो “मेरा कुछ समान” हो या “खाली हाथ शाम आई है”। एक दृश्य है जिसमें सुधा को घुटने पर चोट आती है। महेंद्र पूछता है ज़्यादा तो नहीं लगी? उसके मना करने पर कहता है – “मैं देखूँ”?” वो इंकार करती है पर वो बैठ कर देखने लगता है, सुधा की साड़ी को घुटनों तक उठाकर। अब किसी भी और फ़िल्मकार के लिए ये एक अवसर है, हीरोइन की साड़ी उठ रही है...आम निर्देशक यहाँ जो दृश्य बुनेगा वो आप भी समझ ही सकते हैं लेकिन गुलजार, गुलजार है, मजाल है कि हमें एक झलक भी मिल जाए। महेंद्र उसकी चोट देख रहा है कमेरा पैन होता है और गीत का prelude बजने लगता है – “क़तरा क़तरा मिलती है क़तरा क़तरा जीने दो ज़िंदगी है”... उफ़्फ़...दिल चीरकर निकल जाता है। मैं बयान करने में असमर्थ हूँ जो मेरे अंदर हिलोर उठी। गीतों का इतना अच्छा उपयोग, कि फ़िल्म और गीत दोनों में चार चाँद लग जाएँ। हर गीत कुछ इसी तरह शुरू होता है कि वहाँ गीत के अलावा कुछ हो ही नहीं सकता था। जब माया गाती है 'मेरा कुछ समान तुम्हारे पास पड़ा है', या सुधा गाती है 'खाली हाथ शाम आई है', वो पत्नी के खालीपन के एहसास की अभिव्यक्ति है। महेंद्र एक खुशनसीब आदमी था जिसे माया मिली और सुधा भी मिली। दोनों इतनी सुलझी हुई, इतनी समझदार लेकिन वो बदनसीब भी है कि दोनों को खो दिया। 
 फ़िल्म के सभी characters इतने ईमानदार हैं कि हैरत होती है। नसीरुद्दीन शाह और रेखा ने अद्भुत अभिनय किया है। रेखा इतनी सुंदर दिखी हैं कि बस...। मैं और भी ज़्यादा फ़ैन हो गया। सुंदरता और प्रतिभा का बेजोड़ मेल है रेखा। अनुराधा पटेल ने माया का किरदार किया है। मुझे समझ नहीं आया कि उन्हें क्यों लिया गया, सिर्फ मॉडर्न लुक्स की वजह से? अभिनय के मामले में तो मुझे कुछ खास नहीं लगी, और फिर जब सामने नसीर और रेखा जैसे पावर हाउस performers हों, तो और भी कमजोर लगती है। उनके संवाद भी कहीं-कहीं ठीक नहीं लगे, या शायद डिलीवरी सही नहीं हुई इसलिए, वरना तो फ़िल्म के संवाद उसकी जान हैं। अब अगर गुलजार के बारे में कुछ नहीं कहा तो मेरी रूह भटकेगी, श्रद्धा को शब्द देने ज़रूरी है। वे कहानी को नहीं, भावनाओं को निर्देशित करते हैं। सीने की गहराइयों में छुपी पानी की बूंदों को खींच कर आँखों में ला देते हैं। ये वो निर्देशक है जिसे मालूम है कब हल्का सा झटका देना है जो देखने वाले का दिल तोड़ देगा, या कब उसे सहला कर मुस्कुराहट ला देनी है। कब खामोश रहना है, कब बोल पड़ना है, और कब अचानक गाने लगना है। ये आदमी जादूगर है, इसे मालूम है दिल कैसे निचोड़ते हैं। 
 आर डी बर्मन के बारे में ज़्यादा कहना दोहराव ही होगा। जो कुछ कहा जा सकता है, कई बार कहा जा चुका है लेकिन इतना कहूँगा कि 80 के पूरे दशक के संगीत पर इस एक फिल्म का संगीत भारी है। एक-एक गीत नायाब हीरा है। गुलजार और आर डी बर्मन बहुत ही करीबी मित्र थे, वे जब-जब मिले हैं, कुछ अद्भुत ही रचा है। जब गुलजार ने पंचम को “मेरा कुछ समान” के बोल दिये, तो पंचम बिगड़ गए, बोले – “कल तू टाइम्स ऑफ इंडिया ले आएगा और बोलेगा इसकी धुन बना दे”। गुलजार ने उन्हें मनाया और वे राज़ी हुए उसकी धुन बनाने को, और क्या कमाल की धुन बनाई कि इस बात पर ध्यान ही नहीं जाता कि ये कविता तुकांत नहीं है। इसी तरह “छोटी सी कहानी है” में overlapping इफैक्ट भी उनके ही दिमाग की उपज थी। उस समय तकनीक वैसी नहीं थी कि उसे आसानी से किया जा सके। कुछ कमियाँ भी हैं फ़िल्म में; कहीं-कहीं जंप लगता है। माया का कैरक्टर कहीं-कहीं अव्यवहारिक लगने लगता है। माया की दोस्त का पात्र सिर्फ उसकी तारीफ करने के लिए ही रखा गया है, जो रियल नहीं लगता। शम्मी कपूर को देखना हमेशा ही भला लगता है। सुलभा देशपांडे कला फ़िल्मों की निरुपाराय थीं। वे हमेशा की तरह दुखी माँ ही बनी हैं, पता नहीं वे असल जीवन में भी कभी खुश रही होंगी या नहीं? शशि कपूर surprize एलिमंट हैं। कपूर खानदान में मुझे सबसे ज़्यादा पसंद जो है वो शशि कपूर ही हैं। बंदे के व्यक्तित्व में कुछ ऐसी बात है, कि उसे देखकर खुशी होती है। ऊर्जा से भरपूर, खुशमिजाज़ आदमी। 

 हो सकता है भावतिरेक में मैंने बहुत ज़्यादा कसीदे पढ़ दिये हों, पर इससे कुछ कम भी लगा लो तो भी फ़िल्म वाकई इस काबिल है। ये फिल्म प्यार, शादी और विवाहेत्तर सम्बन्धों पर बनी सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। बॉलीवुड ने इससे बेहतर और संवेदनशील सिनेमा इस विषय पर नहीं बनाया है। देखकर बताइये। 


 #Ijazat #Ijaazat #Rekha #NaseeruddinShah #Gulzar #BollywoodClassic #RDBurman

टिप्पणियाँ

  1. बेनामी10:42 pm

    गुलज़ार साहब की अनुपम कृति है इज़ाज़त, और आपने जो विश्लेषण किया है वो भी इज़ाज़त से कम नही है।

    जवाब देंहटाएं
  2. बेनामी6:56 pm

    ऊपर एक गलती के लिए क्षमा करें,....
    "जब चाह कर भी मना नही कर सकता!"

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

लोकप्रिय पोस्ट