ऑड कपल - अबे हँस क्यों नहीं रिया है?

ये जो स्टोरी आइडिया होता है ना, ये हर दूसरा आदमी जेब में रख कर घूमता है। और बहुतों के पास आइडिया अच्छा भी होता है। लेकिन आइडिया और स्क्रीनप्ले बहुत ही अलग चीज़ें हैं। और इसीलिए वो लोग विरले होते हैं जो इस आइडिया को सही तरीके से पकड़ कर खींच दें और एक पर्फेक्ट स्क्रीनप्ले बन जाये। सही मायने में इन्हीं विरले लोगों को लेखक कहा जाता है। 

कोर्ट रूम ड्रामा की अपनी रिसर्च के दौरान इस फ़िल्म के बारे में पता चला – “ऑड कपल”। देखना शुरू की और पहले ही सीन दिमाग का दही कर दिया। फ़िल्म चालू होते ही जबर्दस्ती करने लगती है कि “हँसो”, “और हँसो”, “अबे हँस”, “अबे इतना फनी बनाया हमने, हँसता क्यों नहीं”। और जनाब एक कॉमेडी फ़िल्म उसी वक़्त आत्महत्या कर लेती है जब वो हँसाने की कोशिश करने लगती है। हालाँकि कलाकार उस सीन में जितने इकट्ठे थे, सब बढ़िया थे – दिव्येंदु शर्मा, विजय राज़, सुचित्रा कृष्णमूर्ति और मनीज़ पाहवा। मतलब स्क्रीन पर विजय राज़ और मनोज पाहवा हैं और फिर भी देखने वाले को चिढ़ पैदा हो रही है, समझ सकते हैं क्या लिखा गया होगा। 

फ़िल्म की कहानी है कि विजय राज़-सुचित्रा कृष्णमूर्ति और दिव्येंदु के साथ एक लड़की (नाम नहीं पता), इन दो जोड़ों को कोर्ट में शादी करनी है। अब दोनों लड़कियों के नाम निवेदिता है तो मैरेज सर्टिफिकेट आपस में बदल जाते हैं। मनोज पाहवा मैरेज रजिस्टरार हैं और ये चारों नाम में हुई इस गलती को सुधारवाने आए हुए हैं। वहाँ रजिस्टरार साहब से चिक-चिक हो जाती है और वो चिढ़ कर इंकार कर देते हैं। केस कोर्ट में जाता है, इस सब में एक साल लग जाता है और जब पहली सुनवाई होती है तो उसी दिन पता चलता है कि वही रजिस्टरार अब उस कोर्ट में जज बन गया है। इस कोर्ट में इन लोगों ने तलाक की अर्ज़ी लगाई हुई है। तलाक से पहले जज इन्हें 6 महीने का वक़्त देता है। बस इन्हीं 6 महीनों में क्या कुछ होता है, वही कहानी है। 

 मैंने फ़िल्म 20-25 मिनट में आगे बढ़ा-बढ़ाकर पूरी देख डाली। देख भी मैं फ़िल्म को नहीं सुचित्रा कृष्णमूर्ति को रहा था। बहुत अच्छी लग रही हैं, मगर डायलॉग बोलने का तरीका बड़ा खटकता है। विजय राज़ आज की तारीख में सबसे बढ़िया स्क्रीन प्रेजेंस रखने वाले अभिनेताओं में हैं, मगर उनके रहते भी स्क्रीन मरी हुई ही रहती है। दिव्येंदु ने भी अच्छी एक्टिंग की है पर जब स्क्रिप्ट में ही दम न हो तो कोई क्या कर लेगा? एक अच्छे आइडिया को लेकर एक बहुत ही बकवास फ़िल्म बनाने का अनुपम उदाहरण है ये फ़िल्म। उस आइडिया को 2 घंटे तक जैसे-तैसे खींचा है। न संवादों में दम है, बैक्ग्राउण्ड म्यूजिक में और न प्रॉडक्शन क्वालिटी ही बढ़िया है। 

फ़िल्म के ओपेनिंग क्रेडिट्स में गरीब लोगों के दृश्य हैं, ट्रेन के हैं, चौपाटी के हैं....इनमें से किसी चीज़ का कहानी से कोई संबंध नहीं है। कौन लगा रहा है ये पैसा? कोई मुझे दे दो भाई....कसम से, इतिहास में नाम लिखवा दूँगा। और ये फ़िल्म अमज़ोन ने चला रखी है, बताइये। वैसे तो बहुत हव्वा बना रखा है कि पहले टीम देखेगी, कंटैंट अच्छा होगा तो बात होगी वगैरह, वगैरह...हुह। देखना है तो सुचित्रा कृष्णमूर्ति के लिए देख लो, बहुत खूबसूरत लगती हैं।

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