कांतारा, कांतारा...बहुत शोर सुना। prime पर आई तो एक दिन लगा ली। करीब 20 मिनट तक देखी होगी पर कहानी में कोई भी एलिमंट ऐसा नहीं लग रहा था जो स्क्रीन से बांधे रखे। मैंने सोचा बाद में देखेंगे, फ़िलहाल कुछ और देखते हैं। सिलैबस में “मोनिका ओह माइ डार्लिंग” कब से पेंडिंग पड़ी थी पर समय हो गया था रात के 11.30 तो सोचा चलो आज शुभारंभ तो कर दें, थोड़ी सी देखकर फ़िर बाद में देखेंगे। इसके बाद जब घड़ी देखी तो 2 बज गए थे।
अब
अंतर आप ख़ुद समझ जाइए। जो फ़िल्म ये बात मान जाए कि कल देख लेंगे उसमें आपको बांधने
की क्षमता नहीं है, बांधने वाली फ़िल्म ज़िद्दी होती है, वो आपको हिलने नहीं देती। “मोनिका...” ऐसी
ही ज़िद्दी फ़िल्म है।
देव
प्रकाश ने शाम ही अपनी फ्रेंड को प्रपोज़ किया है और उसने हाँ कह दिया है। ये खुशखबरी
अपने दोस्त को देकर वो फ़ैक्टरी में एक फ़ाइल लेने जाता है। रात हो चुकी है, वहाँ कोई नहीं है। ये एक रोबोटिक्स लैब
है जहां एक रोबोटिक मशीन देव प्रकाश को मार देती है। इसके 6 महीने बाद जयंत (राजकुमार
राव) को अपने टैलंट की बदौलत कंपनी के बोर्ड ऑफ डिरेक्टर्स का मेम्बर तो बना ही दिया
जाता है, उसकी शादी भी कंपनी के सीईओ
की बेटी के साथ तय हो जाती है। जयंत का लफड़ा है वहीं काम करने वाली मोनिका (हुमा कुरैशी)
के साथ। बोर्ड ऑफ डिरेक्टर्स में जगह पाने की उम्मीद में और भी बहुत से लोग हैं जिनमें
एक सीईओ का अपना बेटा निशिकांत (सिकंदर खेर) भी हैं। इसके बाद ही कहानी में उलझनें
पैदा होने लगती हैं और एक के बाद एक लोग मरने लगते हैं। इस सब में जयंत बुरी तरह उलझ
जाता है। कहानी को एक आम थ्रिलर होने की संभावनाओं से बहुत-बहुत दूर ले जाते हैं इसके
लेखक और निर्देशक। ट्रीटमंट बहुत ही बढ़िया है जो कि होना ही था, वासन बाला की पिछली फिल्म “मर्द को दर्द
नहीं होता” को देखते हुए। कहानी की गति, डाइलॉग और बैक्ग्राउण्ड म्यूजिक इसे दिलचस्पी
की आम सीमाओं से पार ले जाते हैं। बैक्ग्राउण्ड म्यूजिक में भी पंचम दा का गाना “पिया
तू” जितना प्रभाव डालता है उतना कोई और म्यूजिक नहीं, यही खूबसूरती है उस दौर के संगीत की कि
एक गीत ही नहीं, पूरी फ़िल्म को ही लिफ़्ट कर दिया। फ़िल्म लेखक होने के नाते
एक पॉइंट पर मुझे तो समझ आ गया था कि माजरा क्या है पर आम दर्शक के लिए अच्छा सस्पेन्स
रचा गया है। और समझ में आ भी जाये तो भी मज़ा आता है।
फ़िल्म
में कहानी कितनी ही अच्छी हो उसे परफॉर्म सही नहीं किया गया हो तो बर्बाद हो जाती है।
इस मामले में फ़िल्म रिच है, राजकुमार राव के लिए तो कुछ कहना repetition
ही होगा और
हुमा “गँग्स ऑफ वाससेपुर” के ज़माने से मेरी favorite हैं, न सिर्फ बहुत खूबसूरत हैं पर बेहतरीन एक्ट्रेस
भी हैं। सिकंदर खेर छोटे से रोल में बहुत बढ़िया लगे हैं। राधिका आप्टे मुझे उतना कभी
पसंद नहीं आईं, मुझे लगता है वे अपने किरदार को overdo करती हैं, गले की नसों को खींच कर संवाद बोलने का
उनका अंदाज़ मुझे कभी भाया नहीं। इस फ़िल्म में फॉर अ चेंज परेशान लड़की नहीं बनी हैं।
हमेशा मस्ती मज़ाक करने वाली पुलिस वाली का किरदार है।
एक
अफ़सोस की बात ये है कि इस फ़िल्म के एक किरदार के लिए ख़ुद वासन बाला ने मेरे अज़ीज़ तरुण फुलवार को
कॉल किया था पर किन्हीं कारणों से वो शामिल नहीं हो पाया।
अब
ये बताओ, पुष्पा, कांतारा देखकर अपने
आप को तीस मार खाँ समझने वाला दर्शक आज भी मानसिक तौर पर दीवालिया ही है, हाँ इतनी समझ ज़रूर आ गई उसमें कि अक्षय
कुमार की फ़िल्म देखकर बॉलीवुड को गालियां दे दे पर अक्षय तो बॉलीवुड का पैमाना न कभी
थे, न हैं। बॉलीवुड में जो इंटेलिजेंट फ़िल्में बनती हैं, वो इन तीस मार खान दर्शकों में से कितने
देखते हैं सिनेमा हॉल जाकर? कई तो ऐसे हैं कि 15 साल से सिनेमा हॉल में पैसा खर्च नहीं
किया, न कोई ओटीटी subscription
लिया पर ज्ञान
झाड़ना है कि बॉलीवुड किसलिए बर्बाद हो रहा है। ये लोग हॉलीवुड की भी सतही फ़िल्में देखकर
ज्ञान बांटने निकल पड़ते हैं। जबकि सच्चाई ये है कि हॉलीवुड हो या टॉलीवुड, इन लोगों ने अच्छी फ़िल्में किसी भी भाषा
की नहीं देखी हैं। किसने मोहनलाल की “इरुवर” देखी है या “thoovanathumbikal” देखी है? और देखी भी है तो पसंद की है? बॉलीवुड सिर्फ सलमान, अक्षय, वरुण नहीं है, क्यों अच्छी फ़िल्में बनाने वालों को हतोत्साहित
करते हो भाई? तुम्हारा ये रवैया नहीं होता तो “पृथ्वीराज” में कभी अक्षय
कुमार नहीं होता बल्कि कोई अभिनेता होता। बड़े प्रोड्यूसर को बिकने वाला नाम चाहिए और
बिकने वाला नाम वो होता है जिसे तुम खरीदते हो, तो क्यों खरीदते हो इनको? देखो ना “मोनिका...” या “मर्द को दर्द नहीं
होता”, या “आँखों देखी”।
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