तीन ताज़ा म्यूजिक एल्बम

 


हाल ही में आई दो फिल्मों के गीतों ने बहुत प्रभावित किया,और इस तथ्य की तरफ़ भी ध्यान दिलाया कि कलाकार तो हैं, जो अच्छा काम कर सकते हैं, और करना भी चाहते हैं, पर जबसे ये कॉरपोरेट फ़िल्मों में घुसा है, संगीत की अकाल मृत्यु हो गई है। संगीत कैसा बनेगा ये मार्केटिंग वाले तय करते हैं, संगीतकार नहीं। जबकि एक दौर ऐसा भी था जब महबूब जैसे बड़े फिल्मकार को नौशाद ने कह दिया था कि "मैं आपको निर्देशन में राय देने लगूं तो कैसा लगेगा? आप अपना काम करें और मुझे अपना करने दें"।

अब आलम ये है कि कल पैदा हुआ लड़का भी राय दे जाता है कि "hey it must be funky you know!"

एक तरफ़ जहां ए आर रहमान को भी इस तरह का संगीत बनाना पड़ रहा है वहीं दो लोगों ने कमाल का काम किया है - 'अचिंत' ने "मोनिका ओह माई डार्लिंग" में, और 'अमित त्रिवेदी ' ने "कला" में।

मोनिका का संगीत हमें 70s की सैर करवाता है। पूरी तरह आर डी बर्मन स्टाइल का संगीत, हालांकि सोच समझकर ये स्टाइल रखा गया है पर संगीतकार ने पंचम के स्टाइल की आत्मा को पकड़ा है, धुन, संयोजन और गायकी सभी में पंचम है। 

"ये एक जिंदगी" को गाने वाली अनुपमा चक्रवर्ती बिल्कुल आशाजी की तरह गा रहीं हैं। उनकी आवाज भी आशा जी के बहुत करीब है, सारे गायक उसी सुनहरे दौर की याद दिलाते हैं। सऊद ख़ान महेंद्र कपूर की याद दिलाते हैं जब वे गाते हैं "सुनो जाने जां"। सागनिक सेन के गले से तो स्वयं हेमंत कुमार ने जैसे गा दिया है "फर्श पे खड़े"। और इस गीत का स्टाइल आर डी वाला नहीं बल्कि एस डी बर्मन वाला है। वही स्ट्रिंग्स, वही ढोलक उफ्फ!

"ये एक जिंदगी" सुनकर "हम किसीसे कम नहीं" का "आ देखें ज़रा" याद आता है।

सरिता वाज़ का गाया "I love you so much I wanna kill you" के बोल भी मज़ेदार हैं और गाना भी। गीत लिखे हैं वरुण ग्रोवर ने, जिनका फ्लेवर समझ आता है। "थोड़ी सी दिलकशी ज़्यादा फैंटेसी, होना चाहे मुआ आसमानी फर्श पे खड़े खड़े"।

कुल मिलाकर बेहतरीन और एनर्जेटिक एक्सपीरियंस है। गीतों में कंप्यूटर जनित ध्वनियां नहीं हैं बल्कि वही एकॉस्टिक फील है। कोरस का उपयोग तो अब लगभग ख़त्म ही हो गया है लेकिन इसमें बहुत बढ़िया उपयोग है।  Bass भी कान फाड़ू नहीं है जैसा आजकल होता है। 

"कला" के गीत कल ही पहली बार सुने और मज़ा आ गया। ये गीत एक दशक और पीछे 60s में ले जाते हैं। वही स्ट्रिंग पैटर्न, वही अंदाज़ वाह!

शाहिद माल्या ने "उड़ जायेगा हंस अकेला" भी गाया है पर इसे जो "कुमार गंधर्व" ने गा दिया है, वो सर्वश्रेष्ठ है, शायद यही वजह होगी कि मुझे मज़ा नहीं आया।

अब अरिजित युग बीत जाना चाहिए, सारे गांव शहर के लड़के उसी खुरदरी आवाज़ में गा रहे हैं। ख़ुद अरिजित मुझे ओवर रेटेड लगते हैं।

अच्छा काम किया जा सकता है, उसे करवाने वाला होना चाहिए। निर्देशक चाहे तो संगीत अच्छा बन सकता है, पर उसे भी तो संगीत की समझ होनी चाहिए।

एक और सुखद बात ये हुई कि "संजय लीला भंसाली" का पहला म्यूजिक एल्बम "सुकून" जारी हुआ है और ये गज़लों का एल्बम है। ये वाकई सुकून की बात है। अभी पूरा नहीं सुना है, एक ही ग़ज़ल सुनी जो अच्छी लगी बावजूद इसके कि उसे अरमान मलिक ने गाया है।

एक साथ तीन अच्छे एल्बम तो पिछले कुछ सालों में कभी नहीं आए थे, तो क्या इसे संकेत माना जाए कि अब फ़िर से दौर बदलेगा??

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