गांधी गोडसे


 




मैंने दो बार आशंका जताई थी, पहली बार जब पोस्टर लॉंच हुआ था तब और दूसरी बार, जब ट्रेलर आया था।

पोस्टर के वक़्त सुधिजनों ने कहा था कि फ़िल्म “असगर वजाहत” साहब के नाटक पर आधारित है इसलिए शंका पैदा नहीं होती। मुझे लगा, ऐसा है तो हो भी सकता है सब ठीक हो, मगर फिर भी मेरा मन मानने को तैयार नहीं था, वो पोस्टर मुझे बहुत शिद्दत से खटक रहा था।

पहली बात तो ये तुलना ही मूर्खतापूर्ण है। गांधी और गोडसे की क्या तुलना? चलिये जिस वजह से एक तबक़ा उसे महान बनाने पर तुला है, उसे उसके जीवन से हटाकर देखें तो वो क्या था? गांधी के जीवन की किसी भी एक घटना को हटाकर भी उनका मूल्यांकन करेंगे तो विश्व के किसी भी महापुरुष पर भारी ही पड़ेंगे।

दूसरा, एक हत्यारे और महात्मा की कैसी तुलना? कभी सुना है कि अम्रीका में लिंकन और उनके हत्यारे की कोई तुलना की गई हो? पहली आपत्ति तो टाइटल ही है “गांधी VS गोडसे”, गनीमत सिर्फ़ इतनी है कि इसे “गोडसे vs गांधी” नहीं रखा गया। इसी के लिए हम संतोषी जी के आभारी हैं। दूसरी, और ज़्यादा चुभने वाली बात है इसकी टैग लाइन – “विचारों का युद्ध”।

कौन से विचार भाई? गांधी के विचारों ने तो पूरा एक वाद खड़ा किया है, गोडसे के कौन से विचार हैं? हाँ, अगर आज गालीबाज़ों की अनंत भीड़ को वाद का नाम दिया जाये तो ज़रूर माना जा सकता है। यही उसका वाद है। ख़ुद कुछ करना नहीं और बैठकर जो कर रहे उनके काम में मीन-मेख निकालना। तुमने ये किया, तुमने वो नहीं क्या वगैरह। भाई तुम्हारे पास भी वैसा ही शरीर है, तुम ख़ुद काहे नहीं कर लेते? और उस पर तुर्रा ये कि तुमने हमारी पसंद का काम नहीं किया तो हम तुम्हें मार डालेंगे। फिर तो तालिबान भी विचारों का ही युद्ध हुआ, उन बेचारों को काहे आतंकवादी कहते हो?

तीसरी आपत्ति है, पोस्टर में गोडसे को लेफ्ट में गांधी के बिलकुल सामने बराबरी से दिखाना। गांधी वो व्यक्तित्व हैं कि अगर पोस्टर कभी बनेगा तो बाकी सारे चित्र उनसे छोटे ही रखे जाएँगे, फिर चाहे वो नेहरू हो, पटेल हों या सुभाष हों। अव्वल तो गांधी के समकक्ष खड़ा हो सक्ने की योग्यता उस वक़्त किसी की भी नहीं थी, फिर गोडसे तो कहीं गिनती में ही नहीं है।

चौथी आपत्ति, गोडसे और गांधी के किरदारों के लिए अभिनेताओं और उनके चरित्र-चित्रण का चुनाव। गोडसे को हर मायने में स्ट्रॉंग दिखाया गया है और गांधी का चित्रण बहुत ही कमजोर किया गया है। एक फ़िल्म में कही गई बातों से कहीं ज़्यादा वे बातें असर डालती हैं जो कही नहीं जाती सिर्फ़ दिखाई जाती हैं।

ट्रेलर में यही बात शिद्दत से उभर कर सामने आती है। मुझे ट्रेलर से सख्त आपत्ति थी। एक विचारक के साथ एक विचारहीन अपराधी का वैचारिक युद्ध संतोषी जी के वैचारिक दीवालियेपन की घोषणा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। मुझे दुख इस बात का और भी ज़्यादा है कि संतोषी में favourite निर्देशक रहे हैं। उनके जैसे वर्सटाइल निर्देशक बहुत ही कम हुए हैं। पर इस अफसोस, वे भी कम पढे-लिखे निकले। उनकी फ़िल्म भगत सिंह में भी उनका गांधी के प्रति पूर्वाग्रह साफ ज़ाहिर था। मुझे फ़िल्म अच्छी लगी थी लेकिन वही एक हिस्सा नागवार गुज़रा था। पर तब गंदगी इतनी नहीं फैली थी इसलिए बात आई-गई हो गई। संतोषी जी भी खुलकर सामने नहीं आए थे क्योंकि समझदारी का पर्दा क़ायम था। जब नंगे होने के अनूकूल माहौल बना तो फौरन चोला उतार फेंका।

मैंने फ़िल्म देखी नहीं है, न देखूंगा पर जिन्होंने भी देखी है उन्होने मेरी उस वक़्त की आशंका पर वास्तविकता की मुहर लगाई है। आज ही श्री अशोक कुमार पांडे जी ने लानत भेजी है।

ये शर्मनाक दौर जाने कब ख़त्म होगा।

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