Gaslight - न गैस है न लाइट



 

कौन से प्रोड्यूसर होते हैं जो आँखें मूंदकर कहानी ओके कर देते हैं, फिर उसमें ए ग्रेड अभिनेता भी आ जाते हैं। हम तो भटक-भटक कर लहूलुहान हो गए जबकि हमारी हर कहानी यूनिक है।

चूँकि भूत-प्रेत या रहस्य-रोमांच से भरी कहानी के लिए मनुष्य में प्राकृतिक आकर्षण होता है, और आजकल यही विषय सबसे ज़्यादा चलन में है, शायद इसी वजह से ये फ़िल्म बनी, हालाँकि न तो इसमें हॉरर है न ही रहस्य ऊँचे दर्जे का। बहुत सारी illogical बातों को शायद सिनेमेटिक लिबर्टी का नाम देकर नज़र अंदाज़ किया बनाने वालों ने पर उस लिबर्टी की भी कुछ सीमाएँ होती हैं।

दर्शक बरसों की ट्रेनिंग से इतने परिपक्व हो चुके हैं कि छोटा-मोटा मर्डर केस तो ख़ुद ही सुलझा सकते हैं। अब आज के दर्शक को आप मनोज कुमार की फिल्म गुमनाम” दिखाकर उसके डरने की या मुँह फाड़कर बैठे रहने की उम्मीद करें तो आप बहुत ही भोले हैं या ....... हैं।

मीषा” बरसों के बाद अपने घर आई है अपने पिता के बुलाने पर जिनसे वो नफ़रत करती आई है। ये एक राजपरिवार है जिसमें षड्यंत्र आज भी स्वाभाविक लगते हैं। मीषा को पता चलता है कि पिता कहीं बाहर गए हुए हैं लेकिन उसे महसूस होता है कि यहाँ कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। उसे रात में अपने पिता नज़र आते हैं जो एक लालटेन लेकर निकलते हैं।

इस दुनिया में सबसे जिज्ञासु प्राणी हॉरर फ़िल्मों की लड़कियाँ होती हैं। यूँ तो एक कॉकरोच या छिपकली होने पर किचन में नहीं घुसतीं पर भूत के पीछे-पीछे तहखाने में भी चली जाती हैं फिर चिल्लाती हैं।

फ़िल्म की शुरुआत स्लो है जो शायद सस्पेन्स बनाने के लिए रखी गई है पर engage करने के लिए सिर्फ शीमी गति ही काफी नहीं। फ़िल्म में बहुत कम किरदार हैं। 5-6 लोगों में ही पूरी फ़िल्म निबटा दी गई है, मतलब बजट उतना भी ज़्यादा नहीं था। एक रानी, एक राजकुमारी, एक डॉक्टर, एक मैनेजर, एक राजा और एक नौकर, बस इतने में काम ही हो गया। विक्रांत मेस्सी जैसा बेहतरीन अभिनेता भी कुछ कर नहीं पाया, सारा अली ख़ान से तो ख़ैर उम्मीद भी नहीं थी। चित्रांगदा अच्छी अभिनेत्री हैं ये वे कमतर किरदार में भी दिखा ही देती हैं। मुझे आधे घंटे में फ़िल्म का रहस्य समझ आ गया था, हालाँकि आधे घंटे तक नहीं आया था क्योंकि मैं वहाँ भूत समझ रहा था। ये एक confused फ़िल्म है जो अगर पूरी तरह हॉरर ही होती तो फिर भी ठीक था। कुछ रहस्य इतनी जल्दी खोल दिये गए कि लगा उनकी भ्रूण हत्या हो गई है। जो भी दिखाया गया है वो सब बहुत बासी है। इससे बेहतर रामसे बंधुओं की पुराना मंदिर लग रही थी, जो मैं कुछ दिनों पहले देख रहा था। उसमें हंसने का स्कोप तो था।

फ़िल्म का नाम gaslight बस इसलिए है क्योंकि नाम अच्छा लग रहा है, इससे इसके कुछ अलग होने का आभास होता है बाकी gaslight का इसमें वही काम है जो गुमनाम में था। बैक्ग्राउण्ड स्कोर कहीं भी अपने होने का आभास नहीं दिलाता जबकि ऐसी फ़िल्मों में वो एक महत्वपूर्ण किरदार होता है। “भूत” फ़िल्म तो पूरी तरह से बैक्ग्राउण्ड स्कोर की ही फ़िल्म थी।

देखना हो तो देख सकते हैं डिज़्नी hotstar पर।

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