गुज़रा हुआ सुनहरा वक़्त
इंसान को लुभाता है और हर इंसान के मन में ख़्वाहिश होती है कि काश उस दौर में जाकर
देख पाते, वो वक़्त, वो लोग, वो काम का तरीका....जैसे मैं सोचता हूँ कि क्या ही
वक़्त रहा होगा जब फिल्म संगीत की दुनिया में सारे दिग्गज काम कर रहे थे। हमें यूं
लगता है जैसे वो लोग हर वक़्त बस काम ही करते रहते होंगे,
दर असल आज भी उनकी छवि
जो ज़िंदा है वो उनका काम ही है
इसलिए हमें लगता है कि उनकी और कोई ज़िंदगी रही ही नहीं होगी। हर इंसान के अंदर
इंसानी कमज़ोरियाँ जैसे लोभ, ईर्ष्या, द्वेष वगैरह होती ही हैं। आज के दौर के महान
कलाकार भी आगे जाकर आदर्श की तरह लगेंगे चाहे आज वे हमें लड़ते-झगड़ते नज़र आते हों। समय
के साथ काम इंसान से ऊपर उठ जाता है, फिर लगता ही नहीं है कि इतना महान इंसान कोई क्षुद्र
बात भी कर सकता है। पर प्रतिस्पर्धा, प्रसिद्धि, पैसा, सब कुछ हर दौर में होता ही है और सब उसे अपने-अपने
तरीकों से हैंडल करते हैं। रफी साहब के आने से पहले जी एम दुर्रानी स्टार सिंगर थे,
अपनी कार में वे पूरा बार लेकर चलते थे, फिर एक दौर आया कि फकीर हो गए,
उन्होने भी जद्दोजहद की ही होगी।
जुबली उसी दौर की आपको सैर
करवाती है जिसे सुनहरा दौर कहा जाता है। कुछ सच, ज़्यादा झूठ को मिला कर एक
कहानी बनाई गई है जो इसके किरदारों के उत्थान और पतन की कहानी है। हम किरदारों के
साथ अपनी यात्रा शुरू करते हैं जब वे कुछ भी नहीं हैं,
गिरते-पड़ते वे अपनी मंज़िलों पर पहुँचते हैं और जिन सीढ़ियों से चढ़कर वहाँ पहुंचे
हैं, वही सीढ़ियाँ उन्हें नीचे भी ले आती हैं।
कहानी है रॉय टॉकीज के रॉय
बाबू की, उनकी पार्टनर और पत्नी सुमित्रा देवी की,
और बिनोद दास उर्फ़ मदन कुमार की, और जय खन्ना की। रॉय टॉकीज में मुलाज़िम है बिनोद
दास, बिनोद लैब में काम करता है पर एक्टर बनना चाहता है। रॉय साहब
को नए हीरो की तलाश है, audition
में उन्हें जमशेद ख़ान इस कदर पसंद
आता है कि उसके अलावा और कुछ वे सोच ही नहीं पाते। मुस्लिम हीरो को जनता पसंद नहीं
करेगी इसलिए उसका नया नाम भी सोच लिया जाता है – मदन कुमार।
ये एक हक़ीक़त बयान की गई है
कि सड़ांध हमारे समाज में बहुत पुरानी है...शुक्र है कि नेहरू के रूप में हमें वो
कर्णधार मिला जिसने अगले कम से कम 50 सालों के लिए इस सड़ांध का कुछ हद तक इलाज
करके हमें एक प्रगतिशील समाज बना दिया था, हालांकि अब लगता है ये वहम ही था,
जेब में पैसा आ रहा था तो लोग अपने अंदर के कुलबुलाते कीड़े छुपाए बैठे थे,
माकूल वातावरन मिलते ही ये सड़ांध और भी भयानक रूप में बाहर आ गई है।
ख़ैर,
तो होता यूं है कि रॉय साहब की धर्मपत्नी, पार्टनर और सुपर स्टार सुमित्रा देवी जमशेद के
प्यार में पड़ जाती है और जाती तो है लखनऊ उसे लेने पर उसी के साथ गायब होने के
मंसूबे बना लेती है। बिनोद दास को दोनों को वापस ले आने का काम सौंपा जाता है,
जिस वक़्त बिनोद उसे लेने जा रहा है, उसी वक़्त कराची की खन्ना थिएटर कंपनी के मालिक का
बेटा जय भी उसे अपने नए नाटक के लिए लेने जा रहा है। बिनोद और जय की दोस्ती हो
जाती है। जमशेद जय का दोस्त भी है, इतना गहरा कि जमशेद उसे टाइम पास के लिए उस तवायफ़
के पास भेजता है जो उससे प्यार करती है। कहानी इन्हीं पात्रों को लेकर आगे बढ़ती
है। इसी बीच बंटवारा भी होता है, दंगे भी होते हैं जो कहानी को ज़रूरी मोड़ देते हैं।
प्लॉट बहुत दिलचस्प था,
अगर ईमानदारी से सिर्फ़ कहानी को ध्यान में रखकर बनाया जाता तो कालजयी हो सकता था
पर अफ़सोस! विक्रमादित्य से ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी। पीरियड ड्रामा में सेट और टोन
के साथ obsessed हो जाने का खतरा होता ही है और उसी खतरे की भेंट चढ़
गया उनका डाइरैक्शन, और सिर्फ़ उसी का नही बल्कि उस सड़ांध का भी जिसका
ज़िक्र मैंने ऊपर किया है। उनके अंदर भी वो सब मौजूद है ऐसा लगता है,
हालांकि वे खुल कर सामने नहीं आए हैं लेकिन जितनी हिंट उन्होंने दी है,
वो काफी हैं सबूत के लिए।
#Jubilee
#JubileeReview #Review #WebSeries #AmazonPrime #VikramadityaMotwane
#AmitTrivedi #Prasenjit #जुबली
सर कृपया टिप्पणी का इंतजार किए बगैर दनादन ऐसी पोस्ट करते रहें। ताकि इस दुनिया ए फानी में दिल लगा रहे।
जवाब देंहटाएंअप्रतिम अदभुत 🙏🏻
बहुत शुक्रिया। अगला भाग पोस्ट कर दिया है, पढ़ कर कमेंट ज़रूर करें।
हटाएंबहुत ही शानदार समीक्षा सर।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद :) सेकंड पार्ट भी पढ़ लिया?
हटाएं