Jubilee - Madan Kumar BC


 गुज़रा हुआ सुनहरा वक़्त इंसान को लुभाता है और हर इंसान के मन में ख़्वाहिश होती है कि काश उस दौर में जाकर देख पाते, वो वक़्त, वो लोग, वो काम का तरीका....जैसे मैं सोचता हूँ कि क्या ही वक़्त रहा होगा जब फिल्म संगीत की दुनिया में सारे दिग्गज काम कर रहे थे। हमें यूं लगता है जैसे वो लोग हर वक़्त बस काम ही करते रहते होंगे, दर असल आज भी उनकी छवि जो ज़िंदा है वो उनका काम ही है इसलिए हमें लगता है कि उनकी और कोई ज़िंदगी रही ही नहीं होगी। हर इंसान के अंदर इंसानी कमज़ोरियाँ जैसे लोभ, ईर्ष्या, द्वेष वगैरह होती ही हैं। आज के दौर के महान कलाकार भी आगे जाकर आदर्श की तरह लगेंगे चाहे आज वे हमें लड़ते-झगड़ते नज़र आते हों। समय के साथ काम इंसान से ऊपर उठ जाता है, फिर लगता ही नहीं है कि इतना महान इंसान कोई क्षुद्र बात भी कर सकता है। पर प्रतिस्पर्धा, प्रसिद्धि, पैसा, सब कुछ हर दौर में होता ही है और सब उसे अपने-अपने तरीकों से हैंडल करते हैं। रफी साहब के आने से पहले जी एम दुर्रानी स्टार सिंगर थे, अपनी कार में वे पूरा बार लेकर चलते थे, फिर एक दौर आया कि फकीर हो गए, उन्होने भी जद्दोजहद की ही होगी।

जुबली उसी दौर की आपको सैर करवाती है जिसे सुनहरा दौर कहा जाता है। कुछ सच, ज़्यादा झूठ को मिला कर एक कहानी बनाई गई है जो इसके किरदारों के उत्थान और पतन की कहानी है। हम किरदारों के साथ अपनी यात्रा शुरू करते हैं जब वे कुछ भी नहीं हैं, गिरते-पड़ते वे अपनी मंज़िलों पर पहुँचते हैं और जिन सीढ़ियों से चढ़कर वहाँ पहुंचे हैं, वही सीढ़ियाँ उन्हें नीचे भी ले आती हैं।

कहानी है रॉय टॉकीज के रॉय बाबू की, उनकी पार्टनर और पत्नी सुमित्रा देवी की, और बिनोद दास उर्फ़ मदन कुमार की, और जय खन्ना की। रॉय टॉकीज में मुलाज़िम है बिनोद दास, बिनोद लैब में काम करता है पर एक्टर बनना चाहता है। रॉय साहब को नए हीरो की तलाश है, audition में उन्हें जमशेद ख़ान इस कदर पसंद आता है कि उसके अलावा और कुछ वे सोच ही नहीं पाते। मुस्लिम हीरो को जनता पसंद नहीं करेगी इसलिए उसका नया नाम भी सोच लिया जाता है – मदन कुमार।

ये एक हक़ीक़त बयान की गई है कि सड़ांध हमारे समाज में बहुत पुरानी है...शुक्र है कि नेहरू के रूप में हमें वो कर्णधार मिला जिसने अगले कम से कम 50 सालों के लिए इस सड़ांध का कुछ हद तक इलाज करके हमें एक प्रगतिशील समाज बना दिया था, हालांकि अब लगता है ये वहम ही था, जेब में पैसा आ रहा था तो लोग अपने अंदर के कुलबुलाते कीड़े छुपाए बैठे थे, माकूल वातावरन मिलते ही ये सड़ांध और भी भयानक रूप में बाहर आ गई है।

ख़ैर, तो होता यूं है कि रॉय साहब की धर्मपत्नी, पार्टनर और सुपर स्टार सुमित्रा देवी जमशेद के प्यार में पड़ जाती है और जाती तो है लखनऊ उसे लेने पर उसी के साथ गायब होने के मंसूबे बना लेती है। बिनोद दास को दोनों को वापस ले आने का काम सौंपा जाता है, जिस वक़्त बिनोद उसे लेने जा रहा है, उसी वक़्त कराची की खन्ना थिएटर कंपनी के मालिक का बेटा जय भी उसे अपने नए नाटक के लिए लेने जा रहा है। बिनोद और जय की दोस्ती हो जाती है। जमशेद जय का दोस्त भी है, इतना गहरा कि जमशेद उसे टाइम पास के लिए उस तवायफ़ के पास भेजता है जो उससे प्यार करती है। कहानी इन्हीं पात्रों को लेकर आगे बढ़ती है। इसी बीच बंटवारा भी होता है, दंगे भी होते हैं जो कहानी को ज़रूरी मोड़ देते हैं।

प्लॉट बहुत दिलचस्प था, अगर ईमानदारी से सिर्फ़ कहानी को ध्यान में रखकर बनाया जाता तो कालजयी हो सकता था पर अफ़सोस! विक्रमादित्य से ऐसी उम्मीद कतई नहीं थी। पीरियड ड्रामा में सेट और टोन के साथ obsessed हो जाने का खतरा होता ही है और उसी खतरे की भेंट चढ़ गया उनका डाइरैक्शन, और सिर्फ़ उसी का नही बल्कि उस सड़ांध का भी जिसका ज़िक्र मैंने ऊपर किया है। उनके अंदर भी वो सब मौजूद है ऐसा लगता है, हालांकि वे खुल कर सामने नहीं आए हैं लेकिन जितनी हिंट उन्होंने दी है, वो काफी हैं सबूत के लिए।

कुछ बातें उन चीजों के बारे में भी कर ली जाएँ। बँटवारे के बाद शरणार्थी कैंप में एक स्वयं सेवक दिखाया है लोगों की मदद करते, बिलकुल धुली हुई साफ वर्दी पहने...लॉजिक की बात ये है कि वो अगर वहाँ ये कर रहा था तो सड़कों पर दंगा कौन कर रहा था? ये तो कोई छुपी बात नहीं है कि कौन लोग थे जो इस तरह के मौकों की घात में तब भी रहते थे और अब भी रहते हैं। दूसरा, मोटवाने साहब ने आईबी मिनिस्ट्री के जोतवानी साहब को दिखाया है जो दर असल उस वक़्त मंत्री रहे बी वी केशकर से प्रेरित किरदार है। केशकर ने रेडियो पर फ़िल्मी गीत बजाने पर पाबंदी लगा दी थी। मोटवाने साहब के अनुसार ये कदम रूसी प्रोपगंडा फिल्में बनाने के लिए फिल्म इंडस्ट्री को मनवाने के लिए उठाया गया था। ये सरासर बेईमानी है। केशकर साहब ख़ुद दक्षिण पंथ की तरफ झुकाव रखते थे और उनके अनुसार फ़िल्मी गीत भारतीय संस्कृति को खराब कर रहे थे, इसलिए उन्होंने ये पाबंदी लगाई थी। इससे एक कदम और आगे चलकर उन्होंने दिखा दिया कि रेडियो सीलोन जो इस पाबंदी के बाद उभरा था, वो अम्रीका की चाल था। पर ये पूरी सिरीज़ में वो नहीं बता पाये कि रूसी प्रोपगंडा क्या था और अमरीकी क्या था?


सीलोन से अम्रीका के कौन से हित सध गए? उन्हें प्रोपगंडा वाला बताने के चक्कर में ख़ुद एक प्रोपगंडा सिरीज़ बना डाली।

सिरीज़ बहुत ही स्लो है, उन्हें शायद ऐसा लगा कि स्लो स्पीड से ये क्लैसिक हो जाएगी पर इतने साल बिताने और कुछ बहुत अच्छी फिल्में बनाने के बाद वे भूल गए कि ज़माने भर के तामझाम कर लो पर जब तक कंटैंट मजबूत नहीं है, सब खोखला ही होता है। सिरीज़ की सबसे बड़ी कमी इसकी राइटिंग है जो बहुत ही बचकानी है। जिन बातों को नहीं कहने से अच्छा होता वो कही गई हैं, और जिन्हें कहा जाना चाहिए था उनके समय अचानक उन्हें क्लास होने का खयाल आ गया और उन्हें understood छोड़ दिया। डाइलॉग बहुत ही ख़राब हैं।

कैरक्टराइजेशन one-dimensional है। जैसे रॉय बाबू का किरदार पूरे समय एक जैसा मुंह बनाए रहता है, ऐसा लगता है सोता भी ऐसे ही सड़ू मुंह के साथ होगा, किम आश्चर्यम अगर बीवी जमशेद के साथ चली गई। उसके व्यक्तित्व के और आयाम दिखाये ही नहीं। ऐसा ही हर कैरक्टर के साथ हुआ है। जय खन्ना को जबर्दस्ती का rebellious दिखाया है तो उसके बाप को जबर्दस्ती का आदर्शवादी, ऊपर से अरुण गोविल को समझ ही नहीं आ रहा कि परेशान बाप की एक्टिंग कैसे करनी है, राम का कैरक्टर उन्हें खा गया। अरुण गोविल सबसे ज़्यादा असहज लगे हैं अपने रोल में। इस कहानी में गालियों की रत्ती भर भी जगह नहीं थी, बिना गालियों के शायद इसे कुछ अंक और मिल जाते पर गालियों ने इसे घटिया बना दिया। मदन कुमार के नाम के साथ तो एक खास गाली चस्पा ही कर दी गई है, मुझे तो लगता है कि इसका नाम “मदन कुमार बीसी” होता तो ज़्यादा suit करता, वैसे भी जुबली नाम कहीं से भी justify नहीं हो रहा।

अब आते हैं उस सबसे गैर-जिम्मेदाराना हरकत पर जो इसके लेखक और निर्देशक ने की है। उन्होने असल ज़िंदगी के पात्र उठाए और अपनी कल्पना से जो मन में आया उनमें भर दिया, अब लोगों में तो ये बात फ़ैल गई कि ये असली लोगों के जीवन पर आधारित है और वो असली लोग कौन हैं? हिमांशु रॉय, देविका रानी, अशोक कुमार, किशोर कुमार, मंटो इत्यादि। इन लोगों की असली कहानी में अपनी बेशर्म सोच को ठूंस कर कुछ भी अतरंगा रच दिया है, यहाँ तक कि इतिहास से भी बुरी तरह छेड़-छाड़ की गई है। मैंने एक पोस्ट में लिखा था कि इसमें दिखाया है प्लेबैक सिंगिंग की शुरुआत रॉय साहब 1947 में करते हैं, जो कि सरासर गलत है, प्लेबैक सिंगिंग को 1935 में संगीतकार आर सी बोराल साहब ने इंट्रड्यूस किया था। और इस प्लेबैक सिंगिंग का आइडिया देते हुए जो सीन बनाया गया है वो बहुत ही बचकाना है, कोई सिक्खड़ ही ऐसा सीन बना सकता है। इसके अलावा रॉय साहब से ही सिनेमा स्कोप को भारत में बुलवा लिया। जिस तरह आमिर खान ने सारी ऐतिहासिक घटनाएँ अपनी कहानी में दिखा देने के लालच में “लाल सिंह चड्ढा” की ऐसी-तैसी कर ली वही इनके साथ भी हुआ। प्लेबैक भी दिखाना है, बंटवारा भी, रेडियो पर ban भी, सिनेमा स्कोप भी। बिनोद दास का किरदार अशोक कुमार के आसपास बुना गया है, लेकिन असल में अशोक कुमार बिलकुल अलग और मजबूत व्यक्तित्व के मालिक थे। ये ठीक है कि हिमांशु रॉय ने उन्हें हीरो बनाया था लेकिन वे बनना नहीं चाहते थे, उनके पिता इसके सख़्त खिलाफ़ थे। अशोक कुमार कभी फ़ेम के लालच में नहीं रहे, लड़कियों से बहुत दूर भागते थे, तब भी जब पूरे देश की लड़कियां उनकी दीवानी थीं। हिमांशु रॉय के ग़ुलाम नहीं थे, बल्कि बॉम्बे टॉकीज से अलग भी हो गए थे। देविका रानी ज़रूर अपने हीरो नजमुल हसन के साथ भाग गईं थीं, शशधर मुखर्जी जो अशोक कुमार के जीजा थे, वे उन्हें वापस लाये थे और हिमांशु और उनके बीच सुलह करवाई थी। हाँ, उसके बाद से नज़्मुल का क्या हुआ किसी को नहीं पता। शशधर मुखर्जी ने ही अशोक कुमार को हीरो बनाने की सलाह दी थी और अशोक को भी मनाया था क्योंकि रॉय कोई बाहरी आदमी नहीं चाहते थे, क्योंकि देविका रानी थोड़ी दिलफेंक किस्म की थीं। बिनोद दास के भाई का किरदार बिलकुल ही गैर ज़रूरी था, उसे किशोर कुमार दिखाने के लिए एक बहुत ही घटिया सीन बनाया है जिसमें वो लड़का बहुत ही घटिया एक्टिंग कर रहा है किशोर कुमार होने की। मंटो के लुक्स लेकर बिनोद दास का एक दोस्त दिखाया है, असल जीवन में अशोक कुमार और सादत हसन मंटो बहुत ही गहरे दोस्त थे। लेकिन मंटो के कैरक्टर का कुछ भी उस लेखक में नहीं उतार पाये। जय खन्ना का किरदार किस पर आधारित है वो समझ नहीं आया। निलोफर क्या नर्गिस थी? अगर ऐसा था तो जय खन्ना क्या राज कपूर से लिया है? पर राज कपूर से पहले उनके पिता स्थापित हो चुके थे। पूरी सिरीज़ में जोतवानी जबर्दस्ती इनकी कहानी में दाल भात में मूसलचंद की तरह घुसा रहता है।

अभिनय की बात करें तो, अगर कैरक्टराइजेशन सही होता तो सभी अच्छा करते। प्रसेंजित चटर्जी को जैसा लिखा हुआ मिला, वो तो उन्होने बखूबी निभाया है। उन्हें हिन्दी में ज़्यादा नज़र आना चाहिए, उनका स्क्रीन प्रेजेंस अच्छा है। अपरशक्ति खुराना को भी एक ही मनहूस लुक दिया है, भाई कितना भी दबा हुआ आदमी हो, किसी परिस्थिति में तो खुल कर खुश होता ही है। सिद्धान्त गुप्ता ने जय खन्ना का किरदार बहुत बढ़िया निभाया है। अदिति राव हैदरी मुझे शुरू से ही पसंद रही हैं, इसमें भी अच्छी ही लगी हैं। सबसे बढ़िया अगर इस सिरीज़ में कोई है तो वो है “वामिका गब्बी”। इन्हें सबसे पहले मैंने ग्रहण में देखा था और तब ही मैं बहुत प्रभावित हुआ था पर इस सिरीज़ में तो कमाल काम किया है। राम कपूर का कैरक्टर चार्मिंग है पर confused है। श्वेता बसु प्रसाद अच्छी दिखती हैं, जिन्होने बिनोद की पत्नी का किरदार निभाया है। आपको अगर विशाल भारद्वाज की पहली फिल्म “मकड़ी” याद हो, तो उसमें जो बच्ची थी, ये वही हैं।

अमित त्रिवेदी ने इसके गीत बनाए हैं, हर गीत किसी पुराने गीत की याद दिलाता है, मतलब किसी एक गीत को उठाकर उसी की लाइन पर नया गीत बनाया है, वैसे गीत अच्छे लगते हैं। एक गीत में तो ख़ुद अमित त्रिवेदी ही नज़र आए हैं माइक पर गाते हुए। बैक्ग्राउण्ड म्यूजिक अच्छा नहीं है।
सेट अच्छे बनाए गए हैं, कलर टोन भी अच्छी रखी है जो nostalgic लगती है। कुछ लोगों को सिरीज़ का पहला भाग अच्छा लगा पर मुझे अंत के दो एपिसोड बाकियों से अच्छे लगे। कहानी अच्छी थी, इसे असल किरदारों से मिलाने से बचना चाहिए थे, राइटिंग पर और मेहनत की जाती तो लाजवाब हो सकती थी, फिलहाल औसत है, बिलकुल खराब भी नहीं कहूँगा।
और एक बात, इसमें इतनी सिगरैट पी गई है कि 3-4 एपिसोड और होते तो मेरे फेफड़े खराब हो जाते।

अंत में, अगर इन सब लोगों के असल जीवन के बारे में पढ़ना हो तो मंटो ने एक किताब लिखी है “मीना बाज़ार”, उसे पढ़िये।


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