आज जो मैं लिखने जा रहा
हूँ, वो बड़ा रिस्की है। जान हथेली पे लेकर लिख रहा हूँ क्योंकि एक
साथ बहुत से लोग जो हाथ में आए उस हथियार को लेकर मुझ पर टूट पड़ेंगे।
जॉन विक,
जॉन विक सुन सुनकर कान दुखने लगे थे बक़ौल अहमद फ़राज़ –
“सुना है लोग उसे आँख भर
के देखते हैं
सो उस के शहर में कुछ दिन
ठहर के देखते हैं”
बस इसी ख़याल के साथ सारे
इंतजामात के बाद, आधी रात को इस गुदगुदी के साथ फ़िल्म देखने बैठे कि
“भोत मज़ा आने वाला है भिडू”। और शुरुआत के हर सीन को ये मानकर ही देखा कि मास्टर
पीस है ये। मश्तिष्क में जो तारीफ़ें पहले ही से ठुँसी पड़ी थीं,
वही निकल रही थीं। फिर जब वो सब निकल गई तो अपना स्वयं का दिमाग सक्रिय हुआ,
तब तक 35% फ़िल्म हो चुकी थी। तब पहली बार हल्के से विद्रोह के स्वर उठे पर तारीफ़ों
के वशीभूत हमने उन्हें दबा दिया लेकिन धीरे-धीरे ये स्वर मजबूत होने लगे और अंततः
सत्यपाल मलिक की तरह खुलकर सामने आ गए। हम कहानी में टिवस्ट का इंतज़ार करते रह गए,
ये सोचकर कि इतनी सरल तो हो नहीं सकती आज के युग में कहानी,
पर वो कमबख़्त आया ही नहीं और एण्ड क्रेडिट्स आ गए।
हमें अपनी आँखों पर भरोसा
नहीं हुआ....”सुना है लोग उसे....”
क्या हुआ उस सब का?
मुझे नहीं पता अगर ये
फ़िल्म किसी विडियो गेम का फ़िल्म रूपान्तरण है, पर इसे असल में विडियो
गेम ही होना चाहिए। जॉन का भोकाल शुरू के 10 मिनट में ही बहुत बड़ा बना दिया जाता
है, हम जॉन को नहीं जानते पर फ़िल्म के सब किरदार हमें बता देते हैं
“अबे ये पीएसपीओ नहीं जानता? हा हा हा”। हमको लोगों की बातचीत से ही समझ आ जाता है कि कोई
जबर चीज़ है ये जॉन भिया।
उसका इतिहासा ये कि बड़ा लड़ाका रहा है किसी ज़माने में जिसे हराना नामुमकिन था किसी के लिए भी। लेकिन एक स्त्री के प्रेम में पड़कर बतर्ज “इश्क़ ने हमको निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के”, जॉन भिया सब छोड़-छाड़ के जोगी, मेरा मतलब है सज्जन बन जाते हैं। फिर एक दिन बीवी पता नहीं क्यों मर जाती है, अपने पीछे जॉन भिया के एकलेपन में साथ देने एक कार, और एक नन्हा-मुन्ना कुत्ता छोड़ के। “गेम ऑफ थ्रोन्स” से निकल कर ग्रेजोय आ जाता है और कुत्ते को मार, कार चुरा ले जाता है। जॉन भिया को इत्ती कहाँ सेहन होती है, फ़र्शी फोड़ के उसमें से बंदूक-वन्दूक बाहर निकाल लेते हैं और निकल पड़ते हैं शिकार करने। चारों तरह हाहाकार मच जाता है। धरती, आकाश, पाताल डोलने लगते हैं। क्या पुलिस और क्या चोट्टे, सब डर के मारे बार-बार टॉइलेट जाने लगते हैं। जॉन भिया अकेले ही निकल पड़े हैं, उधर लड़के का बाप जो कभी जॉन भिया के साथ काम करता था, लड़के की सुरक्षा में पूरी फौज लगा देता है और वो फौज भी जॉन भिया के नाम से थरथराती रहती है। जॉन भिया अकेले ही सबपे भारी हैं।
बंदूक से जो आग उगलना चालू
करते हैं तो ढेर के ढेर लगा देते हैं लाशों के। “कहाँ पड़े हो चक्कर में, कोई नहीं है टक्कर में”, जिधर बंदूक घुमाते गोली
अपने आप निशाने पर खुद चलकर पहुँच जाती है। ग्रेजोय तक पहुँच भी जाते हैं, पर छोटे-मोटे गुंडों की
तरफ तो देखते ही बंदूक चलाये बिना भी निशाना लग जाता है पर लौंडा हर गोली से बच
जाता है। जॉन भैया की एक भी गोली उसको नहीं लगती। वो जो लोग बोलते रहते हैं उनके
बारे में कि “focused, committed” वगैरह वो सब उस समय गड़बड़ा जाता है। पर एक बात बताओ, डाइरेक्टर भी कोई चीज़
होती है कि नहीं? अगर लौंडे को उसी समय गोली लग जाती तो पिक्चर ही खतम हो
जाती आधे में ही। फिर देखते क्या तुम लोग? हर बात में लाजिक घुसेड़ना
अच्छी बात नी है हो?
तो
ये छुपम-छुपाई चलती रहती है। लौंडा डाल-डाल तो भिया अपने पात-पात। आखिर मिल ही
जाता है और दो गोली में भिया निबटा देते हैं। अब लड़के के बाप की बारी है। उधर भी
कार की खूब ठोका-ठाकी होती है, दनादन गोली और भमाभम मुक्के चलते हैं और आखिर उसको भी
जन्नत रसीद करके भिया रवाना होते हैं। इस बीच में उनके पेट में भोत बड़ा चीरा भी लग
जाता है, डॉक्टर
टांके लगा देता है और उसके तुरंत बाद ही भिया फिर उठापटक में लग जाते हैं, टांके भी टूट जाते हैं पर
दूसरी बार लगवाते ही नहीं वो, क्योंकि बार बार लगवाने से क्या फायदा? हर 10 मिनिट में तो भिड़ना
पड़ता है उनको।
अपने
इधर कार खरीद के लगो फूले नी समाते हैं, उसको टीका लगाएंगे ने नारियल फोड़ेंगे, ने मिठाई खिलाएँगे और फिर
एक स्क्रेच भी लगे तो सीधा दिल पे लगता है, इधर जॉन भिया और दूसरा
कोई भी आदमी कार की तो कोई कदर ही नी करता। जिस कार से घर जा रिये हैं, रास्ते में ही उसके
पर्खच्चे खुद ही उड़ा देते हैं।
जितने
लोग महाभारत के युद्ध में टोटल नहीं मरे होंगे उससे ज़्यादा तो जॉन भिया ने अकेले
ही निबटा दिये। मैं तो कहता हूँ महाभारत में पांडव कृष्ण की जगह जॉन भिया को ले
लेते तो 100 क्या 1000 कौरव भी कम पड़ते, आदमी अकेला ही बिछा देता सबको।
फिर
मैंने 10-15 मिनट दूसरा भाग भी देखा और पाया कि साला कार वाला मैटर अब भी नहीं
सुलझा है। जो कार जॉन भिया की चोरी हुई थी वो उनको मिली ही नहीं थी। वो कार
ग्रेजोय के काका के पास थी और इस पिक्चर में काका से लड़ाई है उसकी। वो कार ले भी
लेता है और जिस कार के लिए महाभारत मचा डाला उसको बाहर निकलते ही लड़ाई-झगड़े में
तोड़-फोड़ लेता है। मुझे तो समझ ही नहीं आया कि इस कर के लिए ये आदमी पगलाया हुआ था
और अभी पूरी चूर-चूर कर डाली? उसके आगे मुझे देखना है...देखकर मैं भी फ़िल्म की तरह तीन
भागों में बात करूंगा आपसे।
खैर, आप लोगों के दिल पे बहुत
कटार चला ली, पर मुझे लगता है जॉन विक से जो आपकी मोहब्बत है, वो असल में Keanu
reaves से है
जॉन से नहीं। Keanu ने बहुत बढ़िया निभाया है किरदार। हमारे यहाँ एक्शन फ़िल्म
बनाते हैं तो सोचते हैं, एक्शन में एक्टिंग का क्या काम? तो tiger, विद्युत जैसे रोबोट ले
लेते हैं, पर नहीं, एक्शन फ़िल्म में भी जान
एक्टर ही डालता है। वही दर्शक को गुस्सा दिलाता है, दुख में डुबोता है।
इसीलिए घातक एक श्रेष्ठ फ़िल्म है क्योंकि वो नायक के हर दर्द, हर गुस्से को आपके अंदर
उतार देती है। जब वो कात्या को मारता है तो आप खुद उसे मारना चाहते हैं।
हॉलीवुड
टैक्नीक के मामले में हमसे बरसों आगे है, उनकी हर फ्रेम अमीर लगती है। ये factor भी मायने रखता है। बाकी कुल
मिलाकर मुझे ओवर रेटेड लगी फ़िल्म। कहानी में जो complexity चाहिए वो बिलकुल नहीं है। एक
हीरो है, एक विलेन है, हीरो अकेला ही पूरी आर्मी का सफाया कर के
विलेन तक पहुँच कर उसे खत्म कर देता है, बीच में हीरो का दोस्त भी मर जाता है। ये
फॉर्मूला तो हम 80 के दशक की फ़िल्मों में बहुत देख चुके। तूफ़ान में अमिताभ बच्चन का
दोस्त फारुख शेख जब मरा था तो बहुत दुख हुआ था।
ख़ैर, अब आप अपनी भड़ास निकाल सकते हैं।
यलगार!
#JohnWick
#KeanuReaves #Hollywood #MovieReview
मुझे कुछ खास नहीं लगी थी कहानी लचर है।
जवाब देंहटाएंबाकी एक्शन बढ़िया है।
थोड़ा लॉजिकल होता तो और अच्छा होता
सही है, कहानी तो है ही नहीं, gun fight के लिए ही बनाई है।
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