Tanakkaran - Hidden truth of Police Force

 


"Tanakkaran" (circle inspector) का हिंदी रिमेक कोई नहीं बनाएगा और अगर बनाएगा भी तो हिंदी पट्टी, अपने बेवकूफाना दक्षिण प्रेम के बावजूद, नहीं देखेगी। कोई भी फ़िल्म जो दिमाग़ की दरकार रखती है, इन्हें नागवार है। यही कारण है कि "बाहुबली" जैसी दोयम दर्जे की फ़िल्म को संस्कृति रक्षक तक घोषित कर डाला और "पीएस - 1" को उतना प्रतिसाद नहीं मिला, कारण वही, कि दिमाग नहीं खुजाना है क्योंकि खाली जगह खुजाने पर दुखती है। 

"तनक्करण" एक ऐसे विषय को एक्सप्लोर करती है जो अछूता है। अक्सर फ़िल्मों में पुलिस का चरित्र sterotype होता है। अगर हीरो है तो ईमानदार, अन्यथा हद दर्जे का भ्रष्ट। असल ज़िंदगी में भी हमारे अनुभव विपरीत ही होते हैं। हां, generalization नहीं किया जा सकता लेकिन ज्यादातर cases में भूमिका नकारात्मक होती है। फ़िल्म "शूल" इसकी पड़ताल करते हुए सिस्टम तक पहुंचती है, tanakkaran चार कदम और आगे बढ़कर एक अनदेखे पहलू को उजागर करती है। पूरी कहानी पुलिस सेवा में नए भरती हुए जवानों की ट्रेनिंग के इर्द गिर्द घूमती है। किस तरह बेइमानी, पक्षपात, जातिवाद और ताक़त का दुरुपयोग इसी ट्रेनिंग के दौरान जवानों के अंदर उतार दिया जाता है, इसे पूरी तरह उघाड़ कर रख देती है ये कहानी।

इस कैंप में नए रिक्रूट्स के साथ वो सब होता है जो ये लोग यहां से निकल कर जनता के साथ करेंगे। और जो कुछ, जितनी संवेदन हीनता के साथ इनके साथ होता है, वो उनके अंदर की संवेदना को भी ख़त्म कर देता है। 

यहीं कुछ ईमानदार अफ़सर भी होते हैं पर उनके हाथ में कोई ताक़त नहीं होती, वे बेबसी के साथ सारा अन्याय अत्याचार देखने, और उसे देख अपना ख़ून जलाने के सिवा कुछ नहीं कर सकते। ऐसा एक चरित्र बेबसी की ऐसी ही एक परिस्थिति में कहता है कि "मैं भगवान से एक ही प्रार्थना करता हूं कि अगला जन्म अगर होता है तो मुझे कुछ भी बनाए पर पुलिस वाला न बनाए"।

ये कहानी है "अरिवु" की जिसके पिता का सपना था कि वो पुलिस फोर्स ज्वाइन करे और एक ईमानदार अफसर बने। बस इसी सपने को लेकर वो आता है। यहां होते अन्याय को वो सह नहीं पाता और आवाज उठाता है जिसकी वजह से ट्रेनर उसके खिलाफ़ हो जाता है। ऊपर तक के अफसरों की कोशिश होती है कि वो अफसर न बन पाए, जिसके लिए वे बेहद अमानवीय तरीके भी अपनाते हैं। सभी मुश्किलों से अरीवु कैसे पार पाता है यही कहानी है। उल्लेखनीय है कि यहां हीरो वो लार्जर देन लाइफ हीरो नहीं बल्कि एक आम आदमी है। 

फ़िल्म थिएटर में देखने लायक है। कुछ पात्रों और सिर्फ एक ही लोकेशन को लेकर बेहतरीन तानाबाना बुना है। फिल्म के लेखक और निर्देशक "Tamizh" की ये पहली ही फ़िल्म है और उन्होंने अपना लोहा मनवा लिया है। 

फिल्म के हीरो विक्रम प्रभु ने बहुत ही शानदार अभिनय किया है। उनका कैरेक्टर ज्यादातर चुप हो रहता है, उसे अपनी आंखों, अपने हाव भाव से अपना दर्द दिखाना था जो उन्होंने बखूबी निभाया है। बाकी एक्टर्स ने भी पूरा साथ दिया है। फिल्म में लव स्टोरी है लेकिन उसे कभी हावी नहीं होने दिया गया, वो अंडर करेंट के जैसी चलती रहती है। ऐसी फिल्म में इमोशंस का खास रोल होता है क्योंकि इमोशंस ही बहुत कुछ जस्टिफाई करते हैं वरना कुछ घटनाएं अविश्वसनीय भी लग सकती हैं इसीलिए निर्देशक वही अच्छा होता है जिसकी भावों पर पकड़ मजबूत हो। 

ओवर ऑल बहुत बढ़िया फिल्म है। Hot star पर उपलब्ध है।

और एक बात, कहानी पूरी तरह काल्पनिक भी नहीं है। एक पुलिस कैंप में जवानों ने विद्रोह किया था जिसकी खबर बाहर आई थी, उनकी यही सब शिकायतें थीं जो फिल्म में दिखाई गई हैं। 

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