एन एक्शन हीरो - टाइम पास

 

सबसे बढ़िया मुझे लगा जो रेशे-रेशे मीडिया के उधेड़े गए हैं। अरनब गोस्वामी की तो धज्जियां उड़ा दी हैं। और दूसरी, जो भारतीय जनता की उधेड़ी गई है। ये दोनों एक ही हैं। मीडिया और जनता में फर्क नहीं है कुछ, दोनों के माथे पर वही गुदवाया जा सकता है जो यहाँ लिखा नहीं जा सकता।

एन एक्शन हीरो, फ़िल्म किसी और ही विचार को दिमाग में लेकर देखी पर निकली कुछ और ही।

मुझे लगा था कि कहानी ये होगी कि एक फ़िल्मी एक्शन हीरो है, वो किसी कारण से एक असली बाहुबली के साथ पंगे में फँस जाता है, अब चूंकि वो सिर्फ परदे पर ही एक्शन हीरो है, असल ज़िंदगी में नहीं तो उसे बाहुबली से बचना है और कैसे एक कमजोर आदमी उससे बचता है। ये कहानी होगी, जो इंट्रेस्टिंग है। लेकिन फ़िल्म इसकी उल्टी ही निकली। ये एक्शन हीरो परदे पर भी वही है और असल ज़िंदगी में भी। वो जिस तरह परदे पर लोगों को उछल-उछल कर मारता है, उसी तरह असल ज़िंदगी में भी।

कहानी ये है कि एक्शन हीरो मानव (आयुष्मान खुर्राना) की फ़िल्म की शूटिंग हरियाणा के किसी गाँव में चल रही है, वहाँ के नेता भूरे (जयदीप अहलावत) के भाई को उसके साथ फोटो खिचवाना है, पर मानव को दिन भर समय नहीं मिलता। नेताजी को इंतज़ार करते सुबह से रात हो जाती है। अब गुस्से में आगबबूला छुटभैया मानव के साथ हाथापाई करता है और पत्थर पर गिरकर मर जाता है। मानव फरार हो जाता है। भूरे उसे जान से मारने की कसम खाकर घर से निकलता है। मानव लंदन चला जाता है और भूरे पीछे-पीछे वहीं पहुँच जाता है। इस बीच न्यूज़ चैनल जो नौटंकी मचाते हैं उसे देखने में सच में मज़ा आया। स्पूफ़ भी रियल लगे तो समझिए रियल भी स्पूफ़ ही है।

कभी लगता है seriously बनाई है, कभी लगता है मज़ाक-मज़ाक में बना दी। कभी गंभीर लगती है कभी कॉमेडी। intense सिचुएशन को भी इस तरह ट्रीट किया गया है कि दिमाग तनाव मुक्त रहता है। एकबारगी लगता भी है कि बेचारे का क्या होगा पर अगले ही पल लगता है, सब कर लेगा बंदा और आस पास दूसरे कलाकार हैं न। भूरे एक बार खतरनाक लगता है और एक बार बेवकूफ़। ऐसा लगता है रायटर confused था कि इसे ट्रीटमंट क्या दूँ। जैसा मैंने सोचा था, वैसा रियल ट्रीटमंट होता तो बहुत शानदार फ़िल्म बनती। आम आदमी के अपनी सीमाओं के अतिक्रमण करने की कहानियाँ सबको अच्छी ही लगती हैं। यही वजहघातकको बहुत ऊँचा दर्ज़ा देती है।

स्टार भी इंसान ही होता है, उसे भी वही सारे डर सताते हैं जो आम आदमी को। फ़िल्म इतनी तो realistic है, कि मानव अमिताभ बच्चन की तरह सामने नहीं खड़ा हो जाता है किचला गोली मर्द का बच्चा है तो, वो सुमड़ी में खिसक लेता है माहौल भांपकर। और भूरे के वहाँ पहुँचने पर भी भागता ही फिरता है पर आख़िर समझ जाता है कि इस स्थिति से भाग कर नहीं इसका सामना कर के ही पार पाया जा सकता है। ये विचार भी बढ़िया है, पर प्रोब्लेम है इसके ट्रीटमंट में। ख़ैर, मानव किस तरह इस समस्या का सामना करता है और इस सामना करने में और कितनी नई समस्याएँ पैदा होती हैं, ये आप फ़िल्म देखकर ही जानें तो बेहतर है।

मेरा कहना बस इतना है कि ये वो हो पाई जो हो जाना चाहिए था लेकिन वो भी नहीं हुई जो नहीं होना चाहिए था। याने बहुत अच्छी नहीं है तो बुरी भी नहीं है, जिसे टाइम पास कहा जा सके शायद यही वो फ़िल्म है। स्टार वैल्यू के लिए आयुष्मान है, एक्टिंग के हैवी डोज़ के लिए जयदीप अहलावत हैं। हाँ, हीरोइन नहीं है कोई, शायद यही वजह रही हो कि फ़िल्म चली नहीं। पर अब वो युग तो रहा नहीं कि हीरोइन हो तो लोग देखें नहीं, लोग आइटम सॉन्ग के शौकीन हैं जिसके लिए बाकायदा मलाइका अरोड़ा को लाया गया है, जिनका इस धरती पर अवतार ही आइटम डांस करने के लिए हुआ है। ये विधा ईजाद नहीं होती तो उनका क्या होता पता नहीं। फ़िल्म गंभीर है और ही कॉमेडी है, बीच का कोई संकर वर्ण हो गई है। इसे बोराटकी तरह ट्रीट किया जाता तो भी बढ़िया होता पर वैसा तो नहीं ही है और वैसा ट्रीटमंट बहुत ज़्यादा टैलंट की दरकार रखता है। बहरहाल, लोगों को ये हल्की फुलकी फ़िल्म भी पसंद नहीं आई, जाने ये लोग देखना क्या चाहते हैं। गंभीर फिल्मों से नाक भौं सिकोड़ते हैं कि entertainment चाहिए और इस तरह की फिल्में देखते नहीं तो बचते हैं अक्षय कुमार ही।

अभिनय के मामले में आयुष्मान जयदीप के सामने कहीं नहीं टिकते लेकिन फिर भी अच्छा किया है। जयदीप अहलावत तो ख़ैर, किरदार में ढल ही जाते हैं। हर्ष छाया ने फिर उसी तरह का किरदार किया है जैसा उन्हें कई बरसों से मिलता रहा है और मैं हर बार की तरह फिर ये कहता हूँ कि कोई इन्हें बढ़िया रोल क्यों नहीं देता, एक अच्छा एक्टर बेमतलब के किरदारों में खप गया।

फ़िल्म में मीडिया का सर्कस बराबर चलता रहता है और अंत में मीडिया और जनता का यू टर्न ले लेना भी मज़ेदार है। पैसे वालों के लिए जनता जजमेंटल तो रहती है।

एक और बेहतरीन गीत का मर्डर किया गया है इस फ़िल्म में – “बच के रेना रे बाबा

जिस तरह के गीत पुराने संगीतकार हँसते-खेलते मज़ाक में बना दिया करते थे, आज के इन नमूनों से seriously भी उतना नहीं होता। ये गीत पंचम के महान गीतों में शुमार नहीं है पर अच्छा लगता है। मैं फिर माँग करता हूँ कि इस गुनाह की कोई सज़ा मुक़र्रर की जाये। गाने में नया संगीत ठूँसना तो ठीक, उस पर ये खुरदरी, भाव विहीन, कराहती आवाज़ें सुनकर ख़ून उबाल मारने लगता है कि अगर ये सामने हो तो सच में ख़ून पी जाऊँ। हाँ, एक गीत ज़रूर ज़िक्र के काबिल है, जेड़ा नशा आज तो ख़ैर ये गीत प्रसिद्ध हो गया है लेकिन इसका आरिजिनल वर्शन मैंने 2020 में बहुत सुना है। और क्या गीत बना है वो, आज भी यूट्यूब पर उपलब्ध है। उस वक़्त ज़्यादा लोग इस गीत के बारे में नहीं जानते थे लेकिन धीरे-धीरे इसके बोलों की ही तरह इसका नशा ऐसा चढ़ा कि फ़िल्म वालों ने recreate कर दिया। भला हो कि उन्होंने असली रचियता को ही रखा, अमर जलालने ये गीत compose किया है और गाया भी है। मैंने पढ़ा था कि इसमेंआप जैसा कोईको भी रिक्रिएट किया गया है, ज़ीनत अमान के ऊपर, पर downloaded फ़ाइल में मुझे तो नहीं दिखा।

फ़िल्म नेट्फ़्लिक्स पर उपलब्ध है। देखकर बताइये मेरी बातों से कितना इत्तेफाक़ रखते हैं।

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