पिप्पा - टैंक जो पानी पर चला पर परदे पर नहीं

 


मैं फिल्म देखना शुरू करता हूँ, अगर अच्छी लगती है तो पूरी देख डालता हूँ और अगर आधे घंटे में मुझे न बांध पाये तो बंद कर देता हूँ। कभी-कभी तो 10 मिनट से ज़्यादा देखना भी असंभव हो जाता है। अब मुझे कोई पैसे तो मिलते नहीं हैं review लिखने के कि फ़िल्म कैसी भी हो, उसकी लानत-मलामत करने के लिए भी पूरी झेलूँ। अगर ये facebook समाज मुझे नौकरी पर रख ले तो मैं वादा करता हूँ, हर ऐरी-गैरी फ़िल्म पूरी देख कर पूरे मनोयोग से उसकी धज्जियां उड़ाऊंगा। 

ख़ैर, जब तक आप लोग तय करें, मैं इस फ़िल्म के बारे में बता देता हूँ जो मैंने पूरी नहीं देखी है। 

“पिप्पा”, अजीब सा नाम है ना? मुझे भी लगा था ये क्या नाम हुआ? ऐसा तो किसी आदमी का भी नाम नहीं सुना कभी। लेकिन ये नाम था 1971 में हुए भारत पाकिस्तान युद्ध में इस्तेमाल हुए एक टैंक का। ये टैंक ज़मीन के साथ-साथ पानी में भी चल सकता था। इसने उस युद्ध में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। तो ये कहानी पिप्पा की भी है और कैप्टन बलराम सिंह मेहता की जिनकी आत्मकथा पर ये फ़िल्म बनी है। चूंकि किताब मैंने पढ़ी नहीं है इसलिए पता नहीं कि किताब फिल्मी है या फ़िल्म में बहुत ज़्यादा सिनेमेटिक लिबर्टी ली गई है? ये लिबर्टी इतनी ज़्यादा हो गई है कि कुछ ज़्यादा ही फिल्मी हो गई है। characters नैचुरल नहीं रहे। बलराम सिंह का कैरक्टर कोई भी प्रभाव पैदा नहीं कर पाता, बल्कि लो आईक्यू वाला आदमी लगता है जिसका व्यावहारिक ज्ञान शून्य है। उसे विद्रोही दिखाने के लिए मूर्खता भरे sequence लिखे गए हैं। आधे घंटे तक मैंने इंतज़ार किया कि फ़िल्म बांध ले मुझे लेकिन जैसा कि मैंने कहा, मैं आप लोगों का official समीक्षक नहीं हूँ अब तक इसलिए मैंने बंद कर दी। 

ईशान खट्टर ने इससे पहले कुछ महत्वपूर्ण फिल्में की हैं, उनकी पहली ही फ़िल्म माजीद मजीदी के साथ “बियोंड द क्लाउड्स” थी। फिलहाल उनकी हिन्दी सिनेमा के दर्शकों में कोई छवि बन नहीं पाई है। मुझे इस कैरक्टर में वे unfit लगे। ऐसा लग रहा था जैसे कोई बच्चा टैंक चला रहा है। परफॉर्मेंस भी उतना जबर्दस्त नहीं कहा जा सकता, हालांकि बुरा भी नहीं है। 

ये फ़िल्म पहले थिएटर में रिलीज़ होने वाली थी लेकिन इसके निर्माताओं की "तेजस" का ऐतिहासिक हश्र होने के कारण इसे amazon prime पर रिलीज़ किया गया। फ़िल्म में पैसा अच्छा खासा लगाया गया है और उसी की एक कड़ी है कि संगीत “ए आर रहमान” का है। और यही है मेरे लिए इस फ़िल्म का मुख्य आकर्षण। रहमान अपनी अंतर्राष्ट्रीयता के प्रभाव से वापस बाहर आ रहे हैं। उनके संगीत से जो चीज़ धीरे-धीरे गायब हो गई थी वो फिर नज़र आने लगी है, याने भारतीयता। उनका संगीत भारतीय और पश्चिमी संगीत का अद्भुत मिश्रण हुआ करता था लेकिन समय के साथ ये वेस्टर्न ही रह गया। उनके संगीत में एक ग्लूमी फ़ील आ गया था। आपने कभी फ़िल्म “मॉम” के गीत सुने हों तो पिछले कुछ सालों से उनके संगीत का यही साउंड बन गया था जो अंदर कोई हलचल पैदा नहीं करता था। एकरसता लिए लय और ताल, ये रहमान का सिग्नेचर नहीं था। लेकिन पिछले कुछ समय से उनके संगीत में वही ऊर्जा फिर से सुनाई पड़ने लगी है। “अतरंगी रे” से उन्होने वापस धूम धाम से अपने पुराने स्वरूप में वापसी की थी। ये वही हमारे वाले रहमान हैं। इस फ़िल्म का भी संगीत बढ़िया है और सबसे अच्छा गीत है “मैं परवाना” जिसे रेट्रो स्टाइल में बनाया गया है और अरिजित सिंह से उसी तरह गवाया गया है। गवाया गया इसलिए कहा कि अरिजित वैसे तो सारे गाने एक ही भाव में गाते हैं, उनकी गायकी में कोई विविधता मुझे कभी नज़र नहीं आई पर इस गीत में उनकी आवाज़ और अंदाज़ दोनों जुदा हैं। और क्या गाना है, मेरे दिमाग पर चढ़ा हुआ है। इसमें फिर वही रहमान वाली बात है जो धीरे-धीरे चढ़ता है। पहली बार में समझ नहीं आएगा पर एक हुक छोड़ जाएगा, दूसरी बार में कुछ अंदर उतरेगा और तीसरी बार में दीवाना बना देगा। इस गीत में ईशान खट्टर का डांस बेहतरीन है। पर इसकी सिचुएशन जबर्दस्ती बनाई हुई लगती है, मुझे नहीं लगता कि कैप्टन के जीवन में ऐसी कोई बात हुई होगी। इसके निर्देशक  राजा कृष्ण मेनन ने इससे पहले कोई तीर नहीं मारा है। उनकी पहली फ़िल्म “बस यूं ही” थी जो 2003 में आई थी, इसके बाद सीधे 2009 में "बारह आना" बनाई जो नसीर साहब और विजय राज के होने के बाद भी बहुत ही बोरिंग थी, पर "ऐयरलिफ्ट” बना लेने से वैल्यू बढ़ गई हालांकि कोई खास नहीं थी वो फ़िल्म भी। 

बहरहाल, खुशी है रहमान के वापस अपने स्टाइल पर आने की पर अफसोस ये वो पीढ़ी नहीं है जिसने रहमान को सर आँखों पर बैठाया था। उस पीढ़ी के पास फिर भी सेंसिबिलिटी थी लेकिन ये पीढ़ी garbage की ख़ुराक पर बड़ी हुई है, इसके पास धैर्य नहीं है अच्छे संगीत को सुनने और गुनने का। अतरंगी रे के गीत अच्छे होते हुए भी उतने नोटिस नहीं हुए। इन्हें कंप्यूटर जनित ध्वनियों की आदत हो गई है। 

ख़ैर, आप लोग विचार करिए मुझे आधिकारिक समीक्षक बनाने का, तब तक अलविदा 😉

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