पहले कुछ काउंटर व्यूज़ की बात कर लें।
एक व्यू था कि ऐसी कहानियाँ बच्चों को गलत आशाएँ देती हैं। लाखों बच्चों में कुछ मुट्ठी भर ही कर पाते हैं बाकी मायूस होकर चले जाते हैं। लेकिन मेरा सवाल है कि कहानी ज़िद और जुनून की ही बनती है। मेरी फिल्म पर भी कुछ लोगों के विचार थे कि भाई ये तो कोई सोल्यूशंस नहीं है, वो कुछ और कर लेता लेकिन मेरा कहना ये है कि कुछ और तो सब कर ही लेते हैं तो क्या सबकी कुछ और कर लेने की कहानी लिखें? और क्यों लिखें? उसमें खास क्या है, हाँ भाई इंसान फ़ेल हुआ उसने सम्झौता किया और दूसरी जगह लग गया, ये कोई कहानी हुई?
सिकंदर की कहानी युद्ध करने के कारण नहीं कही जाती बल्कि उसके उस जुनून और जज़्बे की वजह से कही जाती है। तो ये कहानी भी उस जुनून की ही है, मनोज के जज़्बे की, उसके जुनून की तो पूरी तरह से valid है, कही जाने लायक है, कही जानी चाहिए। और ये तो कहानी के लिए भी तैयार ज़मीन है, जीवन के उतार-चढ़ाव, सुख-दुख।
दूसरा व्यू ये आ रहा कि ये फिल्म जबर्दस्ती का मोटिवेशन देकर व्यवस्था की खामियों पर परदा डालती है। तो इसका जवाब ये है भाई, कि ये फिल्म व्यवस्था सुधार के उद्देश्य से नहीं बनाई गई बल्कि इस सड़ी हुई व्यवस्था में एक व्यक्ति कितना संघर्ष करके सफल होता है, इसकी है। इसे आप इस तरह से भी देख सकते हैं कि कितना सड़ा हुआ समाज है हमारा जहां एक गरीब आदमी ईमानदारी से जी नहीं सकता, अपना कोई काम धंधा, जुगाड़ नहीं कर सकता, और तो और वो जब अपनी थोड़ी सी जमा पूंजी लेकर चलता है तो उसी की तरह एक आम इंसान उसे लूट लेता है फिर वो जो असामान्य मेहनत करता है वो सबके बस की बात नहीं है। फिर जब इतना सब करके वो इंटरव्यू देने भी जाता है तो वहाँ हिन्दी की वजह से उसे हिकारत से देखा जाता है। पर है तो ये सच ही ना? क्यों न कहे कोई ऐसे इंसान की कहानी जो इन सब विपरीत परिस्थितियों के बावजूद सफल हो गया? क्या आप ये चाहते हैं कि इसकी कहानी कुछ यूं हो कि मनोज वहाँ तैयारी करने गया और सभी तरफ से लुट पिटकर वापस आ गया?
अरे चाहते क्या हो?
अब अगली बात ये कि कहानी को कहने के युग में तीन तरीके हैं, या तो कोई उसे पढ़कर सुनाये, या लिख दे या फिर फ़िल्म बनाए। फ़िल्म क्या है? कहानी कहने का तरीका ही है ना? महंगा तरीका है पर है तो आख़िर कहानी कहने का ही। ये और बात है कि लोग इस गलतफ़हमी में होते हैं कि फ़िल्म कैमरा की तकनीक है, वीएफ़एक्स है, स्टंट है बस इसीलिए ज़्यादातर फ़िल्में बेजान होती हैं, दिल तक नहीं पहुँचती। तो इसका मतलब हुआ कि फ़िल्म वही है जो दिल तक पहुँच जाये और 12th फ़ैल इसीलिए एक बेहतरीन फ़िल्म है कि ये दिल तक पहुँचती है।
फ़िल्म के दिल तक पहुँचने के लिए ज़रूरी है, कहानी में आत्मा हो, फिर निर्देशक उसे महसूस करता हो और actors ने अपने किरदारों में जान फूँक दी हो। जो लोग कह रहे हैं कि कुछ मज़ा नहीं आया उनके लिए – “अरे चाहते क्या हो वाला मीमे”
फिल्म की कहानी तो एक आईपीएस aspirant की है और इसीलिए मैंने भी सोचा था कि जब टीवीएफ़ इस पर बना ही चुका है तो इनहोने इसे क्यों उठाया? लेकिन पूरी देखकर समझ आया कि एक होता है मैजिक टच।
विधु विनोद चोपड़ा ने बरसों बाद निर्देशन किया है और उनका टच महसूस होता है। एक निर्देशक का काम होता है हर सीन के अंदर के इमोशन को दर्शक के अंदर उतार देना। इस फ़िल्म में ऐसे कई पल हैं जो आपको भिगो देते हैं। और इसमें पार्श्व संगीत का भी खास योगदान है। आज के ट्रेंड से उलट पार्श्व संगीत बहुत ही soothing है। अब जब हर कोई हॉलीवुड की भौंडी नकल में एक दूसरे को पछाड़ देने पर आमादा है, बैक्ग्राउण्ड म्यूजिक में सिर्फ बांसुरी और सितार के सहारे जादू उत्पन्न करना वाकई साहस और हुनर का काम है। और ये अलग सा म्यूजिक क्यों है ये भी आपको बता देता हूँ, दरअसल ये सत्यजित राय की अपू त्रयी से प्रभावित संगीत है और बाकायदा इसकी घोषणा फ़िल्म के क्रेडिट्स में है। संगीत के साथ खामोशी को किस तरह से ब्लेन्ड किया जाये कि प्रभाव 10 गुना हो जाए। हर जगह संगीत होना ज़रूरी नहीं होता, खामोशी भी बहुत गहरा प्रभाव छोडती है।
इस फ़िल्म को पहले राजकुमार हीरानी ही निर्देशित करने वाले थे लेकिन विधु इसके किरदारों से इतना attached हो गए थे और फिर जब उन्होने विक्रांत मेसी का टेस्ट लिया तो तय कर लिया कि वे खुद ही इसे निर्देशित करेंगे।
अगर कहानी को महसूस करके लिखा गया है, execute किया गया है तो उसमें असर होना ही होना है। विक्रांत मेसी ने गज़ब का परफॉर्मेंस दिया है। ऐसा लगता ही नहीं कि कोई और इस किरदार को इतना अच्छा निभा सकता था। उन्होने इतनी मेहनत की इसके लिए कि घंटों बनियान पहने धूप में बैठे रहते थे स्किन जलाने के लिए। ये tanning कई दृश्यों में नज़र आती है। विक्रांत मेसी ने वैसे तो अपने आप को हर काम में साबित किया है, खास तौर पर “क्रिमिनल जस्टिस” में पर ये उनका अब तक का सबसे अच्छा काम है।
यही बात मेधा शंकर के लिए भी सही है। अपना बेस्ट उन्होने दिया है इसमें हालाँकि इसके पहले शादिस्तान, दिल बेकरार वगैरह वे कर चुकी हैं।
गौरी भैया को देख कर बार बार लगता रहा कि इसे किसी अच्छे ही किरदार में देखा है पर याद नहीं आ रहा। बहुत बाद में याद आया कि “ग्रहण” में देखा था और कमाल काम किया था उसमें। कुछ वेब सिरीज़ करने के बाद ये पहली ही फ़िल्म है और उनका परफॉर्मेंस इसमें भी जबर्दस्त है।
और एक छोटे से किरदार का उल्लेख ज़रूरी है मनोज की माँ का, जिसे निभाया है “गरिमा अग्रवाल शर्मा’ ने। एक सीन में उन्होने इतना जबर्दस्त परफॉर्मेंस दिया है कि विक्रांत मेसी बहुत बहुत कमजोर दिखे हैं, ये सीन था जब मनोज को पता चलता है कि दादी नहीं रही और माँ से वो बातें करता है। कमाल का परफॉर्मेंस है, यही level है आखिरी सीन का जब वो मनोज से बात करती हैं, इन दो ही दृश्यों में उन्होने सबको पीछे छोड़ दिया, मेरी आँखें भीग गई थी सच में।
फ़िल्म में बार-बार मनोज सुन कर बार-बार मुझे उस गरीब मनोज की याद आई जिसके मुंह पर किसी महापुरुष ने सू-सू कर दी थी।
ख़ैर, ऐसे खून खच्चर से भरे दौर में इस तरह की भावनात्मक फ़िल्म बनाना हिम्मत का काम है पर विधु विनोद चोपड़ा हमेशा से ऐसे काम करते आए हैं।
संगीत से आख़िर विधु विनोद चोपड़ा भी निराश हो गए लगता है। आज के रेपिस्ट माहौल में उन्होने इसमें रैप का ही सहारा लिया है। एक गाना मीठा है बाकी 3 बार रैप है। शांतनु मोइत्रा को मधुरता रचने में तो महारत हासिल है पर रैप प्रभावी नहीं है।
कैमरा वर्क मुझे तो अच्छा लगा, हालाँकि इस बार मूवमेंट बहुत लिया है।
फिल्म इसी नाम की अनुराग पाठक की किताब पर आधारित है।
मेरी राय में तो इसे देखा जाना चाहिए, पुष्पा, सालार, जवान जैसी फिल्मों को सफल बनाने से तो अच्छा है इसे बनाया जाये। अब ये हॉट स्टार पर उपलब्ध है।
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बहुत सारी अतार्किकताएं हैं फिल्म में। कई जगह गले नहीं उतरती।
जवाब देंहटाएंमनोरंजन के नजरिए से तो ठीक है मगर मोटिवेशन की बात एकदम फालतू है 😀
तो मोटिवेशन के लिए क्यों देखना है? मनोज के संघर्ष को एप्रिशिएट कर के ख़त्म कीजिए, मैं तो मोटिवेशन के लिए कुछ भी नहीं देखता।
हटाएंबहुत बेहतरीन लिखा! शुक्रिया!❤️
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