Merry Christmas - कहानी एक रात की

 


ये review लिखने पर मुझे कैटरीना कैफ ने मजबूर किया है। 

जी हाँ, आपको भले आश्चर्य हो रहा हो कि विजय सेतुपति और खुद श्रीराम राघवन के होते कैटरीना के लिए review? 

पर श्रीराम राघवन की फ़िल्मों की अबूझ mysteries की तरह ही ये एक अबूझ mystery है मेरे लिए कि क्यों? आख़िर क्यों, अरे आख़िर क्यों? ऐसा क्या मजबूरी रही होगी कि फ़िल्म के सेंट्रल कैरक्टर के लिए उन्होंने एक लकड़ी का फट्टा चुना? मतलब इसमें क्या क्रिएटिव vision नज़र आता है? फ़िल्म का केंद्रीय किरदार फ़िल्म की जान होता है, उसकी रीढ़ की हड्डी। अगर वो मजबूत नहीं है तो फ़िल्म भरभराकर गिर जाती है, लिजलिजी होती है। जिस तरह रहमान का संगीत इतना powerful होता है कि बोलों के वाहियात होने पर भी अपने संगीत की वजह से ही यादगार हो जाता है उसी तरह श्रीराम राघवन का अपना क्राफ़्ट इतना मजबूत है कि इतने बड़े blunder के बावजूद सिर्फ उस क्राफ़्ट की वजह से ही फ़िल्म धड़ाम नहीं होती। मुझे यही ब्लंडर बदलापुर में भी लगा था पर वरुण धवन ने फिर भी अपना काम मेहनत से किया था और निभा ले गए थे, शायद उसी उम्मीद में इस बार भी जुआँ खेल लिया पर इस बार दाँव गलत ही था। कैटरीना ने अपने इतने लंबे पूरे करियर में ऐसा कोई संगीत गलती से भी नहीं दिया है कि अभिनय से उनकी दूर के चाचा-मामा-ताऊ की भी कोई रिश्तेदारी है। इस फ़िल्म के उन्हें रोते देखकर मुझे थकान महसूस होने लगी थी। इतनी बुरी तरह कौन रोता है भाई? ऐसा लग रहा था कि पूरी जान लगाकर भी इत्तू सी एक्टिंग बाहर निकल पाई जो उस लड़की के साथ दुखी होने की बजाय आपको हंसने पर विवश कर देती है। 

फ़िल्म हालाँकि फिर भी अच्छी बनी है लेकिन अगर इस कैरक्टर को हुमा कुरैशी या आलिया भट्ट ही निभाती तो फ़िल्म के असर में 10 गुना इजाफ़ा हो जाता। मैं अगर एक निर्देशक की नज़र से देखूँ तो कैटरीना को डाइरैक्ट करते हुए मैं रो पड़ता और कुछ भी, कुछ भी बहाना करके उन्हें आगे के लिए इन्कार कर देता। ये और बात है कि पैसा ही उन्होंने लगाया हो। 

फ़िल्म पूरी तरह से अपनी स्टोरी टेलिंग पर ही निर्भर हो गई है, परफॉर्मेंस के अभाव में और उस मोर्चे पर तो फ़िल्म सशक्त है। 

मेरी क्रिसमस एक ही रात की कहानी है जो शाम को शुरू होकर अगले दिन की सुबह खत्म हो जाती है। 

अल्बर्ट आज ही 7 साल बाद अपने घर मुंबई लौटा है। उसकी माँ मर चुकी है। क्रिसमस की शाम है, वो शहर में यूँ ही भटकने निकलता है। एक होटल में खाना खाने जाता है वहाँ एक अंजान आदमी जबर्दस्ती गले पड़ जाता है और अपने साथ आई मारिया को ये संदेश देने को कहता है कि उसे कुछ ज़रूरी काम आ गया था इसलिए वो चला गया। अल्बर्ट ये मैसेज मारिया को देता है जो अपनी छोटी सी बच्ची के साथ एक टेबल पर बैठी है। यहाँ से कुछ अल्बर्ट को इन दोनों से बांध देता है। उनकी जान पहचान होती है और अल्बर्ट उन्हें छोडने उनके घर तक जाता है। दोनों के बीच एक बॉन्ड बन जाता है। बच्ची के सोने के बाद दोनों घूमने निकल जाते हैं और जब वापस आते हैं तभी कहानी में बड़ा ट्विस्ट आता है। ट्विस्ट नहीं बताऊंगा पर हमारे दिमाग अपराध कथाएँ देख-देखकर इतने परिपक्व हो गए हैं कि छोटे-मोटे केस तो हम ही सुलझा लेते हैं पर अगर हम कहानी समझ जाएँ तो फिर राघवन का क्राफ़्ट किस काम का। तो हमें समझ नहीं आता कि आख़िर कहानी क्या है? आगे के घटनाक्रम में एक और किरदार का प्रवेश होता है जिसे संजय कपूर ने निभाया है। इस अपराध कथा का अंत एक बहुत ही मानवीय और दिल छूने वाले प्रसंग से होता है। यही एक कहानी की खूबसूरती होती है। जब तक कहानी में मानवीयता नहीं हो, भावनाओं को उद्वेलित नहीं किया गया हो वो कला के स्तर नहीं छूती, टाइम पास ही रह जाती है, बेजान। 

विजय सेतुपति ने अपना किरदार ज़रूर बहुत बढ़िया तरीके से निभाया है। उस कैरक्टर का अंतर्द्वंद्व, उसका अतीत, उसके डर, उसका दुख सब कुछ अभिव्यक्त किया है। संजय कपूर का रोल छोटा सा है और बहुत कुछ करने को भी नहीं है उसमें। पर इस दूसरी पारी में उनके लिए स्कोप नज़र आता है। एक छोटा सा किरदार राधिका आप्टे को भी दिया गया है जो श्रीराम राघवन की शायद favorite हैं क्योंकि बदलापुर के बाद हर फ़िल्म में नज़र आई हैं। शुक्र है मुख्य किरदार उन्हें नहीं दिया है। बहुत समय बाद विनय पाठक भी नज़र आए हैं जो एक बार फिर राघवन कैंप के रेगुलर एक्टर हैं जॉनी गद्दार के बाद से। फ़िल्म बहुत कम किरदारों और locations में ही चलती है। एक ही घर में तीन लोग और एक क्राइम सीन, इसी तरह की कहानी को बहुत ही बढ़िया तरीके से निभाया था उर्मिला मारतोंडकर ने, फ़िल्म थी “कौन”। अरसे बाद इसमें टीनु आनंद भी नज़र आए हैं। 

एक बार फिर, कैटरीना के किरदार के साथ दर्शक को सबसे ज़्यादा कनैक्ट होना चाहिए पर वो उसी से सबसे ज़्यादा डिस्कनेक्टेड रहता है पूरी फ़िल्म में। भावुक दृश्य तो छोड़ ही दें, सामान्य दृश्यों में भी उनका अभिनय pathetic है। मुझे तो ये लगता है कि एक ईसाई लड़की के look के लिए ही उन्हें चुना गया है पर look के लिए इतना बड़ा समझौता? 

निर्देशक श्रीराम राघवन अतीत को बहुत शिद्दत से जीते हैं, आजकल बहुत लोग उस nostalgia को पर्दे पर पेश करने की कोशिश करते हैं पर राघवन जिस तरह उसे अपनी फ़िल्मों में गूँथते हैं वो उनके अलावा कोई कर सकता है तो वो मैं ही हूँ :D। उन्हीं के लेवेल पर nostalgic हूँ मैं और मौका मिलने पर उनसे भी आगे जाकर उस दौर को जीवित करूंगा। राघवन के बारे में एक और mystery मैं सुलझा नहीं पाता कि आर डी बर्मन के संगीत से वे इस कदर अभिभूत रहते हैं पर अपनी फ़िल्मों में संगीत के क्षेत्र में वैसी कोशिश क्यों नहीं करते? सिर्फ जॉनी गद्दार में ही उन्होंने शंकर-एहसान-लॉय को लेकर 70s की तरह का संगीत रचने की कोशिश की थी। लेकिन बाकी फ़िल्मों का संगीत बेकार ही रहा है। जबकि अपनी फ़िल्मों के दृश्यों में वे पुराने गीतों का इस्तेमाल बहुत बढ़िया करते रहे हैं, यहाँ तक कि पार्श्व संगीत भी उसी दौर की याद दिलाता है। इस फ़िल्म का भी पार्श्व संगीत बरबस आर डी की याद दिला देता है। वे इस कदर अपने बचपन में देखी फ़िल्मों को याद करते हैं कि उनकी फ़िल्म के टाइटल भी उसी स्टाइल में आते हैं। पहले टाइटल्स हिन्दी, अँग्रेजी और उर्दू तीनों भाषाओं में आते थे। धीरे-धीरे सिर्फ अँग्रेजी में ही रह गए। मुझे ये कभी ठीक नहीं लगा, हिन्दी फ़िल्म में टाइटल भी हिन्दी न हो तो क्या मतलब। राघवन की फ़िल्मों में दोनों भाषाओं में होते हैं और उनका फ़ील भी वही पुराना वाला होता है। 

 फ़िल्म की सफलता यही है कि ये आपको बीच-बीच में फोन नहीं उठाने देती। कुल मिलाकर एक अच्छा अनुभव देती है श्रीराम राघवन की हर फ़िल्म की तरह। लेकिन उन्हीं की फ़िल्मों से तुलना करें तो बाकियों के मुक़ाबले कमजोर है। उनकी सर्वश्रेष्ठ अब भी “अंधाधुन” है। और जब अंधाधुंध का नाम लेते हैं तो सबसे पहले तबू का चेहरा नहीं उभरता आँखों के आगे? बस वही लैवल चाहिए था इस फ़िल्म में भी, काश कि एक बार फिर तबू को ही ले लेते तो बात ही कुछ और होती। 

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