हीरामण्डी - एक बार तो देखी जानी चाहिए

 

फिल्म निर्देशन दर असल सबसे कठिन, सबसे ज़्यादा मेहनत का और सबसे ज़्यादा टैलंट की दरकार रखने वाला काम है। एक फ़िल्म निर्देशक को ideally कला के हर स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए जैसे पेंटिंग, म्यूजिक, राइटिंग, पोएट्री, फोटोग्राफी, साउण्ड और हर वो फॉर्म जो एक फ़िल्म में use होता है। और मेरे ख़याल से इस वक़्त ऐसा फ़िल्मकार एक ही है – संजय लीला भंसाली। 

परंतु समस्या ये है कि भंसाली पेंटिंग से कुछ ज़्यादा ही obsessed हैं, और इसी वजह से अक्सर कहानी उनके हाथ से छूट जाती है। बल्कि मैं तो ये कहूँगा कि visuals के मामले में उन जैसा फ़िल्मकार आज तक नहीं हुआ है। उनकी हर फ्रेम कमाल होती है। सेट डिज़ाइन का वे इतना ध्यान रखते हैं कि tile का एक छोटा सा टुकड़ा भी उन्हें पर्फेक्ट चाहिए। अपनी फ्रेम की सुंदरता को लेकर इस कदर जुनूनी कलाकार भी आखिर अपने परिवार के चक्कर में समझौता कर लेता है। जो व्यक्ति एक काँच के टुकड़े में भी समझौता नहीं करता, उसने फिल्म की हीरोइन पर इतना बड़ा समझौता कर लिया कि फ़िल्म की आधी जान निकाल दी। फिल्म की प्रेम कहानी का केंद्र “आलमज़ेब” की भूमिका निभाने वाली ‘शरमीन सहगल’ उनकी भाँजी और एक जमाने के बड़े फिल्म निर्माता मोहन सहगल की पोती हैं। शरमीन ने पिछली कुछ फिल्मों में उनकी सहायक के रूप में काम भी किया है। भांजी के लिए इतनी बड़ी कुर्बानी कौन देता है? सिरीज़ के 8 episodes पूरे हो जाने के बाद भी वो खटकती ही रहती है। क्यों? आखिर क्यों? अगर उसका अभिनय भी लाजवाब होता तो शायद शक्ल - सूरत की कमी छुप जाती लेकिन वहाँ भी वो कमजोर ही रही है और डांस? उफ़्फ़। अगर कहानी यूं होती कि नायिका अच्छी नहीं दिखती है तब भी ठीक था, लेकिन ये भव्य ड्रामा पूरी तरह सुंदरता पर केन्द्रित है। वो तो गनीमत है कि शरमीन के आसपास इतनी खूबसूरत अदाकाराएँ घूमती है कि मन विचलित नहीं होता, वरना शरमीन को आठ एपिसोड में देख पाना नामुमकिन था।



पहली बार में खटके तो ताजदार भी थे, जिस टशन के साथ एंट्री कारवाई गई थी तो लगा था कोई गजब हीरो होगा लेकिन शरमीन की तरह ही प्रभाव दिया पहले एपिसोड में उन्होंने लेकिन जैसे-जैसे सिरीज़ आगे बढ़ती है, अपने अभिनय से बहुत कुछ संभाल लिया उन्होंने। हालांकि इस कहानी में सुंदर होने की बाध्यता नायिका पर ज़्यादा थी। अगर शरमीन का रोल किसी बहुत सुंदर अभिनेत्री ने किया होता तो कहानी का प्रभाव कई गुना बढ़ जाता। 

ख़ैर, पहला एपिसोड अगर आप देखकर अगले एपिसोड तक पहुँच जाते हैं तो फिर सिरीज़ बंद करने का मन नहीं करता, हाँ, पहले एपिसोड में ऐसा कई बार लगता है। बाकी सारी बातें तो सैंकड़ों लोग कर चुके हैं, मैं जो बात कहना चाहता हूँ वो कुछ अलग है। बल्कि पिछले एक साल से इस विषय में पोस्ट करना चाहता था। 

विषय है – तवायफ़

ये शब्द आज जिन अर्थों में लिया जाता है, किसी समय ऐसा नहीं था, तवायफ़ समाज का बहुत इज़्ज़तदार तबक़ा था। फ़न और तहज़ीब का उच्चतम ओहदा हुआ करता था। मैंने दो बेहतरीन किताबें पढ़ीं हैं इस विषय में, और तभी मुझे भी ये पता चला कि समय कितनी क्रूरता से कई चीजों को दफ़न कर देता है। ख़ास तौर पर उन्हें जिनके लिए आवाज़ उठाने वाला कोई नहीं होता। ये दो किताबें हैं – अमृतलाल नागर की “ये कोठेवालियाँ” और विक्रम सम्पत की “माइ नेम इस गौहर जान”। शायद कुछ किताबें भंसाली ने भी पढ़ी हैं और इसीलिए कुछ झलकें दिखाई देती हैं उनके प्रेजेंटेशन में पर mostly उन्होंने भी अन्याय ही किया है इस तबक़े के साथ। उन्होंने सच को आम धारणा के साथ मिलाकर कुछ अजीब सा गड्ड मड्ड कर दिया है। तवायफ वैश्या नहीं होती थी, जैसी कि अब आम धारणा बन गई है। कई लोग सिरीज़ में दिखाई गई भव्यता और तवायफ़ों के रहन-सहन पर आपत्ति कर रहे हैं। हालांकि गौहर जान कलकत्ता और लखनऊ में रही थी पर उनके आत्मकथा में जैसा उनका रहन-सहन बताया गया है वो ऐसा ही था, लाहौर का मुझे नहीं पता। बेहिसाब दौलत थी उनके पास। एक ज़माना था जब ग्रामोफोन कंपनी की पहली और सबसे ज़्यादा बिकने वाली कलाकार थीं वे। इस पहलू को भी भंसाली ने छुआ है। गौहर जान की माँ का नाम था मल्लिका जान जो इस सिरीज़ में मनीषा कोइराला को दिया गया है। विक्रम सम्पत की किताब पर आशुतोष गोवारीकर भी फिल्म की योजना बना रहे हैं।

 भारतीय समाज में इतनी विविधताएँ थीं, इतने वर्ग थे कि अंग्रेजों के लिए उसे समझ पाना बहुत मुश्किल था। तवायफ़ों को बर्बाद अंग्रेजों ने ही किया है जिसके लिए किसी पुलिस ऑफिसर की व्यक्तिगत दुश्मनी कारण नहीं बनी बल्कि एक बड़ा सामाजिक आंदोलन अंग्रेजों ने खड़ा किया था। उन्होने बाक़ायदा लोगों को जागरूक करने की मुहिम चलाई कि ये नाचने वालियाँ समाज पर बदनुमा धब्बा है। अङ्ग्रेज़ी शिक्षा पा रहे नए लड़के इस बात को मानकर ही चलते थे और इस तबके से नफरत करने लगे थे। ये समय इन औरतों के लिए कितना बुरा और दर्दनाक रहा है, ये इन दोनों किताबों को पढ़कर आपको पता चलेगा। दुख की बात ये है कि तवायफ़ों के साथ ही संगीत का भी बुरा समय आया। एक वक़्त था कि ठुमरी बहुत ही लोकप्रिय विधा रही थी और आम आदमी भी उसकी समझ रखता था। अब ये आलम है कि भंसाली ने अपनी सिरीज़ में ठुमरी को जगह ही नहीं दी जबकि महफिलों में वही गाई जाती थी। और सबसे बड़ी कमी तो ये कि आठ एपिसोड वाली तवायफ़ों की फ़िल्म में एक भी ढंग का नृत्य नहीं है, और जो हैं उनमें भी शरमीन का नृत्य तो शर्मिंदा करने वाला है। 



पहले एपिसोड के बाद कहानी आपसी झगड़ों में, फिर वहाँ से प्रेम कहानी में और फिर आज़ादी की लड़ाई में चली जाती है। लेकिन मन लगा रहता है। आखिरी एपिसोड में मेलोड्रामा फ्रंट सीट लेता है जो खटकने लगता है। पूरी फिल्म में जो दो हीरो दुश्मन रहे हों और क्लाइमेक्स में खलनायक को मारने के लिए हाथ मिला लें तो बचपन में ग़ज़ब फीलिंग आती थी, वही cliche भंसाली ने उपयोग किया है इस एपिसोड में। बल्कि बहुत सारे cliches हैं आख़िर में। लगता है लिखते लिखते मन लगना बंद हो गया था।

आखिरी गीत "हमें देखनी है आज़ादी" अच्छा लगता है। अरसे बाद कोरस का उपयोग सुना है।

आखिरी संवाद है आज़ादी की जंग खत्म हुई मगर औरत की जंग कभी खत्म नहीं हुई, खोखला सा लगता है क्योंकि सिरीज़ इधर उधर भटक कर इस मुद्दे पर आई थी पर ये मुद्दा कभी प्रमुख रहा ही नहीं। 

सिरीज़ काल्पनिक कहानी के तौर पर बुरी नहीं है। मेरे लिए तो पैसा वसूल भंसाली का प्रेजेंटेशन ही करवा देता है। उनके कलर combinations ऐसे होते हैं कि देखकर हिलोरें उठने लगती हैं अगर आप रंगों से मोहब्बत करते हैं। उस पर एक बार फिर बचपन की मोहब्बत मनीषा को देखना। इस जबर्दस्त परफॉर्मेंस के बाद अब खुशी ये है कि मनीषा फिर से और कई फिल्मों में दिखाई देने लगेंगी। 



इस उम्र में भी वे खूबसूरत लगती हैं। अपनी आवाज़ पर उन्होंने बहुत काम किया है इस सिरीज़ के लिए और उनकी आवाज़ कुछ कुछ रेखा की याद दिलाती है। 

जिसकी सबसे ज़्यादा चर्चा हो रही है और जो सबसे ज़्यादा खूबसूरत लगी हैं, बिब्बो जान याने अदिति राव हैदरी।

 मैं अदिति राव का बरसों पहले से प्रशंसक रहा हूँ। उनकी खूबसूरती और अदाकारी की कई बार तारीफ कर चुका हूँ जैसे ये साली ज़िंदगी या वज़ीर के बारे में जब लिखा था। जो नज़ाकत किरदार को चाहिए वो नज़ाकत है उनके पास। और खूबसूरत तो ग़ालिबन वे हैं ही। सोनाक्षी सिन्हा ने भी एक बार फिर अपने आपको स्थापित किया वरना वे लगभग बाहर हो चुकी थी। सोनाक्षी सुंदर तो लगती हैं पर built उन्होंने अपने पिता से पाया है, उनके साथ खड़ी होने पर सभी लड़कियां कमजोर दिखती हैं, यहाँ तक कि मनीषा भी। उनकी कद-काठी और हैवि बिल्ट अलग ही नज़र आता है। रिचा चड्ढा मुझे मिसफिट लगी। वहीदा का काम पूरी सिरीज़ में धोखे खाना ही रहा। इस कैरक्टर को ठीक से नहीं बनाया गया। ये कभी कुछ चाहता है कभी कुछ।

पुरुष पात्रों के लिए खास कुछ है नहीं करने को। ऐसा लगा था कि शायद फरदीन खान वापसी करने वाले हैं पर न तो उनका किरदार महत्वपूर्ण है और न ही उन्होंने ऐसा दिखाया है कि एक्टिंग के लिए कोई रुचि पैदा हुई है। शेखर सुमन भी मेहमान कलाकार ही रहे, और उनके बेटे अध्ययन सुमन भी जिन्होंने उनकी जवानी का किरदार निभाया है और एक और किरदार निभाया है रिचा चड्ढा के साहब का। 



उस्तादजी के किरदार में इंद्रेश मलिक का अभिनय वाकई बेहतरीन है। उज्ज्वल चोपड़ा नवाब अशफाक़ बलोच के किरदार में बिलकुल मिसफिट हैं। उनकी पर्स्नालिटी वैसी नहीं है, न ही अभिनय में वो बात है। आखिरी सीन में तो ढंग से रो भी नहीं पाये हैं। उनकी बजाय किसी tough दिखने वाले अभिनेता को लिया जाना था तो irony भी और अच्छी तरह उभर कर आती। कैरक्टराइजेशन भी कहीं-कहीं छूटता दिखा है।

मेरा ये मानना है कि प्रेम कहानी को जिस शिद्दत से भंसाली दिखा पाते हैं वो बहुत कम निर्देशकों के बस की बात है। प्रेम की तड़प, बेबसी और ऊर्जा को फील करवा देने की कूवत है उनके पास पर इस बार ये नहीं हो पाया, एक तो उनके पास बेहद कमजोर प्रेमी जोड़ा था, उस पर इस प्रेम कहानी में आग ही नहीं लग पाई।

कुल मिलाकर देखने लायक तो है पर भंसाली को थोड़ा जिम्मेदार होकर इतिहास सही दिखाना चाहिए था। उनके पास संसाधन हैं, पैसा है, वे कर सकते हैं। मगर ये जोखिम वे फ़िल्मकार उठाते हैं जिन बेचारों के पास कुछ नहीं होता। जिन्हें सच नहीं पता वे तो इसी को देखकर तवायफ़ों के बारे में अपनी राय बनाएँगे। इतिहास ने तो इंसाफ नहीं किया लेकिन कम से कम उनके किस्से तो उनके साथ इंसाफ करें।

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टिप्पणियाँ

  1. बेनामी10:12 pm

    Bahoot hi badiya review

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  2. बहुत ख़ूब, बेशक भंसाली कहानी को वैभव प्रदान करते हैं लेकिन उनके किरदार बोसीदा और माहौल खोखला होता है।संगीत पर उनकी पकड़ ख़ासतौर पर शास्त्रीय के बेहतरीन पीसेस को पेश कर उन्हें मकबूल बनाने का फ़न लाजवाब है।सीरीज़ में हर कुछ या कहें सबकुछ कहने का माद्दा होता है शुरू के एपिसोड्स की तारीफ़ वो पचा नही पाए
    एक फ़िल्म निर्देशक को ideally कला के हर स्वरूप का ज्ञान होना चाहिए जैसे पेंटिंग, म्यूजिक, राइटिंग, पोएट्री, फोटोग्राफी, साउण्ड और हर वो फॉर्म जो एक फ़िल्म में use होता है। पूरी तरह सहमत लेकिन हीरामण्डी लाहौर में दिलीप सिंह की हुकूमत के वक़्त उनके एक मंत्री या पेशकार के नाम बसा बाज़ार था आपने नागर को पढा है वो बाइयों के दुखदर्द रंजो अलम के ज़्यादा करीब थे .....👍👌💐

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