फाइनल्ली लापता लेडिस देख ली है।
पूरा review नहीं लिखूंगा क्योंकि आलस आ रहा है और उसमें बहुत टाइम लगता है। बहुत लोग लिख चुके।
उस लिखे हुए से कुछ बातों का ज़िक्र करके इतिश्री करूंगा।
पहली बात, ये कहानी इस सदी के शुरुआती दौर की है तो वो लोग जो घूँघट वगैरह पर हाय तौबा मचा रहे थे कि अब कहाँ ऐसा होता है, और लेखक ने गाँव नहीं देखे वगैरह, तो मैं कहना चाहता हूँ कि इन हाय तौबा लोगों ने गाँव नहीं देखे हैं। सन 2000 तो बहुत पुरानी बात हो गई, आज भी गावों में कोई बहुत बड़ा अंतर नहीं आ गया है। नई बहू पल्ला नहीं लेती है, इस बात पर आज भी घरों में महाभारत होती है। और ये कहानी जिस तबके की है उसमें तो अब भी लगभग सब कुछ पहले जैसा ही है तो इस दलील में कोई दम नहीं है, खारिज की जाती है।
अगर कुछ वास्तविकता से बहुत दूर है तो वो है दीपक के परिवार के सभी लोगों का इतना समझदार, इतना अच्छा होना। यहाँ मैं कह सकता हूँ कि लेखक ने गाँव देखा तो है पर जिया शायद ही है। जगह जितनी छोटी होती है, सोच भी उसी अनुपात में होती है लोगों की। अपवाद हर जगह होते हैं लेकिन एक परिवार के सब लोग इस तरह रहें, ये कतई संभव नहीं। यहाँ तो दीपक की माँ अपनी सास से दोस्त बनने की बात कर रही है। fake है। ये उसी भुलावे की continuity है जिसमें गाँव को आदर्श दिखाया जाता था, गाँव के लोगों को भोला, सरल, ईमानदार दिखाया जाता था। न गाँव वैसा 60 के दशक में था, न आज है। आप गाँव के सही चित्रण के लिए श्रीलाल शुक्ल की "राग दरबारी" पढ़िये। एक एक कैरक्टर ख़ालिस है। किसी एक कैरक्टर को समझदार दिखाते तो मान भी लेते, होता है एकाध आदमी तो पर सब के सब सहृदय हैं।
रवि किशन ने गजब ढाया है इसमें कोई शक नहीं।
फील गुड फिल्म है जहां दो लड़कियां अंजान लोगों के बीच पहुँच जाती हाँ पर उन्हें कोई खतरा नहीं है, सब बेहतरीन लोग मिलते हैं उन्हें। इस बात से मुझे कोई दिक्कत नहीं है। ऐसी भी होनी चाहिए फिल्में, वरना इंसान से भरोसा ही उठने लगा है। क्राइम पेट्रोल टाइप लाइफ बना दी है वेब सिरीज़ वगैरह ने कि हर तरफ खतरा नज़र आता है।
एक्टिंग सबने कमाल ही की है। मुझे दीपक का परफॉर्मेंस बहुत ही बढ़िया लगा। बिलकुल गाँव के छोरे जैसा ही लग रहा है।
अफसोस ये है कि ऐसी एक कहानी मैंने भी लिख रखी थी, पर इन्होंने चुराई नहीं है क्योंकि मैंने किसी को बताई ही नहीं है कभी 🙂
ऐसी एक घटना सच में हुई थी जिसमें तीन लड़कियों की एक ही मंडप में शादी हुई और बिजली चली गई। अंधेरे मे ही विदाई हुई और लड़कियां बदल गई थीं। अखबार में ये खबर पढ़कर ही कहानी ने जन्म लिया था, इसके लेखक ने भी शायद वहीं से आइडिया लिया हो।
बस एक ही कमी खलती है, इतनी प्यारी फिल्म में मधुर संगीत की। खुरदरी आवाज़ों में बेजान गीत सुनकर ऐसा लगता है कि हलुवा खाते-खाते कंकड़ फाँक लिए हों। इन लोगों का समय कब खत्म होगा? इस फिल्म में तो बहुत मेलोडियस संगीत की गुंजाइश थी, नदिया के पार जैसा..."कौन दिशा में लेके चला रे"।
कुल मिलाकर मज़ेदार फिल्म है, बच्चों को साथ बैठाकर देख सकते हैं, मासूम से किरदारों वाली मासूम फिल्म।
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