गिरीश कर्णाड - जन्मदिवस विशेष



If intellectuality had a face then it would be like "Girish Karnad".

क्या कोई व्यक्ति इतना प्रतिभाशाली हो सकता है कि जिस तरफ़ जाए बस कमाल ही करता जाये? इसके जवाब के लिए गिरीश कर्णाड की यात्रा देखनी चाहिए। 

महाराष्ट्र में जन्मे और कर्नाटक में पले-बढ़े कर्णाड कन्नड, हिन्दी, अँग्रेजी, मराठी, इन सब भाषाओं के पंडित थे। 

गणित और सांख्यिकी में बी.ए. करने के बाद (जी हाँ, उस समय इन विषयों में भी बीए होता था), वे मास्टर डिग्री के लिए लंदन गए और ऑक्सफोर्ड university से दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र में एमए किया। वापस भारत आने के बाद ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रैस में कुछ साल काम किया और फिर नौकरी को अलविदा कह, लेखन को ही अपना लिया। इसी समय थिएटर से भी जुड़े और नाटक लिखने की शुरुआत की। अपने साहित्य के लिए उन्होंने कन्नड भाषा को ही चुना क्योंकि बचपन से वही उनकी भाषा थी। "ययाति" जब छपा तब उनकी उम्र महज़ 23 साल थी। इसके बाद लिखा "तुगलक (1964)" उनका सबसे प्रसिद्ध नाटक है जिसका मंचन आज तक हो रहा है। उनके लिखे साहित्य की फेहरिस्त लंबी है। हाल ही में मैंने उनका नाटक "टीपू सुल्तान" पढ़ा। बुद्धिहीनता और मानसिक संकीर्णता के इस दौर में जब ऐतिहासिक पात्रों के आसपास जान बूझकर ढूंढ फैला दी गई है और झूठ को इतिहास साबित करने की कोशिशें की जा रही हैं, ये किताब बड़े ही प्रभावपूर्ण तरीके से उन सारी घटनाओं को आपकी आँखों के सामने ले आती हैं जो वास्तव में घटी थी। ऐसी किताबें कल्पना के घोड़े दौड़ाकर नहीं बल्कि गहन शोध के बाद ही लिखी जा सकती हैं। "टीपू सुल्तान" हमारे देश के ऐसे नायक हैं जिन पर आज की एहसान फरामोश पीढ़ी ने कीचड़ उछाला है। 

साहित्य लेखन के अलावा वे फिल्म लेखन, अभिनय और निर्देशन के क्षेत्र में भी उतरे और वहाँ भी उन्होंने कई पुरस्कार पाये। हमारी उन्हें देखने की पहली याद शायद "मालगुडी डेज़" की है जिसमें उन्होंने स्वामी के पिता का रोल किया था। इसके अलावा दूरदर्शन पर आने वाली कला फिल्मों में वे नज़र आते थे जैसे निशांत, मंडी वगैरह पर चूंकि उस वक़्त हम कमर्शियल फिल्मों को ही पसंद करते थे, हीरो हमारी नज़र में अमिताभ, मिथुन, गोविंदा थे, ऐसे में गिरीश कर्णाड को कैसे पसंद कर सकते थे। हमें बड़ा दयनीय लगता था ये एक्टर क्योंकि हमने फिल्म "मेरी जंग" में इस सीधे आदमी को मरते देखा था। बाद में जब अभिनय की समझ पैदा हुई तो समझ आया कि ये अभिनेता कितना जबर्दस्त है। किसी भी किरदार को इस शिद्दत से जीवंत करता है कि आपको वो किरदार ही नज़र आता है। वो असर पहुंचा तो बचपन में भी था अंदर जब मेरी जंग देखकर इसे सीधा, बेवकूफ़ सा आदमी समझा था क्योंकि इस तरह वो किरदार निभाया गया था। वे उन कुछ अभिनेताओं में से हैं जिनकी स्क्रीन प्रेसेंस ही इतनी दमदार होती थी कि उन्हें कुछ बोलने की भी ज़रूरत नहीं होती थी। हिन्दी में फिल्म भी निर्देशित की तो वो "उत्सव" थी जिसे अब तक नहीं देख पाये हैं। 

अभिनय के अलावा कई कन्नड फिल्मों का निर्देशन भी उन्होंने किया और ढेरों अवार्ड अपने नाम किए। साहित्य और सिनेमा, दोनों ही क्षेत्रों में उनका स्थान बहुत ऊंचा है। साथ ही साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी। 80 के दशक में वे शिकागो यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफ़ेसर थे। एफ़टीआईआई डाइरेक्टर और संगीत नाटक अकादेमी के चेयरमेन भी रह चुके हैं। लंदन में इंडियन हाइ कमीशन में संस्कृति मंत्री भी रह चुके हैं। 

बहुत ही बेबाक व्यक्तित्व के स्वामी गिरीश कर्णाड को सांप्रदायिकता से बहुत चिढ़ थी और अपने बेबाक बयानों से कई बार विवादों में भी घिर जाते थे, पर अपने विचारों के लिए इतने प्रतिबद्ध कि अपने अंतिम समय में अस्पताल में नाक में ट्यूब लगी होने पर भी उन्होंने एक तख्ती लेकर फोटो खिचवाई थी जिस पर लिखा था "me too urban naxal". 

2019 में उनकी मृत्यु हुई जो ठीक ही समय था क्योंकि तब तक भारत में बुद्धिजीवी होना गाली बन ही चुका था। अब बुद्धीहीनों के स्वर्ग में वे करते भी क्या। 

आज उन्हें याद करने का कारण उनका जन्मदिन है। ऐसे ही कुछ लोग हैं जिनसे कोई देश अपनी छाप दुनिया पर छोडता है। यही लोग असल में धरोहर होते हैं। 

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