मडगाँव एक्सप्रेस - मैड गाँव

 


कुणाल खेमू ने अपना सरनेम खेमू से वापस केम्मू कर लिया है, जो उनका असली सरनेम है। 

बचपन में जितने cute लगते थे, बड़े हुए तो मुझे देखकर आश्चर्य हुआ कि क्यूट बच्चे ऐसे भी बड़े हो सकते हैं? अब हो सकता है उन्होंने जो हैयर स्टाइल चुनी थी वो बहुत ही वाहियात थी। छोटे बालों में फिर भी ठीक लगते हैं, पर ठीक ही लगते हैं। “सर”, “हम हैं राही प्यार के”, “ज़ख्म” वगैरह के साथ भट्ट कैंप के स्थायी बच्चे थे और भट्ट कैंप की फिल्म से ही बतौर हीरो launch हुए, “कलयुग” से। उसके बाद से इक्का-दुक्का फिल्मों में नज़र आते रहे पर मामला कुछ जम नहीं रहा था। सुना है बचपन के काम की बदौलत अपने आप को पहले ही स्टार मान चुके थे, ऊपर से नवाब खानदान के दामाद बन गए। पहली बार मुझे फिल्म “गो गोवा गोन” में अच्छे लगे, वैसे वो फिल्म भी बढ़िया थी। और पहली बार इस फिल्म के डाइलॉग भी कुनाल ने ही लिखे थे, बढ़िया ही लिखे थे। 

फिर मैंने फिल्म “लूटकेस” देखी, फ़िल्म मुझे बहुत बढ़िया लगी थी, उसका review भी मैंने लिखा था जिसकी लिंक कमेंट बॉक्स में दे रहा हूँ। 

ये एक बहुत ही आम टेंप्लेट है जिस पर कई फ़िल्में बन चुकी हैं जिसमें किसी और का माल किसी और के पास चला जाता है जिसे 2-3 parties खोज रही हैं। कुणाल केममू की फिल्म “लूटकेस” भी तो यही कहानी थी। 

“मडगाँव एक्स्प्रेस” भी इसी तरह की कुछ कहानी है। अब इस तरह की कहानी में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ ये होती है कि इसके आसपास का तानाबाना किस तरह बुना गया है। अगर बुनकर ने वो तानाबाना अच्छा बुना है तो इससे फर्क नहीं पड़ता कि इस टेंप्लेट पर कितनी फ़िल्में बनी हैं। 

मडगाँव की कहानी है तीन बचपन के दोस्तों डोडो, पिकू और आयुष की, जो स्वभाव में एक-दूसरे से बिलकुल अलहदा हैं लेकिन उनकी दोस्ती फैविकोल का मजबूत जोड़ है। मिडिल क्लास बच्चे थे और इनका सपना था “दिल चाहता है” की तरह गोवा जाने का। लेकिन ये सपना पूरा नहीं हो पाया और परिस्थितियाँ कुछ ऐसी बनीं कि तीन में से दो अम्रीका में बस गए और एक डोडो मुंबई के अपने उसी छोटे से पुराने घर में रह गया। दोनों दोस्त अमीर हो गए हैं। तीनों दो साल बाद facebook पर मिलते हैं। डोडो के अंदर हीन भावना भर जाती है, बाकी दोनों का लाइफ स्टाइल देखकर। वो अपनी अमीरी के फर्जी फोटो पोस्ट करने लगता है और दोनों दोस्तों को भी यही बताता है कि वो बहुत अमीर है। 

तीनों एक बार फिर मिलना प्लान करते हैं। तय ये होता है कि बाकी दोनों मुंबई आएंगे और वहाँ से तीनों गोवा जाएंगे। बस यहीं से शुरू होती है गड़बड़ियाँ और इन गड़बड़ियों में हर बार और आग लगा देता है डोडो अपनी बेवकूफी और झूठ के जरिये। तीनों एक के बाद एक नई मुसीबतों में फँसते जाते हैं। 

डोडो छिछोरा और झूठा इंसान है, पिकू थोड़ा सीधा सा या ये कहें थोड़ा सा बेवकूफ़ और नाज़ुक इंसान है, आयुष स्ट्रॉंग और गंभीर बंदा है। कैरक्टराइजेशन अच्छा किया गया है और situations जो पैदा की गई हैं वे कहीं-कहीं हँसाने में क़ामयाब हैं। 

फिल्म के कन्विंसिंग लगने का एक बड़ा कारण इसकी main cast है। दिव्येंदु शर्मा, प्रतीक गांधी और अविनाश तिवारी अपने आपको साबित कर चुके हैं, बल्कि इस फिल्म का प्रोमो भी इनके पिछले कामों के नाम पर ही बनाया गया था मिर्ज़ापुर, स्कैम 92 और खाकी। दिव्येंदु को सबसे पहले प्यार का पंचनामा में देखा था और मुझे सिर्फ उसी में संभावना दिखाई दी थी बाकी दो बहुत कमज़ोर actors थे पर विडम्बना देखिये उनमें से एक स्टार हो गया है। प्यार का पंचनमा में जो किरदार किया था उसके बाद मिर्ज़ापुर में जो किया वो 180 डिग्री था, पर अच्छा निभाया था उसे। स्कैम 92 देखकर मैंने प्रतीक गांधी को मनोज बाजपई के समकक्ष रख दिया था, हालांकि अगली कुछ फिल्मों ने निराश किया और मुझे वे वन फ़िल्म वंडर लाग्ने लगे थे, लेकिन इस फिल्म में फिर से अपनी लय पकड़ी है। अविनाश तिवारी ने खाकी में महतो के किरदार में जो जान डाली थी, वो तो असली महतो भी नहीं डाल सकता। तो परफॉर्मेंस के लैवल पर फिल्म score करती है। 

कुणाल केम्मू ने इस बार सिर्फ एक केमियों किया है फिल्म में, बाकी पहली बार निर्देशन में भी उतरे हैं, फिल्म को लिखा भी उन्हीं ने है। इसका आइडिया उन्हें दिल चाहता है से ही आया था, जब उन्होंने सोचा कि क्या हो अगर उन तीनों दोस्तों की गोवा ट्रिप में कुछ गड़बड़ हो जाये?

उपेंद्र लिमये अपने चित-परिचित अंदाज़ में हैं। छाया कदम नया उभरता हुआ नाम है, हाल ही में लापता लेडीज़ में भी अच्छा नाम कमाया है। कुणाल केम्मू को ड्रग्स से विशेष प्यार है शायद, उनकी हर फिल्म में ड्रग्स को बड़े प्यार से दिखाया जाता है। 

बड़े आदमी हो तो फरहान अख्तर की कंपनी भी फिल्म प्रोड्यूस कर देती है, वरना घिसते रहो चप्पल।

मुझे तो फिल्म entertaining लगी, नॉन सैन्स कॉमेडी भी नहीं है, अच्छा टाइम पास है। 

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