600 करोड़ की फिल्में बनाने वाले बॉलीवुड ने अब तक कोई survival थ्रिलर फ़िल्म नहीं बनाई है। survival थ्रिलर से मतलब कि कोई जानलेवा परिस्थिति बनती हो और उसके मुख्य किरदार मिलकर उस परिस्थिति से बाहर निकलते हों और ये प्रक्रिया ऐसी हो कि देखने वाले दाँतों में उंगली दबाये देखते रहें। क्या कोई फ़िल्म इस तरह की आपको याद आती है? मुझे एक याद आ रही है, “ट्रेप्ड” जिसमें राजकुमार राव थे लेकिन वो फिर भी एक अलग ही genre था।
हॉलीवुड में तो ऐसी ढेरों फ़िल्में बनी हैं। पर जो बॉलीवुड में नहीं हुआ वो मलयालम फ़िल्म इंडस्ट्री लगातार कर रही है और बहुत ही कम बजट में। “मंजुमल बॉय्ज़” 2006 की एक सत्य घटना पर आधारित है। केरल के लड़कों का एक ग्रुप कोडईकनाल घूमने की योजना बनाता है। ये लोग एक कार किराए पर लेकर निकलते हैं। उस वक़्त क्वालिस बहुत पॉपुलर थी। कोडईकनाल से वापसी के वक़्त इनमें से एक लड़के को याद आता है कि एक जगह घूमने से रह गई है “गुना केव्स” जहां कमाल हासन की फ़िल्म “गुना” की शूटिंग हुई थी और तभी से उसका नाम गुना केव्स पड़ गया। तो ये ग्रुप केव्स देखने निकल पड़ता है। वहाँ घूमते-फिरते, मस्ती मारते सब लोग restricted एरिया में चले जाते हैं और उनमें से एक वहाँ एक गढ़धे में गिर जाता है। इस जगह को डेविल्स किचन कहते हैं क्योंकि उस गड्ढे में गिरकर फिर कोई वापस नहीं आया। कहा जाता है कि वो 900 फीट से भी ज़्यादा गहरा है। वहाँ के guard, टुरिस्ट गाइड, गाँव वाले और पुलिस सब इन दोस्तों को समझाते हैं कि वो अब वापस नहीं मिलेगा तुम जाओ यहाँ से लेकिन इन लोगों की दोस्ती इतनी गहरी है कि कोई भी वहाँ से जाने को तैयार नहीं है।
आगे क्या होता है ये जानने के लिए आप फ़िल्म ही देखें तो बेहतर है।
फ़िल्म की मेकिंग इतनी realistic है कि ऐसा लगता है जैसे किसी असली ग्रुप के साथ कैमरामैन को बैठा दिया है और सब कुछ रियल टाइम में capture हो रहा है। लड़कों की आपस की मस्तियाँ, उनकी बातचीत सब कुछ बिलकुल असल है। आपको अपने दिन याद आएंगे जब आप कॉलेज में पढ़ा करते थे। फ़िल्म का निर्देशन और फोटोग्राफी बहुत ही बढ़िया है। गड्ढे के अंदर के दृश्य भी इस तरह फिल्माए गए हैं कि आपको लगता है आप उसके अंदर ही हैं। बैक्ग्राउण्ड score up to the mark है।
Surprisingly ये फ़िल्म मलयालम फिल्मों के इतिहास में सबसे ज़्यादा कमाई करने वाली फ़िल्म बन गई है। जबकि मैं इसे हल्के में ही ले रहा था। कुछ सूझ नहीं रहा था तो यूं ही 5 मिनट के लिए ऑन कर ली थी पर फिर पूरी देख ली और एक बार भी मन नहीं किया कि छोड़ो यार, नहीं देखते अब। जबकि मैं इसी mindset के साथ बैठा था। यही इस फ़िल्म की सफलता है।
अब कुछ मज़ाक पर भी रोशनी डाल दी जाये। असल घटना के समय जब इन लड़कों ने पुलिस से मदद मांगी थी तो उल्टे इन्हीं की पिटाई की गई थी और दोस्त को मार कर फेंकने का केस इन्हीं पर किया जाने वाला था। यही फ़िल्म में भी दिखाया गया है और इस पर किसी ने एक याचिका दाखिल कर दी है जिस पर तमिलनाडू सरकार ने इस घटना की जांच के आदेश दे दिये हैं। मतलब इस देश में लोग जब मुसीबत में हों तब तो अथॉरिटी से मदद नहीं मिलेगी पर जब 18 साल बाद उस पर फ़िल्म बन जाएगी तो पूरी सरकार मदद करेगी। यदि ऐसा होता कि वो लड़का वहीं मर गया होता तो क्या होता? पुलिस महकमा इन लड़कों का जीना हराम कर देता, फिर इन पर कोई फ़िल्म भी नहीं बनती और ये मंजुमल बॉय्ज़ गुमनामी में क्या जाने क्या झेल रहे होते? इस घटना के बाद भी पुलिस ने इन लड़कों पर 2500 रु का फ़ाइन लगाया था जो उस समय इनके लिए बड़ी बात थी। ये घटना तब प्रकाश में आई जब इनके गाँव के किसी व्यक्ति ने तमिलनाडू की पेपर कटिंग देखी जिसमें ये खबर छपी थी। तब मंजूमल बॉय्ज़ ने प्रैस conference करके पूरी घटना बताई थी।
ख़ैर, फ़िल्म अपनी स्क्रिप्ट, उसके execution और अभिनय के लिए देखने लायक है, डिज़्नी hotstar पर उपलब्ध है।
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