2002 में जब मैंने राजकुमार संतोषी की “द लीजेंड ऑफ भगत सिंह” देखी थी और देखकर बावला हो गया था। मैं फ़िल्मी नहीं असल ज़िंदगी का हीरो बनने के लिए बेचैन हो गया था। हर तरह के अन्याय असमानता के लिए भगत सिंह की तरह होना चाहता था। खून उबलने लगा था लेकिन स्वभाव इतना शर्मीला था कि कोई रास्ता नहीं ढूंढ पाया पर फिर भी आंदोलन नहीं तो क्या, अपनी तरह से सब कुछ करने की कोशिश करता ही रहता हूँ। हालांकि ये उस फिल्म का आफ्टर इफैक्ट नहीं था बल्कि बचपन से पढे हुए साहित्य, शिक्षा का नतीजा था। फिल्म ने बस बेचैन किया था कुछ समय तक। मुझे बहुत अच्छी लगी थी।
अच्छी लगी थी इसी वजह से आज बच्चों को recommend की और उनके साथ इतने बरसों बाद फिर से देखने बैठा। हालांकि उस वक़्त भी दो बार तो देख ही ली थी।
फिल्म की शुरुआत बहुत अच्छी की थी, उस वक़्त जो लिनियर स्टोरी टेलिंग का चलन था उससे अलग, नॉन-लिनियर था। उस समय भगत सिंह के जीवन पर तीन फ़िल्में एक साथ आई थीं, एक बॉबी देओल की और एक सोनू सूद की भी थी लेकिन बाज़ी इसी फिल्म ने मारी थी। राजकुमार संतोषी और ए आर रहमान के नाम पर मुझे भी इसी पर पूरा भरोसा था। बॉबी देओल वाली भगत सिंह के निर्देशक गुड्डू धनोआ थे जिनसे कोई भी उम्मीद करना बेमानी था। तीसरी फिल्म के हीरो सोनू सूद को भी तब कोई नहीं जानता था और न ही निर्देशक को सो देखने का सवाल ही नहीं उठता था।
ख़ैर, मुद्दे की बात ये है कि 24 सालों में बहुत परिपक्वता आ गई है, फिल्म, विचारों और प्रोपगंडा की समझ में भी। अब चालाकी से पिरोया प्रोपगंडा समझ आता है। हालाँकि अध्ययन तो उस समय भी था इसीलिए जितना प्रोपगंडा समझ आया उस पर भरोसा नहीं किया था लेकिन अब देखी तो समझ आया कि कितनी बारीकी से संतोषी ने अपना प्रोपगंडा और जहरीला विचार इस फ़िल्म का अंडर करेंट रखा था। पूरी फ़िल्म में सीधे-सीधे तो नहीं पर चतुराई से गांधीजी को खलनायक साबित करने की कोशिश की गई है। उस समय मुझे लगा था कि निर्देशक के अपने विचार में उसे लगता होगा कि गांधीजी ने इस मामले में कुछ नहीं किया, उसने पढ़ा नहीं होगा पर अब समझ आता है कि फ़िल्म ऐसे ही बिना रिसर्च के नहीं बना ली जाती। वो हर एक सीन जिसमें गांधीजी पर्दे पर आए हैं, वो आपत्तिजनक है। यहाँ तक कि गांधी के किरदार को जिस तरह गढ़ा गया है वो शर्मनाक है। इतना लाचार और कमजोर दिखाया है उस आदमी को, जिससे न सिर्फ अंग्रेज़ बल्कि उनके हिंदुस्तानी सेवक, जिनकी विचारधारा का पोषण संतोषी करते हैं, भी परेशान थे। जो आदमी इतना कमजोर हो उसकी सरे-आम हत्या करने की कोई ज़रूरत नहीं होती।
संतोषी सांप्रदायिकता की बातें तो करते हैं लेकिन अपनी फिल्म में एक बार भी उन्हें नहीं दिखाते जो उस समय ज़ोर-शोर से इसे फैला रहे थे और समझ में ज़हर घोलने का काम कर रहे थे। फिल्म में सिर्फ एक बार भगत सिंह के मुंह से कहलवाया गया है कि हिन्दू महासभा फिर से हिन्दू मुसलमान करने लगेगी।
हिन्दू महासभा जो स्वतन्त्रता आंदोलन के खिलाफ़ थी, जिसने मुस्लिम लीग के साथ सरकार चलाई थी, उसके लिए बस एक संवाद है और कॉंग्रेस के लिए भड़ास पूरी फिल्म में निकाली गई है। भगत सिंह बुद्धिजीवी थे, दक्षिण पंथियों की तरह बुद्धिहीन नहीं। उन्होंने अपना रास्ता बदला था लेकिन गांधी के प्रति वही सम्मान उनका कायम रहा था जबकि फिल्म देखकर लगता है कि वे उनसे चिढ़ते थे। ये बचकानी और छिछोरी बातें हैं। भगत सिंह को बचाने के लिए नेहरू ने केस लड़ा था, गांधी ने पूरी कोशिश की थी लेकिन ये सब छुपा दिया गया इस फिल्म में। चूंकि हमने इतिहास पढ़ा है, एक से अधिक स्त्रोतों से जाना है इसलिये हम इन बातों को तवज्जो न देते हुए फिल्म देखते रहते हैं, फ़िल्मकार के अल्प ज्ञान को समझते हुए, पर बालमन पर इसका क्या प्रभाव पड़ सकता है ये पता चला जब देखते-देखते मेरे भांजे ने मुझसे पूछा कॉंग्रेस खराब थी क्या? सिर्फ बालमन ही नहीं संतोषी की तरह अल्प ज्ञानियों पर भी यही प्रभाव पड़ेगा।
वो दौर अलग था, नफरत और झूठ का ज़हर जनता में इस कदर नहीं फैला था। लेकिन इस अमृत युग में जब ज़हर इस देश की रग-रग में बह रहा है संतोषी भी खुल कर आ गए और एक बार फिर गांधी पर कीचड़ उछालने की कोशिश की अपनी फिल्म “गांधी गोडसे” से। लेकिन इस दौर में भी ये फिल्म नकार दी गई, और संतोषी ने हमेशा के लिए इतिहास में अपने नाम पर बट्टा लिखवा लिया।
ये तो हुई विचारधारा की बात, अब आते हैं फ़िल्म के क्राफ़्ट पर। तो मेरा ये कहना है कि फ़िल्म में भर-भरकर मेलोड्रामा है। भगत सिंह को फ़िल्मी हीरो की तरह ही पेश किया गया है। और सुखदेव, राजगुरु को हीरो के साइड किक की तरह। भगत सिंह का किरदार उभारने के चक्कर में बिस्मिल और आज़ाद तो बिलकुल बौने ही कर दिये गए हैं। चाहे भगत सिंह के परिवार के दृश्य हों, या उनके दोस्तों के, कृत्रिम situations हैं और खोखले संवाद हैं जो तालियाँ पाने के लिए लिखे गए ही लगते हैं। मेलोड्रामा की एक बानगी देता हूँ –
चन्द्रशेखर आज़ाद अपने आपको गोली मारने का निर्णय लेते हैं और रोते हुए ज़मीन से मिट्टी उठाते हैं, फिर कहते हैं – “माफ़ करना माँ, तेरी और सेवा नहीं कर पाया” और अपने आपको गोली मार लेते हैं।
मतलब “का है ई?”
ये भी कहा जा सकता है कि उस समय यही चलन में था और अब हम ज़्यादा mature सिनेमा देखने के आदी हो चुके हैं। मसलन, अगर realistic cinema में ये सीन दिखाया जाता तो इसमें कुछ भी कहने की ज़रूरत नहीं थी। बस अभिनेता को अपने चेहरे और आँखों से ही वो दर्द बयां करना था और गोली मार लेनी थी, खामोशी से। तो इस लॉजिक के अनुसार अब तक भगत सिंह पर सबसे बढ़िया फ़िल्म बनी नहीं है। टीन एज तक के दर्शकों को शायद आज भी लुभा ले पर अब टैस्ट बदल चुका है।
अजय देवगन ने अच्छी तरह निभाया है किरदार पर सुशांत सिंह के अभिनय में ज़्यादा धार है। ये अभिनेता हमेशा अंडर rated ही रहा अपनी अच्छी ख़ासी रेंज के बावजूद। इसमें अजय देवगन के साथियों में सुनील ग्रोवर भी नज़र आते हैं जिन्हें तब हम लोग बिलकुल नहीं पहचानते थे। फ़िल्म का पेस अच्छा है इसलिए बोर तो नहीं ही करती है पर मेरे जैसे दर्शकों को मेलोड्रामा बहुत अखरता है। इस फ़िल्म की स्क्रिप्ट को लेकर अंजुम राजाबली और पीयूष मिश्रा में अच्छा खासा विवाद छिड़ गया था और वो कुछ बरसों तक चला था। फ़िल्म का संगीत, चाहे वो गीत हों या पार्श्व संगीत, अद्वितीय है, अद्भुत है। रहमान का जलवा तब चारों और वैसे ही बिखरा हुआ था। गाने आज भी सुनकर मज़ा आ जाता है। बाकी सभी विभागों का काम भी बढ़िया ही है। राजगुरु अपने असल जीवन में कैसे थे ये मुझे नहीं पता पर इस फ़िल्म में उन्हें comedian दिखा दिया गया है। हो सकता है cinematic liberty ली हो कुछ light moments पैदा करने के लिए।
अमृता राव का करियर ज़्यादा नहीं चला लेकिन बहुत ही मासूम लगती थीं। पर्दे पर स्निग्धता आ जाती थी उनके आने से। राज बब्बर का किरदार भी प्रभावी नहीं था लेकिन चूंकि अभिनेता तो वे लाजवाब हैं इसलिए बखूबी निभाया है।
अजय देवगन ने संतोषी की ही एक और फिल्म की थी “हल्ला बोल” जिसमें ऐसा ही एक किरदार निभाया था। मुझे पहले लगता था कि जो अभिनेता ऐसे किरदार निभाता है उसके जीवन पर भी इसका कुछ असर तो पड़ता ही होगा और वो अपने विचारों में वाकई हीरो होता होगा जो अन्याय और हर तरह की गलत चीज़ के खिलाफ सोचता होगा लेकिन ये मिथक टूटते गए उम्र के साथ, आज ये हीरो दूसरे खेमे में बैठा दिखाई देता है।
कुल मिलाकर इस बार average लगी फ़िल्म और पहली बार इसके साथ ही, उसी वर्ष आई बाकी दोनों फिल्में भी देखने की इच्छा जाग्रत हुई। देखकर आपको बताता हूँ, उनका अनुभव।
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