आग में तपा सोना कुन्दन हो जाता है



ये मैं कब से लिखना चाहता था, पर अंदर से आवाज़ आती थी अभी सही समय नहीं आया है।


और आज, आ ही गया वो सही समय।


हमारे यहाँ ये मान्यता है कि आपका नाम आपके व्यक्तित्व पर असर डालता है। अगर ये सही है तो ये गाँधी का जो असर दिख रहा है वो नाम को भी सार्थक कर जाता है। राहुल गाँधी जिस तरह से उभरे हैं वो इतिहास में अभूतपूर्व घटना है। बल्कि उनके अपने परिवार में किसी को इतनी मुश्किलें नहीं आई स्थापित होने में जितनी उन्हें आई। इन्दिरा गाँधी और राजीव गाँधी को विरासत में एक स्टेटस मिला था, उन्हें उसके आगे का काम करना था, जबकि राहुल को शून्य से शुरुआत करनी पड़ी और उन्होंने अपनी जगह खुद लड़कर प्राप्त की है, वो भी ज़मीनी लड़ाई जो कभी उनके नाना नेहरू ने लड़ी थी। 2019 के बाद मैंने कई बार चर्चाओं में कहा था कि राहुल गाँधी को एक बार फिर उसी तरह शुरुआत करनी पड़ेगी जिस तरह नेहरू ने की थी, अब विरासत काम नहीं आएगी। ये सही साबित हुआ और सौभाग्य से यही उन्होंने किया भी। हालाँकि उनके पास बहुतेरे विकल्प थे। वे चाहते तो राजनीति को अलविदा कह बहुत आरामदायक ज़िंदगी दुनिया के किसी भी कोने में बिता सकते थे, उन्हें इस देश के गली-नुक्कड़ के दो कौड़ी के आदमी से भी ज़लील होने की कोई ज़रूरत नहीं थी। हालत ये है कि एक दूर-दराज गाँव का गंजेड़ी जो अपने जीवन में अपने बच्चों को ढंग का खाना तक नहीं खिला पाया है, वो पप्पू कह कर भद्दी हँसी हँसता है। एक ज़हीन इंसान के लिए ये अपमान बहुत ज़्यादा है। जितना अपमान राहुल का हुआ उतना शायद ही अब तक के इतिहास में किसी का हुआ हो।


राहुल की लड़ाई इसलिए और भी खास हो जाती है कि वो अकेले थे और उनके खिलाफ सरकार, पूरी मशीनरी, उद्योगपति, पैसा, अपने खुद के लोग और तो और जनता भी थी। याद करिए जब काँग्रेस के सारे वरिष्ठ नेताओं ने खुलेआम उनकी मुखालफत कर दी थी। अगर लड़ाई की शुरुआत को देखा जाये तो इस आदमी के पास कुछ भी नहीं था, इसके जीतने की कोई संभावना नहीं थी। दूसरी बात, नेहरू, इन्दिरा, राजीव को एक ऐसा विपक्ष मिला था जिसमें फिर भी गरिमा थी। भले ही राजनीति को कीचड़ कहा जाये पर उसमें विष्ठा नहीं मिली थी, लेकिन राहुल को जो विपक्ष मिला वो किसी भी हद तक गिर सकता था, और गिरा भी। और आप ये जानते ही हैं कि बिलकुल ही गिरे हुए इंसान से एक सभ्य इंसान नहीं जीत सकता, फिर भी राहुल डिगे नहीं, हारे नहीं, न ही मायूस हुए। उनके चेहरे पर वो सदाबहार सौम्यता और मुस्कुराहट हमेशा बनी रही।


एक समय था जब पूरा सोशल मीडिया राहुल पर बने चुटकुलों को फॉरवर्ड करने के लिए उपयोग हो रहा था। उनके विडियो एडिट करके गलत तरीके से पेश किए गए, उनकी छवि खराब करने के लिए करोड़ों रुपये बहाये गए। अयोग्य इंसान के लिए इतनी ज़हमत कोई नहीं उठाता, वो खुद ब खुद समय के साथ खत्म हो जाता है, अगर राहुल अयोग्य थे तो इतना कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं थी, क्यों इतनी तवज्जो देना?


मुझे आश्चर्य भी होता है, गर्व भी। एक वक़्त था जब मैं खुद विपक्ष के कुप्रचार की चपेट में आ गया था और राहुल को नालायक समझने लगा था। ख़ैर, मैं तो जल्दी ही समझ गया लेकिन बहुत से अपने आप को उच्च शिक्षा प्राप्त कहने वाले लोग अब भी जाहिलों की तरह बातें करते हैं। समझने के बाद मुझे गुस्सा आता था कि क्यों ये आदमी इन बेगैरत, मूरखों के लिए अपना जीवन ख़राब कर रहा है? इसे सब छोड़ कर चले जाना चाहिए, इसके पास वो सब कुछ है जो एक अच्छा जीवन जीने के लिए चाहिए होता है, मैं होता तो यही करता लेकिन फिर महान होने का तमगा इतिहास यूं ही तो हर किसी को नहीं देता ना? ये सुविधा नेहरू के पास भी थी, उन्हें कोई ज़रूरत नहीं थी सड़कों की खाक छानने की या जैल जाने की, वे खानदानी रईस थे लेकिन अपनी पूरी संपत्ति देश को दान करके उन्होंने कंटीली राह चुनी। ये चीज़ें ख़ून में होती हैं, और जिनके ख़ून में ये होता है वे कभी आसान राह चुन ही नहीं सकते।


राहुल ने ज़मीनी लड़ाई चुनी, मुझे गर्व है कि भले कुछ दूर सही, मैं उस ऐतिहासिक भारत जोड़ो यात्रा का हिस्सा बना था। उस यात्रा का उनके अपने दल के नेताओं ने मज़ाक उड़ाया था। कोई मौका नहीं छोड़ा गया जब उन पर निशाना न साधा गया हो। इस देश का प्रधानमंत्री जिसका काम अब देश के लिए काम करना था, 24 घंटे राहुल पर कीचड़ उछालने में बिताता था। उनके खिलाफ षड्यंत्र करने में अपनी ऊर्जा खर्च करता था। ये वो लोग हैं जो अपनी लाइन बड़ी करने के बजाय दूरों की लाइन छोटी करने को ही अपना धर्म मानते हैं। पर 10 सालों में पूरी कोशिशों के बावजूद एक दाग भी नहीं लगा पाए। ये खीझ हमारे भूतपूर्व प्रधानमंत्री के चेहरे पर साफ देखी जा सकती है। भारत जोड़ो यात्रा से भी कोई फायदा होता नज़र नहीं आया तो मैं झुँझला गया था। एमपी चुनावों के बाद मैंने उम्मीदें छोड़ दी थीं। लेकिन राहुल ने नहीं छोड़ी, वे तैयार थे एक और यात्रा के लिए। अद्भुत है ये आदमी। जब सब लोग उन्हें लानत भेज रहे थे कि चुनाव की तैयारी करने के समय वे न्याय यात्रा में लगे हैं, वे लोगों के बीच थे, उन्हें समझ रहे थे, उन्हें जान रहे थे। ये अनुभव निश्चित रूप से देश की जनता को बहुत फायदा पहुंचाने वाला है। ये यात्राएं अगर उन्होंने नहीं की होती तो उन्हें सिर्फ जानकारी होती लोगों के दुख तकलीफ़ों की, अब उन्हें अनुभव है, और ये अनुभव उन्हें प्रेरित करेगा उनके लिए काम करने के लिए न कि किसी उद्योगपति के लिए।


इतिहास में ये यात्राएं दांडी यात्रा के समकक्ष रखी जाएंगी। इस देश में दो दांडी यात्राएं हुई और दोनों ही गाँधी ने निकाली। वो यात्रा भी दमन और अहंकार के खिलाफ थी और ये भी। राहुल इतिहास में अपने पूर्वजों की बराबरी पर, बल्कि और ऊपर जा कर बैठ गए हैं। वर्तमान चाहे बेकदरी करे लेकिन इतिहास योग्य को इज्ज़त देता है।


ये चुनाव बहुत मुश्किल था। जहां विपक्ष के पास खर्च करने को 1 रुपया था तो सत्ता पक्ष के पास 100 रुपये थे। उस पर भी उनके खाते सील कर दिये गए थे, उनसे अवैध वसूली की गई। राहुल को चौतरफ़ा लड़ाई लड़नी थी, उनके खिलाफ सिर्फ एक दल नहीं बल्कि थे अथाह दौलत, कॉर्पोरेट, सरकारी मशीनरी, बाहुबल, मीडिया और अपने ही लोग। उस पर पूरे देश में सत्ताधारी दल ने नफरत का जहर इस कदर फैलाया था कि लोग भले रोटी न खाएं पर उन्हें उनको बर्बाद करना है जिनसे अब वे नफरत कर रहे थे, और ये नफरत सिर्फ एक धर्म विशेष के खिलाफ़ ही नहीं बल्कि जातियों में भी और यहाँ तक कि उनसे भी जो ज़रा भी मतभेद रखता है, सिखा दी गई थी। याद कीजिये अनुराग ठाकुर का नारा "देश के गद्दारों को, गोली मारो सालों को"। ये भी अकेला उदाहरण है दुनिया में जब एक देश की सरकार खुद अपने ही देश में अराजकता फैलाने की पूरी कोशिश कर रही थी। याने पूरी कायनात ही खिलाफ थी और जो इन सब को पछाड़ कर खड़ा हो जाये वो निस्संदेह कोई मामूली इंसान नहीं है।


और मुझे गर्व है अपने देश की जनता पर भी जो कुछ समय तो भ्रम में रह सकती है लेकिन आखिर सही कदम उठाती है। आप सभी को लोकतन्त्र की ये जीत मुबारक, अंधेरे का अंत मुबारक, अहंकार की बरबादी मुबारक और मुबारक आने वाला बेहतर समय।


Love Rahul Gandhi!


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